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बिटिया

 

सुनीता चेकअप करा कर लौटी थी। 

माँ ने घुसते ही पूछा, “क्या कहा डॉक्टर ने, सब ठीक है न . . .”

उत्साह जताते हुए सुनीता ने हामी भर दी, “सब ठीक है माँ, चिन्ता की कोई बात नहीं।”

निश्चिंत हो, माँ ने गहरी साँस भरी और रसोई की ओर चल दी, उसकी पसंद का सूजी का हलवा बनाने। ऐसे समय में ख़ुश रहना, अपनी पसन्द का खाना, पीना, उसके लिए कितना ज़रूरी है, वो समझती थी। 

कुछ महीनों बाद माँ को ख़बर मिली कि सुनीता को बिटिया हुई, और उसने अपनी ननद को गोद दे दी। वो आवाक् रह गयीं! 

जानती थी कि ननद की कोख ठहर नहीं पाती थी, पर यूँ अपना बच्चा दे देना . . .! 

सुनीता आई तो उन्होंने सवालों की बौछार कर दी।

“अरी, किसी से न सलाह, न मशवरा, यूँ ही बच्ची उठा कर दे दी?” 

“कैसी निर्मोही है री तू, तेरा कलेजा नहीं काँपा, अपने जिगर के टुकड़े से अलग होते समय?”

“मुझे तो विश्वास नहीं होता कि तू मेरी ही बेटी है . . . देखा नहीं तूने, तेरे पिता जी के बाद भी मैंने तुम तीनों बहनों को अकेले किस तरह पाला . . .?”

“खून से सींचना पड़ता है औलाद को, आसमान से नहीं टपकती . . .!”

माँ वही एक राग अलग-अलग तरीक़ों से दोहरा रही थी। 

सुनीता का मौन, उसकी आँखों का शून्य, उसकी शिथिलता, माँ को कुछ नहीं दिख रहा था। 

जैसे ही माँ ने कहा, “सुधीर जी ने रोका नहीं तुझे, उन्होंने हामी कैसे भर दी? . . . आने दे, पूछूँगी उनसे।”

सुनीता की मानो तन्द्रा टूटी और वो चीख उठी, “माँ, तुम्हारे दामाद किसी भी हालत में एक और लड़की नहीं चाहते थे . . . 

“समझ रही हो न माँ, ‘किसी भी हालत में’ . . .!”

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