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स्वाद

 

सेठानी के सिलाई के कपड़े तैयार होते ही माँ ने झट चंदू को हिसाब समझाया और उनके घर भेज दिया। 

“न माँ को सब्र है, न सेठानी जी को . . . इतनी तपती दोपहरी में मुझे भेज दिया . . . पैसे क्या भागे जा रहे थे या फिर सिठानी जी के पास और कपड़े नहीं थे पहनने को . . .” पूरे रास्ते चंदू बुड़बुड़ाता रहा। 

जब तक सेठानी अंदर से बटुआ लेकर आती, चंदू वहीं आँगन में प्रतीक्षा करने लगा। 

रसोई से पूड़ी-कचौड़ी बनने की ऐसी ख़ुश्बू आ रही थी कि सारा आँगन महक रहा था। 

चंदू की लार टपकने लगी। उसने खड़े-खड़े आँखें मूँदकर पाँच सात लंबी गहरी साँसें भर ली . . . 

अब वो जब चाहे कचौड़ी के स्वाद का मज़ा ले सकता था! 

तभी अंदर से सेठानी आयीं और उसे पैसे और एक थैली थमाते हुए बोली, “अपनी माँ से कहना कपड़े अच्छे सिले हैं, पर हाँ, अगली बार तुझे इतनी भरी दोपहरी में न भेजे . . .”

थैली से आती चित परिचित ख़ुश्बू अनायास ही बोल पड़ी, “गर्मी ज़्यादा नहीं थी सिठानी जी, आप चिंता न करें, आपके कपड़े जैसे ही तैयार होंगे, मैं लेता आऊँगा।”

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