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प्रीति अग्रवाल ’अनुजा’ – 011

1. 
मैं नदिया होकर
भी प्यासी, 
तुम सागर होकर
भी प्यासे, 
'गर ऐसा है
तो ऐसा क्यूँ, 
दोनों पानी . . . 
 . . . दोनों प्यासे! 
 
2.
उनींदी अँखियाँ
तलाशती सपनें
जाने कहाँ गए
यही तो हुआ करते थे . . .
उनके पूरे होने की आस में
हम दोनों जिया करते थे . . .।
 
3. 
करिश्मे की चाहत में
कटते हैं दिन, 
हम ज़िंदा हैं
करिश्मा ये
कम तो नहीं . . .! 
 
4. 
मेरी कमरे की खिड़की
छोटी सही . . . 
उससे झाँकता जो सारा
आसमां, वो मेरा है! 
 
5. 
यूँ तो होते हो
पास, बहुत पास
हर पल . . . 
शाम होते ही मगर
याद आते हो बहुत। 
 
6. 
जानती हूँ मुझसे
प्रेम है तुम्हें, 
दोहरा दिया करो
फिर भी, 
सुनने को जी चाहता है . . .! 
 
7. 
चलना सम्भल के
इश्क़ नया है . . . 
सम्भल ही गए
तो, इश्क़ कहाँ है! 
 
8. 
रिश्ते
बने कि बिगड़े
सोचा न कर
थे सिखाने को आए
सिखाकर चले . . .।
 
9.
तुम्हारे कहे ने ही
दिल को
छलनी कर दिया, 
अनकहे तक तो हम
अभी पहुँचे ही नहीं . . .! 
 
10.
गिनवाते रहे
तुम अपने गिले, 
हम इस क़द्र थके
कोई शिकवा न रहा . . .। 
 
11. 
एक बार बचपन में
चाँदी का सिक्का उछाला था
चित-पट तय हो ही न पाई
वो जाकर
आसमान में जड़ गया, 
वही तो है
जो चाँद बन गया! 

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