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समय की डोर

कल की सोच में
बीत रहा है,
आज का दिन . . .
कल,
फिर आएगा,
एक और,
नए-पुराने,
कल की सोच में,
फिर लग जायेगा . . . 
मानो,
"आज" का
अपना कोई
वजूद ही न हो . . .
वह मात्र
दो "कलों" के बीच,
विश्राम स्थली सा हो . . .।
 
सोच में थी,
इस "आज" को
कैसे थामूँ . . .
इसे,
किस डोर से बाँधूँ,
कि ठहर जाए,
कुछ देर, यह
पास मेरे . . .
 
अनायास ही,
नज़र पड़ी,
अठखेलियाँ करती,
दो तितलियों पर . . .
पकड़म-पकड़ाई
खेल रहीं थीं,
एक दूसरे को
उकसा रहीं थीं,
चिढ़ा रही थीं, ख़ूब
आनंद उठा रहीं थीं . . .
ठीक वैसे,
जैसे सहेलियाँ, अक़्सर,
किया करती हैं . . 
 
थक कर, हाँफती,
दोनों जा बैठीं
फूलों की सेज पर
रस पान करने,
अरे लो!
वे तो फिर उड़ चली . . .
इस बार,
जो पिछली बार
पीछे रह गयी थी,
बड़ी चतुराई से
मुँह चिढ़ाती,
आगे निकल गयी,
उन्हें देख, मेरी
हँसी भी न रुकी . . .
वही,
बचपन वाली हँसी,
जो,
बेबात आती थी,
बेवक़्त आती थी,
बड़ी देर तक आती थी,
बहुत खुल कर आती थी . . .
मैं, उनकी अठखेलियों में
ऐसे खोई, कि
कुछ बोध न रहा . . .
न बीते कल का,
न आने वाले कल का . . . !

वे दोनों,
जाते जाते,
मेरे हाथों,
"आज" की डोर,
थमा गईं!!

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