आवारा मन
काव्य साहित्य | कविता प्रीति अग्रवाल 'अनुजा'1 Jul 2021 (अंक: 184, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
जाने कौन से गलियारों में
घूमता फिर रहा है,
कहो तो उससे, जो माने
ये तो अपनी ही ज़िद पे अड़ा है!
होगा कुछ भी नही,
यूँ ही, ख़ाक छानकर, थका लौटेगा . . .
क्या हुआ?
क्यों हुआ?
ऐसा होता तो?
वैसा न होता तो? . . .
इसी गर्दिश में धक्के खाकर,
फिर चुपचाप सिमट कर बैठेगा।
कह कर देखूँ
शायद मान ले –
"मन, अब तू बच्चा नहीं
बड़ा हो चला है,
जो है,
आज और केवल आज है,
काल की रट ने
सिर्फ़,
और सिर्फ़, छला है!!"
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