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रिहाई

आज,
न जाने क्या बात है . . .
यूँ तो सब कुछ वही है
पर एक,
बेचैनी का एहसास है . . .
हर साल ही तो,
आता है पतझड़
जाते हैं पत्ते,
सरपट हवाएँ . . . 
इस बार, फिर
ऐसा क्या ख़ास है . . .?
 
कुछ होने को है, या
शायद हो रहा है,
मेरी रूह को मानो,
एक भीना सा अहसास है . . .
 
आज न जाने क्यूँ ,
लयबद्ध सी, हो रही हूँ मैं
कभी बेरहमी, तो कभी
मुक्ति का आभास है . . .
 
बोरिया बिस्तरा बाँध,
क्या पंछी, क्या गिलहरी
सभी दुबकने को तैयार हैं,
हर तरफ़
चला-चली का माहौल है . . .।
 
मेरी इमारत में भी, कुछ
खिड़कियाँ चर्रा रहीं हैं,
ढीली सी साँकल, खुलने की
हसरत जता रहीं हैं,
भूली बिसरी यादों,
वादों और शिकायतों के परिंदे
बरसों से क़ैद,
आस मुक्ति की लगाए बैठे हैं . . . 
 
सोचती हूँ,
मैं भी अलविदा कह ही दूँ,
कब तक थामूँ,
और क्यूँ थामूँ . . .?
आज, लौटा ही दूँ
उन सब को,
जो छटपटा रहे हैं, मुझमें,
रिहा होने को,
आज कह ही दूँ, हवाओं से –
लो! इन सब को भी,
उड़ा ले जाओ
संग अपने,
दूर, बहुत दूर . . .
 
आज,
मैं भी उठूँ
और खड़ी हो जाऊँ,
बेख़ौफ़,
बिन मुखौटे,
बेझिझक,
बेपरवाह,
इन स्वाभिमानी,
दरख़्तों की तरह!!!

प्रीति अग्रवाल 'अनुजा'

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टिप्पणियाँ

प्रीति अग्रवाल 2021/11/20 01:43 AM

निर्मल सिद्धू जी एवम सविता जी का ह्रदय तल से आभार जो आपने मेरी कविता को इतने प्रेम से पढ़ा और सराहा! इतना सुंदर मंच प्रदान करने के लिए आदरणीय सुमन जी का हार्दिक आभार।

निर्मल सिद्धू 2021/11/19 03:20 AM

बहुत सुन्दर कविता है, सही चित्रण के साथ प्रस्तुति भी अच्छी है

सविता अग्रवाल ‘सवि’ 2021/11/19 02:58 AM

बहुत ही सुंदर कविता है प्रीति । शीर्षक भी बिलकुल सही। हार्दिक बधाई।

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