अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

बजट

ऐसा पहली बार नहीं हुआ था, हर थोड़े दिन में वही सवाल मुँह बाए खड़ा हो जाता था . . . क्यों उसे राकेश अभी तक अजनबी से लगते थे? छह वर्ष हो गए थे उनके विवाह को, फिर भी मधु उन्हें अभी तक क्यों नहीं समझ पाई थी? वे पढ़े लिखे थे, घर बार अच्छा था, ऊँचे पद पर प्रशस्त थे . . .उसके पास रहने को एक आलीशान बंगला था . . . गाड़ी ड्राइवर भी . . .सब कुछ तो ठीक था . . . फिर क्या था कि जीवन का जमा-जोड़ ठीक नहीं बैठ रहा था . . .?

कल घर पर दावत हुई थी, ऑफ़िस से उनके बॉस और कुछ अन्य सहकर्मी और मित्र आए थे . . . ख़ातिरदारी भी ज़रूरत से कुछ अधिक ही हुई थी . . . सभी वाह वाह! करते लौटे थे . . .

 . . . और पिछले महीने ही तो हमनें गौरी कुण्ड पर ग़रीबों और विधवा बाइयों को शॉल एवं कम्बल बाँटे थे . . . कुछ लोग तो राकेश को पहचान भी गए और 'जयपुर वाले सेठजी' कहकर संबोधित कर रहे थे। वो अपनी तारीफ़ सुनकर फूले नहीं समा रहे थे . . . पर उसका मन बुझा-बुझा सा क्यों था . . . वो चाहते हुए भी, ख़ुश क्यों नहीं हो पा रही थी . . .?

संध्या की दिया-बाती करके ज्यों ही वो मुँडेर पर दीपक रखने गई तो चिराग़ तले अँधेरे ने वो सब कह दिया जो शायद वो अनुभव तो कर रही थी, पर मन स्वीकार करने से कतरा रहा था . . .

राकेश की रोज़-रोज़ की टोका-टाकी, ख़र्चा कम करने की हिदायत, उसकी छोटी-छोटी ज़रूरतों को फ़िज़ूल खर्च का नाम देना, बात-बात पर 'बजट' न होने की दुहाई देना . . . 

मधु ने दराज़ से समाचार पत्र निकाला और नौकरी के लिए इश्तहारों को बड़े ग़ौर से पढ़ने लगी . . . उसे अपना 'बजट' ख़ुद जो बनाना था . . .!!

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

पाण्डेय सरिता 2021/05/15 05:41 PM

बहुत खूब

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

लघुकथा

कविता - हाइकु

कविता-माहिया

कविता-चोका

कविता

कविता - क्षणिका

सिनेमा चर्चा

कविता-ताँका

हास्य-व्यंग्य कविता

कहानी

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं