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सेठजी की गाड़ी कम्बलों से खचाखच भरी हुई थी। 

सेठानी बन-ठन के पीछे वाली सीट पर बैठी थी। कहीं उनकी क़ीमती साड़ी और सेंडल धूल-धक्कड़ में ख़राब न हो जाए इस डर से वो गाड़ी में बैठे रहना ही पसन्द करती थी। 

हर सर्दी में होने वाले इस कार्यक्रम से ड्राइवर भली-भाँति परिचित था, सो डिक्की खोलकर तैनात खड़ा था। 

सेठजी अपनी छड़ी को हिला-हिला कर सब लोगों को लाइन बनाने की हिदायत दे रहे थे। 

वे ठहरे पक्के व्यापारी, हिसाब-किताब उनकी रगों में दौड़ता था, जानते थे कि इस दान-पुण्य से ख़ुश होकर प्रभु की ओर से कम से कम चौगुना तो कहीं नहीं गया! 

सेठजी से इशारा पाकर ड्राइवर सब को एक-एक कम्बल पकड़ाने लगा। 

लाईन के अंत में एक बढ़िया को पहचान कर सेठजी कड़ककर बोले, “क्यों री बुढ़िया, तू तो कम्बल ले जा चुकी है, दोबारा आ गयी, किसी और का हिस्सा मारने!”

सेठानी पीछे से बोली, “हाँ हाँ और मत देना, ले लोग कम्बल रजाई आगे बेच देते हैं।”

बुढ़िया बड़े सधे स्वर में बोली, “वहाँ एक औरत बुखार में तपन लाग री है, घणी कमजोर है, सो मैंने अपना कम्बल उसे दे दिया . . . पर कोई बात ना सेठजी, म्हारा गुजारा तो चल जाएगा, थारे खजाने में कमी ना होनी चाहिए . . .!”

सेठ सिठानी जितनी देर में आँखों-आँखों में सलाह करते, बुढ़िया फ़ुटपाथ की ओर मुड़ चुकी थी। 

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