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वीर जटायु

 

रामायण में ऐसे कई पात्र हैं जिनकी धर्म निष्ठा एवं कर्त्तव्यपरायणता अनुकरणीय है। ऐसे ही एक प्रेरणादायक पात्र हैं जटायु! 

छल से दुष्ट रावण माता सीता का अपहरण करके आकाश मार्ग से लंका की ओर ले जा रहा था। असहाय माता विलाप कर रही थी, रक्षा हेतु राम और लक्ष्मण को पुकार रही थी। माता का करुण क्रंदन सुन एक विशाल गिद्ध ने रावण का मार्ग रोका। यह दिव्य गिद्धराज और कोई नहीं अपितु जटायु ही थे। उन्होंने बार-बार रावण को चेताया कि एक बलशाली राक्षसराज का इस प्रकार एक असहाय अबला का अपहरण अशोभनीय है, धर्म के विरुद्ध है। पर जब वह नहीं माना तो माता के सम्मान और धर्म की रक्षा हेतु रावण से घोर युद्ध किया। यद्यपि वे वृद्ध थे, फिर भी उन्होंने अपनी चोंच और पंजों के प्रहार से रावण को बहुत क्षति पहुँचाई। अंत में रावण ने अपनी चंद्रहास खड़क से वीर जटायु का पंख काट दिया जिसके फलस्वरूप वो धरती पर आ गिरे। 

प्रभु श्री राम को वे इसी क्षत-विक्षत, मरणासन्न स्थिति में मिले। उन्होंने संक्षेप में रावण के साथ हुए युद्ध का वृत्तांत बताया और माता सीता की रक्षा हेतु शीघ्र अति शीघ्र दक्षिण दिशा की ओर प्रस्थान करने का आग्रह किया। इतना कहकर वीर जटायु ने राम जी की गोद में मोक्ष प्राप्त किया। पिता तुल्य मानकर राम ने विधिवत उनका अंतिम संस्कार किया। 

यहाँ तक की कथा से हम सब भली-भाँति परिचित हैं पर आज इस वीर, धर्मनिष्ठ योद्धा के बारे में कुछ और तथ्य जानते हैं। 

प्रजापति कश्यप और पत्नी विनता के दो पुत्र हुए—गरुड़ और अरुण। गरुड़, जी विष्णु जी की सेवा में प्रत्यायोजित हुए और अरुण, सूर्य भगवान के सारथी नियुक्त हुए। अरुण और उनकी पत्नी शेयनी के दो पुत्र हुए—संपाति और जटायु। दोनों अत्यंत शूरवीर और बलशाली थे, दंडकारण्य के ऊँचे पर्वतों पर निवास करते थे, ऊँची उड़ने भरते थे। 

एक बार वह दोनों उड़ते-उड़ते सूर्य के बहुत निकट पहुँच गए। जटायु के पंख झुलसने लगे, तब संपाति ने अपने पंख फैलाकर उन्हें तो बचा लिया पर स्वयं जल गए। बाल्यकाल के इस अनुभव ने जटायु के हृदय में कर्त्तव्य, त्याग और प्रेम के प्रति अमिट छाप छोड़ दी। 

धार्मिक कथाओं के अनुसार राजा दशरथ अपने राज्य के विस्तार और धर्म की रक्षा के लिए अलग-अलग जगह भ्रमण कर रहे थे। एक बार जंगल में दानवों ने राजा पर हमला बोल दिया। पक्षीराज जटायु ने साहस पूर्वक उनका सामना किया और राजा के प्राणों की रक्षा की। तभी से राजा दशरथ और जटायु में गहरी मित्रता हो गई। जटायु राम, लक्ष्मण आदि को अपने पुत्र समान मानने लगे। इसी प्रेम भाव से अभिभूत होकर उन्होंने सीता को अपनी पुत्रवधू माना और उनकी रक्षा हेतु अपने प्राणों का बलिदान दिया। 

सोचकर देखिए यदि जटायु ना होते तो क्या होता—सीता माता के अपहरण का ना कोई साक्षी होता और ना कोई प्रतिरोध होता। राम को रावण की दिशा का ज्ञान ही नहीं हो पाता। वन वन भटकते राम न जाने कब लंका पहुँचते। तब तक, माता सीता को घोर संताप का सामना करना पड़ता। राम कथा की दिशा और दशा दोनों ही अनिश्चित होती। इसीलिए जटायु जी की भूमिका का मर्म समझना और समझना अत्यंत आवश्यक, महत्त्वपूर्ण और प्रासंगिक है। 

वे केवल एक पक्षी नहीं थे अपितु धरती पर धर्म की रक्षा हेतु जन्मे एक योद्धा थे। वे नारी सम्मान और आत्मबलिदान के प्रतीक थे। उन्होंने अपने आचरण से दिखा दिया कि धर्म की रक्षा करने के लिए कोई भी जीव छोटा नहीं होता। उनका जीवन हमें सिखाता है कि अन्याय के आगे चुपचाप कदापि न रहे, चाहे परिणाम कुछ भी हो, क्योंकि:

“धर्मो रक्षति रक्षतः” 

अर्थात्‌ जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म, उसकी रक्षा करता है। 

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टिप्पणियाँ

प्रीति अग्रवाल 2025/10/19 07:04 AM

पत्रिका में स्थान देने के लिए हार्दिक आभार आदरणीय सुमन जी!

कृपया टिप्पणी दें

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