समकालीन ग़ज़ल और विनय मिश्र पुस्तक से गुज़रते हुए
समीक्षा | पुस्तक चर्चा डॉ. जियाउर रहमान जाफरी15 Mar 2020 (अंक: 152, द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)
हिन्दी कविता की परंपरा में ग़ज़ल को शामिल न करने के पीछे परम्परावादी आलोचक की अपनी मजबूरियाँ भी हैं, और वो ये हैं कि ग़ज़ल लिखने और समझने के लिए जिस शऊर की ज़रूरत पड़ती है वो उनकी काव्य प्रतिभा के बाहर है। ऐसी तमाम कोशिशों के बाद भी आज ग़ज़ल ही सबसे ज़्यादा पाठक वर्ग तक पहुँच रही है जिसका कारण उसका लबो-लहज़ा और तासीर है। सिर्फ़ आम पाठक ही नहीं न्यायालय के जज और बजट पेश करते हुए मंत्री भी शेर का इस्तेमाल कर रहे हैं।
हिन्दी ग़ज़ल को दुष्यंत ने जो लोकप्रियता दी उसकी परम्परा को जिन शायरों ने शिद्दत के साथ बचा रखा है, उनमें एक ताक़तवर नाम विनय मिश्र का भी है। इसलिए ज़रूरी हो गया था कि आलोचना के स्तर पर भी उनकी ग़ज़लों को परखा और समझा जाये। जिस काम को एक आलोचक लवलेश दत्त ने ही निभाया और उनके सम्पादन में विद्यानिधि प्रकाशन दिल्ली से ही कुछ वक़्त क़ब्ल ही 'समकालीन ग़ज़ल और विनय मिश्र' किताब अपने पूरे आकर्षण के साथ छप कर आई है। जिसमें देश के तैंतीस आलोचकों ने विनय मिश्र की ग़ज़ल पर अपनी बात प्रमुखता से रखी है। लगभग साढ़े तीन सौ से कुछ कम पृष्ट की ये किताब हिन्दी ग़ज़ल का जायज़ा लेती ही है, इस परम्परा को आगे बढ़ाने में विनय मिश्र के अवदान की चर्चा भी करती है। इस क्रम में वागीश शुक्ल जहाँ विनय साहब को भरोसे का शायर बताते हैं तो अनिल राय मानते हैं कि उनके ग़ज़लें गहरे विचार बोध की उपज है। श्रीधर मिश्र की नज़रों में उनकी ग़ज़लों में समय की साफ़ तस्वीर है तो लवलेश दत्त का मानना है कि भाषाई विविधता उनकी ग़ज़लों की ख़ूबसूरती है।
इसमें दो राय नहीं है कि आज जहाँ हिन्दी ग़ज़ल पहुँची है वहाँ इस किताब की ज़रूरत महसूस की जा सकेगी। इनके बिना ग़ज़ल का अध्यापन होना मुश्किल ही नहीं ना मुमकिन भी है...!
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