बेवजह
काव्य साहित्य | कविता मनोज शाह 'मानस'1 Sep 2022 (अंक: 212, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
बेवजह ही ये बरसात।
बरसती रही सारी रात॥
बहाने को कहा था गन्दगी।
बहाकर ले गई मासूम ज़िन्दगी॥
सारी ज़िन्दगी सारी कायनात।
बरसती रही सारी रात . . .॥
बेवजह ही ये बरसात।
बरसती रही सारी रात॥
ये ज़िन्दगी ये हरियाली ये रास्ते।
कुछ भी न बचा किसी के वास्ते॥
बहाने को कहा था सोई हुई ज़मीर।
बहाकर ले गई छत और ज़मीन . . .।
बहा ले गए ज़र्रा-ज़र्रा पात-पात।
बरसती रही सारी सारी रात . . .॥
बेवजह ही ये बरसात।
बरसती रही सारी रात॥
और यह भी कहा था सीमाओं में बहा करो।
सारी सीमाएँ तोड़कर यूँ प्रलय मत करो . . .॥
बहुत सितम हुआ है पिछले सालों में।
सुना है उसी का परिणाम है इस सालों में॥
सचमुच सच क्या है . . .,
बता ज़रा सच्ची सच्ची बात।
बरसती रही सारी सारी रात॥
बेवजह ही ये बरसात।
बरसती रही सारी रात॥
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