रेत सी फिसलती ज़िंदगी
काव्य साहित्य | कविता मनोज शाह 'मानस'1 Sep 2021 (अंक: 188, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
रेत सी फिसलती ज़िंदगी
तुम बिन तड़पती ज़िंदगी।
बेबसी में उलझती ज़िंदगी
रेत सी फिसलती ज़िंदगी।
कहाँ माँग ली थी क़ाएनात मैंने
जो इतना दर्द मिला
ज़िंदगी में पहली बार ख़ुदा
तुमसे ज़िंदगी ही तो माँगी थी।
दर्द कुंडली मारकर बैठा हुआ
बेवजह परेशान सी ज़िंदगी।
कभी आँसू तो कभी ख़ुशी देखी
हमने अक़्सर मजबूरी और बेकसी देखी
ज़िंदगी तेरी नाराज़गी को हम क्या समझे
हमने ख़ुद की तक़दीर की बेबसी देखी।
कहाँ से लाऊँ वो क़िस्मत की चाबी
अपनी नसीब पर हैरान सी ज़िंदगी।
कभी ख़ुशी से ख़ुशी की तरफ़ नहीं देखा
तुम्हारे बाद किसी की तरफ़ नहीं देखा
यह सोच कर के तेरा इंतज़ार लाजमी है
तमाम उम्र घड़ी की तरफ़ नहीं देखा।
कभी तो क़िस्मत करवट बदलेगी
यूँ ही बेबसी बेकसी सी ज़िंदगी।
ज़िंदगी के साथ जो भी किया
वफ़ाएँ याद करती हैं
हमारी धूप को ठंडी
हवाएँ याद करती हैं
कभी होठों पे हमने उफ!
लफ़्ज़ों को आने नहीं दिया
शबनम के क़तरा से प्यास बुझाई
तो वो घटाएँ याद करती हैं
बनती बनती रह गई
उलझती सी ज़िंदगी।
रेत सी फिसलती ज़िंदगी
तुम बिन तड़पती ज़िंदगी॥
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