अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

रेत सी फिसलती ज़िंदगी

रेत सी फिसलती ज़िंदगी 
तुम बिन तड़पती ज़िंदगी।
बेबसी में उलझती ज़िंदगी 
रेत सी फिसलती ज़िंदगी।
 
कहाँ माँग ली थी क़ाएनात मैंने 
जो इतना दर्द मिला 
ज़िंदगी में पहली बार ख़ुदा 
तुमसे ज़िंदगी ही तो माँगी थी।
दर्द कुंडली मारकर बैठा हुआ 
बेवजह परेशान सी ज़िंदगी।
 
कभी आँसू तो कभी ख़ुशी देखी 
हमने अक़्सर मजबूरी और बेकसी देखी 
ज़िंदगी तेरी नाराज़गी को हम क्या समझे 
हमने ख़ुद की तक़दीर की बेबसी देखी।
कहाँ से लाऊँ वो क़िस्मत की चाबी
अपनी नसीब पर हैरान सी ज़िंदगी।
 
कभी ख़ुशी से ख़ुशी की तरफ़ नहीं देखा 
तुम्हारे बाद किसी की तरफ़ नहीं देखा 
यह सोच कर के तेरा इंतज़ार लाजमी है 
तमाम उम्र घड़ी की तरफ़ नहीं देखा।
कभी तो क़िस्मत करवट बदलेगी 
यूँ ही बेबसी बेकसी सी ज़िंदगी।
 
ज़िंदगी के साथ जो भी किया 
वफ़ाएँ याद करती हैं 
हमारी धूप को ठंडी 
हवाएँ याद करती हैं 
कभी होठों पे हमने उफ! 
लफ़्ज़ों को आने नहीं दिया 
शबनम के क़तरा से प्यास बुझाई
तो वो घटाएँ याद करती हैं
 
बनती बनती रह गई
उलझती सी ज़िंदगी।
रेत सी फिसलती ज़िंदगी 
तुम बिन तड़पती ज़िंदगी॥
 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

नज़्म

गीत-नवगीत

कविता - हाइकु

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं