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फकीरा चल चला सा . . . 

(घर वास का उन्नचासवां दिन) 
 
घर वास का उन्नचासवां 49 वा दिन। 
'जन से जग तक' संदेश नवीन॥
 
आज क्यों फकीरा
चल चला सा लगा। 
ये धरती ये आसमां 
जलजला सा लगा॥
 
सूरज डूबने को व्याकुल 
बादल डुबाने को आतुर। 
ये हवा भी क़ातिलाना है 
वातावरण सन्नाटा नासूर॥
 
यह शाम यह शहर 
मटमैला सा लगा। 
ये धरती ये आसमां 
जलजला सा लगा॥
 
आज क्यों फकीरा 
चल चला सा लगा। 
ये धरती ये आसमां 
जलजला सा लगा॥
 
लहराकर लहरें बलखा कर 
जो उड़ रही थी मुँह पे आकर। 
बारिश होते ही लिपट गई पाँव में 
मिट्टी की फ़ितरत बदली बूँदें पाकर॥
 
ख़ामोश सागर बेहोश 
कश्ती, अधमरा सा लगा। 
ये धरती ये आसमां 
जलजला सा लगा॥
 
आज क्यों फकीरा 
चल चला सा लगा। 
ये धरती ये आसमां 
जलजला सा लगा॥
 
मज़दूरों की मज़दूरी 
बन गयी दो गज़ की दूरी। 
तन का ख़्वाह हुआ स्वाह 
तनख़्वाह बिन कितनी मजबूरी॥
 
हे नारायण! मैं कहाँ हूँ? 
जीकर भी मरा सा लगा। 
जीवन की आधारशिला 
मरा अधमरा सा लगा॥
 
आज क्यों फकीरा 
चल चला सा लगा। 
ये धरती ये आसमां 
जलजला सा लगा॥

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