दास . . .
काव्य साहित्य | कविता मनोज शाह 'मानस'1 Mar 2023 (अंक: 224, प्रथम, 2023 में प्रकाशित)
अनकही आस
खोता हुआ विश्वास
बनकर दूसरों का दास
बुझता हुआ . . .
मानव पुंज प्रकाश . . .!
और . . . फिर . . .
इंसान मुक्ति चाहता है
लड़ता है . . . झगड़ता है
मशवरा चाहता है . . .
फ़ैसला चाहता है . . .!
जगत को प्रभावित करता है
जगत को उद्वेलित करता है
शान्ति के बीज को
उगने नहीं देता . . .
क्रांति की ध्वनि
बिखरता चला जाता है . . .!
परन्तु . . .,
उन्हें ख़ुद मालूम नहीं
अपनी ही तृष्णा
अपना ही इच्छाएँ
बना रखती हैं उन्हें दास
बुझता हुआ . . .
मानव पुंज प्रकाश . . .!!
क़ैद है स्त्री की आज़ादी
घर के चारदीवारी में . . .
सामने वाले को कुचलकर
आदमी आगे बढ़ने की तैयारी में
डटे हैं देश के सिपाही
चौतरफ़ा सीमा पर
चंद दहशतगर्द खड़े हैं
राहों पर रोड़ा बनकर
बातें सभ्य और सभ्यता की
बस कहते हैं . . .
फ़र्ज़ औपचारिकता का
चाह कर भी मुक्त नहीं
हो पा रहा है इन ज़ंजीरों से
मानव . . . मन . . .!
मस्तिष्क . . . साँस . . .!
बुझता हुआ . . .
मानव पुंज प्रकाश . . .!!
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