अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

ख़ुदा हो तुम . . .

तुम्हें क्या बताएँ मेरी निगाहों में क्या हो तुम। 
ख़ुदा से डरते हैं वरना कह देते ख़ुदा हो तुम॥
 
सनम यूँ ही रिहा ना हो सकोगे ज़ेहन से मेरे, 
शिद्दत से दिल में बसे वो जाने वफ़ा हो तुम। 
 
दुआएँ दिल से निकली हैं वक़्त पे क़ुबूल होंगी, 
ख़ुदा से बेहतर माना फिर क्यों ख़फ़ा हो तुम। 
 
आँखें रुक सी गई हैं तुम्हारी तस्वीर देखकर, 
हमनशीं हमनवां ज़िन्दगी का राफ़्ता हो तुम। 
 
नींद, सपने, सुकून, उम्मीदें न जाने कहाँ खो गए, 
दर्दे मोहब्बत की ज़िन्दगी ए बेहतरीन दवा हो तुम। 
 
माँगने पर पूरी कायनात होगी हर मन्नत होगी, 
क़दमों में जन्नत हो आँखों में सारा जहाँ हो तुम। 
 
तुम्हारे बाद मैं जिसकी हो गई वह तन्हाई है, 
ख़्वाबों में ख़्यालों में पुकारती हूँ कहाँ हो तुम। 
 
तुम्हें क्या बताएँ मेरी निगाहों में क्या हो तुम। 
ख़ुदा से डरते हैं वरना कह देते ख़ुदा हो तुम॥

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

1984 का पंजाब
|

शाम ढले अक्सर ज़ुल्म के साये को छत से उतरते…

 हम उठे तो जग उठा
|

हम उठे तो जग उठा, सो गए तो रात है, लगता…

अंगारे गीले राख से
|

वो जो बिछे थे हर तरफ़  काँटे मिरी राहों…

अच्छा लगा
|

तेरा ज़िंदगी में आना, अच्छा लगा  हँसना,…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

नज़्म

गीत-नवगीत

कविता - हाइकु

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं