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धूप छाँव एक प्रेम कहानी . . . 

 

धूप उगती है 
साथ में . . .
छाँव भी आ जाती है
 
धूप दिन भर कोशिश करता है 
छाँव को देख पाऊँ 
छाँव से मिल पाऊँ
पूरब से पश्चिम की ओर . . . 
 
लेकिन . . . छाँव . . .! 
छुपती रहती है 
भागती रहती हैं 
पश्चिम से पूरब की ओर . . . 
 
किसी की ओट से 
किसी की आड़ से 
जैसे नई नवेली दुलहन 
घूँघट की आड़ से . . . 
 
आँख मारती हुई 
इठलाती हुई 
बलखाती हुई 
देखती रहती है . . . 
 
शायद . . .
छाँव साँझ की 
दुलहन बन शरमाती 
आती रहती है . . . 
 
और साँझ में . . .
धूप सो जाती है 
साँझ खो जाती है . . . 
 
युग युगांतर से . . .  
काल कालांतर से
चलती आ रही है 
धूप छाँव की 
एक अद्भुत 
प्रेम कहानी! . . . 

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