धूप छाँव एक प्रेम कहानी . . .
काव्य साहित्य | कविता मनोज शाह 'मानस'15 Mar 2024 (अंक: 249, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
धूप उगती है
साथ में . . .
छाँव भी आ जाती है
धूप दिन भर कोशिश करता है
छाँव को देख पाऊँ
छाँव से मिल पाऊँ
पूरब से पश्चिम की ओर . . .
लेकिन . . . छाँव . . .!
छुपती रहती है
भागती रहती हैं
पश्चिम से पूरब की ओर . . .
किसी की ओट से
किसी की आड़ से
जैसे नई नवेली दुलहन
घूँघट की आड़ से . . .
आँख मारती हुई
इठलाती हुई
बलखाती हुई
देखती रहती है . . .
शायद . . .
छाँव साँझ की
दुलहन बन शरमाती
आती रहती है . . .
और साँझ में . . .
धूप सो जाती है
साँझ खो जाती है . . .
युग युगांतर से . . .
काल कालांतर से
चलती आ रही है
धूप छाँव की
एक अद्भुत
प्रेम कहानी! . . .
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