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घर की बुनियाद 

 

अंतर्मन में उठे बवंडर घुमड़ते ही रहते हैं; इनका अंत ही नहीं हो पाता। 

कितनी भी कोशिश की जाये, बातें वही रह जाती हैं, वक़्त निकल जाता है, पर आधा अधूरा मन वहीं रहता है। वो दौर और वो लोग, मन करता है—वहीं रह जायें। बड़े कमाल के लोग थे और उनकी पारखी नज़र, विचारों से स्वतंत्र भी थे, समझाइश सवा लाख बराबर, सहनशक्ति तो अपरंपार थी। 

हाँ, हमारे बुज़ुर्ग ऐसे ही तो थे, जो धीरे-धीरे खोते जा रहे हैं। 

घर वीरान और खंडहर हो रहे हैं, दरख़्त सूख रहे हैं। अब उन मुरझाई और सूनी आँखों में सिर्फ़ लंबा इंतज़ार हैं। सिर्फ़ ख़ालीपन और शून्यता के बीच ही झूला झूल रहे हैं। बहुत कुछ सुनने का और सुनाने का जी चाहता है, पर अफ़सोस वक़्त के घोड़ों पर सवार, हम भागे ही जा रहें हैं। आकर्षण और विलासिता की ज़िंदगी ने अपनों से दूर कर दिया है। 

संस्कार भी अब शून्य बराबर ही रहें, तो उनके मन की बातें समझे कौन? 

घर में बुज़ुर्गों का होना किसी आशीर्वाद से कम नहीं। ये वो पेड़ होते हैं जो सदैव शीतल बयार ही देते हैं। 

हमारी दादी, नानी, काका-काकी सब घर में एक देवता सरीखे हैं। इन्हीं के होने से घर हमारे आबाद होते हैं, बच्चे भी संयमित और संस्कारों से लबरेज़ होते हैं। 

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