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कबीर दास की उल्टी बानी भीगे कंबल बरसे पानी

 

कबीर दास की उल्टी बानी/बरसे कंबल भीगे पानी—कबीर दास जी की उलटबासियाँ सुनने में थोड़ी अजीब या पूरी ही उल्टी लगती हैं; एक बार सुनकर या पढ़कर इसे समझ पाना आसान नहीं। कबीर दास जी पर नाथ संप्रदाय, ज्ञानाश्रयी शाखा का ख़ासा प्रभाव था। उनकी दृष्टि दूरदर्शिता की परिचायक थी जो कि उनके साहित्य में परिलक्षित होती थी। एक बार उनका दर्शन समझ आ जाए तो उसका निर्वहन ज़्यादा मुश्किल नहीं। उनके पूरे साहित्य में एक रहस्यवाद दृष्टिगोचर होता है, जो आसानी से समझ आने वाली बात नहीं। कबीर जी मस्तमौला, फक्कड़, बेबाक़ शासन पर प्रहार करने वाले व्यक्ति थे। ताउम्र ही उनकी कोशिश रही की ग़लत को समूल से ही नष्ट किया जाए, किसी भी समस्या की जननी के मूलभूत कारणों का पता लगा उसे नष्ट किया जाना चाहिए। उनका पूरा साहित्य व कबीर साहेब जी आज के समय में भी प्रासंगिक है। कबीर जी की शिक्षाएँ व उनका जीवन दर्शन आज समसामयिक है। उसका अनुकरण कर अपने जीवन को भी श्रेष्ठ ऊँचाइयों पर के जा सकते हैं। 

यहाँ उनकी उलटबासी बरसे कंबल भीगे पानी की बात की जाए तो यहाँ उन्होंने अपनी बात को प्रकट करने के लिए जो भी उपमान लिए, उनका तो कोई सानी ही नहीं है। यहाँ कंबल का अर्थ गर्म से लिया गया है। कंबल का प्रयोग कब किया जाता है जब ठंड अत्यधिक हो और गरमाहट की ज़रूरत हो तो कंबल ओढ़ा जाता है। लेकिन अचरज की बात कंबल बरस कैसे रहा है? यहाँ कंबल रूपी काम, क्रोध, वासना, अग्नि बरस रही है जो कि स्वयं में गरम है। पूरे वातावरण में ही काम, क्रोध की आँधी आयी हुई है। और पानी का अर्थ जीवात्मा से लिया गया है, यानी हमारी जो आत्मा है, जो मन है, वो इन विकारों रूपी कंबल से भीग रहा है। हमारी आत्मा इन वासनायुक्त, लोलुपतायुक्त विकारों से ग्रसित हो रही है, भीग रही है। हमारे ऊपर हर तरह के विकार आज हावी हो रहे हैं। मन पर संयम ही नहीं है कि कैसे अपने मन रूपी घोड़े पर लगाम लगाई जाए। काम, क्रोध, मोह, माया, अहंकार आज ख़ूब बरस रहे हैं और हमारा पानी रूपी मन या आत्मा उसमें ख़ूब भीग रहे हैं, ख़ूब मस्त हो रहे हैं। इनसे निकलने का कोई उपक्रम नहीं कर रहे हैं। कबीर जी कहते हैं कि जब तक अध्यात्म को नहीं अपनायेंगे, सिर्फ़ विषयाकर्षण में लिप्त रहेंगे तो मानव जीवन सफल ही नहीं हो पायेगा। सिर्फ़ सांसारिक तृष्णाओं में लिप्त रहेंगे, भगवान को भी एक उपक्रम या आदत या एक जीवनचर्या से जोड़ते हुए देखेंगे तो वो आराधना ही नहीं है। जब तक ईश्वर से, मन से संपर्क ही नहीं साधा हम अपने भीतर कभी गये ही नहीं, अंतरात्मा से साक्षात्कार हुआ ही नहीं, तो वो भक्ति किस काम की। इन्हीं शब्दों के साथ विदा लेते हुए 

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