चुपके से
काव्य साहित्य | कविता अर्चना मिश्रा1 Jun 2022 (अंक: 206, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
घर के रिश्ते कई बार बिखरते देखे
जाने कब अम्मा चुपके से पिरो देती है
उन्हें एक तार में
झीनी झीनी सी होती है मोरी चदरिया
जाने कब चुपके से भर जाती हो
उसमें रंग केसरिया
अबके बरसे थे जो बादर
तार तार कर गए नगरियाँ
चुपके से अब्बा हैं आए
फिर से हरियाली कर गए नगरियाँ
मैं मौन हूँ
या स्तब्ध हूँ
पता नहीं मैं कौन हूँ
जब भी आते हैं ऐसे विचार
चुपके से तुम ढूँढ़ लेती हो
इसका निदान
मेरे पास बहुत सन्नाटा है
रहता हूँ मैं वीराने में
जब भी मन अकुलाता है
तुम चुपके से आकर
संगीत भर देती हो मेरे घराने में।
जहाँ सिर्फ़ पत्तों की सरसराहट हो
जुगनू की गुनगुनाहट हो
अँधियारा छाया हो बेशुमार
चुपके से आकर जाने कब
मेरे तिमिर को दूर कर
प्रकाश भर देती हो मेरे वीराने में।
मेरी शून्यताओं और रिक्तताओं
का जवाब हो
मैं लघु मानव सा हूँ
और तुम पलाश हो
और तुम पलाश हो!
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