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साहित्य के प्रति ईमानदारी

आज का वर्तमान युग बहुत ही उपलब्धियों का युग हैं, जहाँ कई चीज़ें आसानी से मुहैया हो जाती हैं। ऐसे में हमें अपने मन पर क़ाबू रखते हुए अंध-दौड़ या अंध-भक्ति में नहीं दोड़ना है, अपितु विवेक का इस्तेमाल कर सही–ग़लत का चुनाव करना है। 

इसी भाँति साहित्य भी है जो किसी भी समाज की नींव होता है, साहित्य की दृष्टि से कहें तो साहित्य समाज का अंग है ओर कोई भी मनुष्य इससे अछूता नहीं रहता है। ऐसे में साहित्य के प्रति सभी साहित्यकारों की बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी है कि वो ऐसा साहित्य का निर्माण करें जो सभी वर्गों के लोगों के काम आ सके। साहित्य के प्रति हमें उतना ही ईमानदार भी होना होगा। जो भी हम सृजन करें वो मौलिक हो, आजकल साहित्यिक चोरियाँ भी हो रहीं हैं। जो भी हम लिखते हैं वो कहीं ना कहीं हमें छुआ होता है, इसलिए वो सटीकता की कसौटी पर खरा उतरता है। 

साहित्य के नाम पर सिर्फ़ लयात्मकता ही ना परोसी जाए अपितु उसमें अलंकार, छंद, बिम्ब, प्रतीक, रस, सभी पहलुओं को मद्देनज़र रखते हुए कोई भी रचना लिखी जाये। इस प्रकार का साहित्य लिखा जाये जो समाज को उत्थान की तरफ़ ले जाए। 

साहित्य एक ऐसा हथियार है जिससे हम समाज को मज़बूत दिशा में अग्रसर कर सकते हैं। साहित्य से समाज में नवनिर्माण किया जा सकता है। साहित्य अतीत वर्तमान ओर भविष्य का प्रतिबिम्ब होता है। 

साहित्यकार अपनी कल्पना के द्वारा ऐसे मानदंड समाज के सामने रखता है जो उसकी भलाई कर सकें। प्राचीन काल से ही देश में साहित्य द्वारा हमेशा सकारात्मक पक्ष रखने का ही प्रयत्न किया गया है। कवि तुलसीदास जी ने रामाचरित मानस द्वारा ऐसे मानदण्ड स्थापित किए हैं कि वह आज तक समाज का मार्गदर्शन कर रहे हैं। मैथिलीशरण गुप्त जी अपने गर्वशाली अतीत और युग-पुरुषों का स्मरण करके यह कहने को विवश हो जाते हैं:

“हम क्या थे, क्या हो गए हैं और क्या होंगें अभी
आओ विचार करें, आज मिलकर यह समस्याएँ सभी”

यानी साहित्य समाज का आईना है। साहित्य द्वारा ही किसी भी समाज के परिवेश पता लगाया जा सकता है। 

“मुर्दा है वह देश जहाँ साहित्य नहीं है।” 

डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी जी का मानना था कि साहित्यकार को मनुष्यता का उन्नायक होना चाहिए। जब तक वह मानव मात्र के लिए नहीं लिखता तब तक वह अपने दायित्व से पलायन करता रहता है। राष्ट्र की सोई हुई विवेक शक्ति को जागृत करना साहित्यकार का बुनियादी लक्ष्य होता है। अपनी युगीन स्थितियों को साथ लेकर चलने वाले साहित्यकार सदैव प्रासंगिक बने रहते हैं। इतिहास साक्षी है कि जब भी कोई राष्ट्र अपने पथ से भटका है साहित्य ने ही उसे राह दिखाई है। जब कभी भी वह झुका साहित्यकारों ने ही उसका पुनरुत्थान किया है। जब हमारा देश पराधीन था, तब प्रेमचंद, दिनकर, निराला, भारतेंदु हरिश्चंद्र जैसे साहित्यकारों ने जनता के हाथ में जोश और ऊर्जा से भरी स्वतंत्रता की धधकती मशाल थमाई। इनकी रचनाएँ जितनी प्रासंगिक तब थीं उतनी ही आज भी है। 

अतः आज ज़रूरत हैं ऐसे साहित्य की रचना की जाएँ जो हमारा पथ सुगम बनाएँ। अंधकार से निकाल कर एक नई रोशनी की तरफ़ लें जा सके। 

धन्यवाद 
जय हिंद जय भारती
अर्चना मिश्रा 

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