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मन के भाव 

 

तुममें ढूँढ़ना चाहा एक मनोभाव पर 
तुम निकले कठोर पुरुष 
मुझे प्रेम तुमसे हुआ 
तुम्हारी कठोरता जबरन थोप दी गई। 
डर जाता है हृदय मेरा जब कोई 
कठोर आवाज़ सुनूँ। 
 
बचपन से ही दिल सहमा था, 
वही कठोरता तुममें पाई, 
तेज़ बुलंद आवाज़, 
वो डरावने मनोभाव क्या पर्याप्त नहीं थे, 
जो तुमने भी वही बीड़ा उठाया। 
 
वो प्रेमी वो नाराज़ ना होने वाला 
व्यक्तित्व कहाँ चला जाता है, 
जब भँवें तुम्हारी तनती हैं। 
 
मैं शांत निर्झर नदी सी बहना चाहती हूँ, 
तुम्हारे क्षणिक उद्वेग 
मेरे झंझावातों को और बढ़ा देते हैं। 
 
मैं वो होना ही नहीं चाहती थी जो हूँ, 
जो हूँ वो कभी चाहा ही नहीं, 
तुम्हारे पुरुषत्व को अपने पर— 
हावी ना होने देने की जद्दोजेहद में ही 
क्या से क्या बन गई? 
 
सृष्टि का चक्र गतियमान रहेगा 
जो होना है वो होकर रहेगा 
किन्तु परन्तु अटकलें जिरह सब बेकार 
जब अस्तित्व पर बार बार होता प्रहार 
दिल मेरा करे चीत्कार, 
जयघोष का बिगुल बजा, 
हृदय मेरा सिहर उठा 
जो होना ना हो वो भी हो चुका 
मन क्यों कितना विचलित बड़ा, 
अबूझ से रहस्य और 
उन्हें सुलझाने की तमाम कोशिशें॥

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