माँ
काव्य साहित्य | कविता अर्चना मिश्रा15 May 2023 (अंक: 229, द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)
माँ ही नारायणी माँ ही लक्ष्मी माँ ही करमवीर है।
माँ के आगे चलती ना किसी की एक है।
मुसीबत, विपदा कोई आ जाए
माँ बन के चण्डी रण में कूद जाए।
माँ से ही बच्चों का संसार है
माँ के बिना सब सूना बेकार है।
माँ कहीं तो द्रवित सी मूरत है
और कहीं कहीं मज़बूत शक्ति वर्धक है।
माँ की निगहेबानी में हर बच्चे को सुकून है।
माँ की आँखों में दूर तक ख़ामोशी है
जो भेद जाती हैं कई ज़ख़्मों को
जाने क्या क्या नहीं देखा है इन आँखों ने,
एक शिशु को गर्भकाल से अपने अंदर समेटे हुए
उसका अनंत विस्तार चाहती हैं माँ।
सब कुछ त्याग कर, दर्द को अंगीकार करना,
ये माँ की ही विशेषता अनुरूप है
वो वेदना और गरल का घूँट
सिर्फ़ माँ के ही हिस्से क्यूँ आया है।
क्यूँ नहीं चीत्कार कर लेती वो भी एक दिन
क्यूँ नहीं शंखनाद बजा कर
मुक्ति पा लेती वो भी एक दिन।
कितना कुछ समेटे हुए भी वो
बस एक कोना ही चाहती है
जहाँ उसके प्रति सच्चे भाव और प्रेम हो
वो भी एक ऐसा ही घरौंदा चाहती है।
जहाँ सिर्फ़ अपेक्षाएँ ही ना हों
वरन् उसके लिए भी बच्चे कुछ करें
वो भी ऐसा ही एक दिन चाहती है
जहाँ ममतामयी आँखों में डर ना हो
जहाँ सिर्फ़ रात का सन्नाटा ना हो
दिन की वो उजली किरण हो जिसकी
शुभ्रता में नहाकर वो उन्मुक्त हो सके।
जीवन का कोई भी पड़ाव हो
माँ से किसी का भी ना दुराव हो
माँ की व्यथा जो समझ सकें
जीवन उन्हीं का सार्थक हो सके।
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