छटपटाती स्त्री
काव्य साहित्य | कविता अर्चना मिश्रा15 Jan 2024 (अंक: 245, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
स्त्री बन सोचा क्या क्या ना करूँगी
उन सभी दक़ियानूसी सोच को दरकिनार करूँगी।
बंद अन्धेरे कमरों में आहें मैं ना भरूँगी।
लूटी हुई अस्मत का बोझ यूँ अकेले ना सहूँगी।
रोज़ अपने स्वाभिमान को तिलांजलि दें,
तुम्हें ख़ुश मैं ना करूँगी।
हर जगह त्याग की मूर्ति मैं ना बनूँगी।
अश्लील बातें और बेवजह के
तानों को कानों में ना पड़ने दूँगी।
कहीं झुरमुट के किनारे फटे गले चीथड़ों में मैं ना मिलूँगी।
वीभत्स नंगा नाच जो हो रहा समाज में,
मैं इसका हिस्सा ना बनूँगी।
बचपन से यही सोचती आई पर हक़ीक़त कुछ और ही नज़र आयी।
यूँ ही ज़बरदस्ती धकेला गया मुझे भी इस मूक बधिर समाज में।
जैसे मेरे अंदर प्राण ना होकर कोई सामान हो।
कुत्सित विचारों और कुत्सित सोच का ही परिणाम हूँ।
हाँ इसीलिए मैं परेशान हूँ
मेरे अंदर भी जलता हुआ एक श्मशान है,
रोज़ ही एक एक करके बहुत कुछ मार रहा मेरे भीतर।
हर तरफ़ से हैवानियत सवार है,
जिस्मों को तो नोंचना आदत है,
आदमखोर वहशी ये बदज़ात है।
घर से निकलते ही डर लगता है
घर के अंदर दम घुटता है,
मैं भी कहीं ना आ जाऊँ
इस पुरुषवादी समाज की चपेट में।
तिल तिल के मेरा सुख जलता है,
खुल के साँस ले ना पाऊँ,
घर में रह जाऊँ या बाहर जाऊँ
शोषण से कहीं बच ना पाऊँ
कोई प्यार का नाम देता
कोई खिलवाड़ करता,
सिसकती आहें दफ़न होती है,
उसी काले सायों के घेरे में
जिससे दूर रहने की क़समें खाईं थी।
स्त्रियों की भी प्रजातियाँ बन गई
देखते देखते माँ बहन से ना जाने क्या क्या बन गई।
उठो स्त्रियों सशक्त बनो एक दूजे का सहारा बनो।
इस समाज को सुधारना होगा
हमें भी अब माँ काली,
माँ दुर्गा सा साहस धारण करना होगा।
नव वर्ष ये प्रण लें,
ना ज़ुल्म करें ना होने दें।
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