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लक्ष्मण की वेदना

हे उर्मी, अपराधी हूँ मैं तेरा 
पहले थोड़ी सी मेरी भी सुन लेना 
फिर चाहे जो सज़ा तुम मुझको देना। 
जो भैया संग न जाता, 
शायद ही ख़ुद को क्षमा कर पाता। 
मैं किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता, 
भैया को सदा असह्य ही पाता।
  
तुम हो मान मेरे जीवन का, 
तुम से शान ही मेरी है। 
तुम्हारे साथ साथ वियोग की 
पीड़ा मैंने भी झेली है। 
हे, प्रिय जो राह चुनी मैंने 
वह राह बहुत कँटीली थी, 
भैया का ध्यान न कैसे रखता 
छोड़ उन्हें वन में, तुम संग कैसे रहता 
 
हूँ अपराधी बड़ा तुम्हारा 
तुमसे मैं कुछ बोल न पाया 
जाते समय तुमसे मिल न पाया
तुम्हारी कुछ भी सुन न पाया॥
सोचा तुम तो हो साया, 
संग हमेशा तुमको ही पाया। 
इसलिए कुछ कह न पाया, 
मेरी वेदना तुम ही तो समझोगी। 
राह कर्तव्य की मैं छोड़ न पाया 
हे ऊर्मि अपराधी हूँ मैं तेरा 
जो सज़ा दोगी क़ुबूल है मुझको॥

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