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महामानव

 

शान्तमय वातावरण भी कितना भयावह लगने लगता है, जब किसी के पास बोलने को कुछ भी ना बचे, सोचने समझने की शक्ति जैसे जड़ हो जाये, क्या ऐसा भी जीवन में कुछ घटित हो सकता है? निःशब्दता वास्तव में इतना भयावह माहौल क्यूँ बना देती है कि बस उठो और जाओ कहीं बाहर। 

पूरे दिन के कोलाहल के बाद कुछ घंटों का मौन खलने लगता है, ना ख़ुशी, ख़ुशी ही रहती है, ना ग़म ग़मगीन ही करता है। सिर्फ़ टकटकी लगा के एक शून्य हुए को शून्य होकर निर्बाधता से देखे जाना कहाँ तक सही है? दूसरे के अंतर्मन की पीड़ा का अनुमान चंद लम्हे उसके साथ बैठकर नहीं लगाया जा सकता, जब तक आप स्वयं उसी पीड़ा से ना गुज़रे हों। 

पीड़ा के भी रूप अनेकानेक हैं, मैं ये कह ही नहीं सकती कि किसको कितना अधिक सहना पड़ा होगा। ना ही कोई बराबरी है किसी के दर्द की; बस एक आर्त्तनाद है जो निरंतर प्रवाहमान है। सबके भीतर बहुत अंदर तक दर्द पैठा है; कोई सुनना ही नहीं चाहता क़िस्सा किसी का। रिक्तता और शून्यता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। क्या एक ही साथ हम दोनों का अनुभव कर सकते हैं? बहुतों ने किया है। इन्हीं दोनों का अनुभव करके ही एक नये मानव का सृजन होता है, जिसे महामानव की संज्ञा दी जा सकती है। 

जो पैदा नहीं होता परिस्थितियाँ उसे बनाती हैं, अपने ही संघर्षों की कहानी को फिर वो दमदार रूप में प्रस्तुत करता है। महामानव के पास देने के लिए बहुत कुछ होता है। वो अपनी लघुता को बहुत पीछे उन कालिमा भरी रातों में छोड़ आया होता है जिनमें उसने कभी घंटों चीत्कार किया होता है। आज वो सबल है, एक स्थितप्रज्ञ स्थिति में हैं, जहाँ ना खोने का डर ना पाने का लालच है। 

ऐसा नहीं लगता क्या की हममें से ही कितनों ने ऐसी स्थिति का सामना किया होगा, शायद झेल ही रहें हों या उबर चुके हों। अपने मन का महामानव तो हमें स्वयं ही बनना होगा अन्यथा ये समाज बड़ी तेज़ी से भाग रहा है। हम कहाँ गिर पड़े और कैसे रौंदे जाएँगे ये तो बख़ूबी ही हम जानते हैं। 

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टिप्पणियाँ

पाण्डेय सरिता 2023/02/22 10:24 AM

सुन्दर अभिव्यक्ति के माध्यम से महामानव की व्याख्या की है आपने

कृपया टिप्पणी दें

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