स्वर्ण मृग आज भी सत्य प्रतीत होता है
आलेख | चिन्तन अर्चना मिश्रा1 Oct 2022 (अंक: 214, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
स्वर्ण मृग वस्तुतः एक छलावा ही तो है, जो कि आज भी प्रासंगिक है, वास्तविकता की आज कोई दरकार ही नहीं है, सब कुछ बाहरी आकर्षण ही है और आकर्षण भी ऐसा कि इससे अछूता कोई रह ही नहीं सकता। सुबह से शाम तक कोई ना कोई किसी ना किसी को छल ही रहा है बातों में मिसरी घोल सुंदर सा लबादा ओढ़कर सिर्फ़ ठगा ही जा रहा है।
यूँ ही ज़िंदगी कई बार बेवजह के इम्तिहान लेती है। टूटी हुई शाख़, दरख़्त भी कई बार मिलकर एक मुकम्मल जहाँ बना लेते हैं। ज़िंदगी की राहों में ऐसे मुक़ाम आना भी लाज़मी है वरना अपनी रूह से मुलाक़ात ही कहाँ हो पाती है। कई बार आदतन या कई बार मजबूरी से हमें अपना माँझी दिख नहीं पाता ओर नतीजन हम रास्ता भटक ही जाते हैं। यह भटकाव ज़रूरी नहीं कि हमें गर्त की ओर ही ले जाए कई बार इसके नतीजे क्रांतिकारी भी होते हैं।
जैसे कि महात्मा बुद्ध को ही ले लीजिए वो घर से अचानक ही एक दिन निकल गए, जाना कहाँ था कुछ ख़बर नहीं थी, सिर्फ़ घोर अंधकार और भटकाव की स्थिति थी, लेकिन एक दिन उनके भटकाव को सही दिशा मिली जिसके फलस्वरूप हमें बोधदर्शन की प्राप्ति हुई। उनके भटकाव ने एक समग्रता को समाहित किया जो कि सबके बस की बात नहीं थी।
राह से भटकाव कई बार एक नया दर्शन या जीवन दर्शन लेकर आता है जिसके दिव्य प्रकाश से संसार जगमगा उठता है।
आज का वर्तमान युग ऐसा है जहाँ की युवा पीढ़ी अपने मूल्य से भटक रही है, मृग तृष्णा की ओर लालायित है। सभी के जीवन का ध्येय निश्चित है फिर भी उसके बावजूद हम अपने कर्तव्यों के प्रति जवाबदेह नहीं हैं, सदैव मुँह नहीं मोड़ सकते। हमारे भीतर सदैव दो शक्तियाँ रहती हैं एक अच्छी एक बुरी। जब बुरी हावी होने लगती है तो पथिक रास्ता भटक ही जाते हैं। अब चयन हमारा होता है कि हम तवज्जोह किसे देते हैं।
हमें आवश्यकता है अपने साधनों को मज़बूत बनाने की और उन्हें पूर्ण रूप से क्षमतावान बनाने के लिए उनकी ओर अधिक ध्यान देने की। यदि हमारे साधन बिल्कुल ठीक हैं, तो साध्य की प्राप्ति तो होगी ही। हम यह भूल जाते हैं कि कारण ही कार्य का जन्मदाता है। कार्य आप-ही-आप पैदा नहीं हो सकते है। जब तक कार्य बिल्कुल ठीक, योग्य और सक्षम न हो, कार्य की उत्पत्ति नहीं होगी। एक बार हमने यदि ध्येय निश्चित कर लिया और उसके साधन पक्के कर लिए, तो फिर हम ध्येय को लगभग छोड़ सकते हैं। हमें अपना ध्यान सिर्फ़ काम पर लगाना चाहिए।
हम सुख भोगने के लिए इस संसार में आए हैं, लेकिन मृग तृष्णा में उलझ के रह जाते हैं। सुख के सही स्वरूप को समझना चाहिए केवल इंद्रिय सुख की लालसा हमें अंधा कर देती है। देवताओं को सभी नतमस्तक होते हैं क्यूँकि उनके पास अपार वैभव, शुद्धता, और एक जीवन दर्शन है। हमें भी देवताओं के दिखाए मार्ग पर चलना चाहिए तभी एक श्रेष्ठ मनुष्य कहलाने के लायक़ हैं। पथ भ्रष्ट होकर जीवन बर्बाद नहीं करना है हमें इस जीवन को वरदान की तरह जीना चाहिए।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
25 वर्ष के अंतराल में एक और परिवर्तन
चिन्तन | मधु शर्मादोस्तो, जो बात मैं यहाँ कहने का प्रयास करने…
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
साहित्यिक आलेख
चिन्तन
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं