रात का चाँद
काव्य साहित्य | कविता अर्चना मिश्रा1 Jun 2022 (अंक: 206, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
सुनो
ये जो चाँद है ना
रोज़ मुझसे मिलता है
अँधेरी रातों में,
जब दिन ढलता है ना
तब धीरे धीरे ये अपने पट खोलता है
जैसे जैसे रात गहराती है
ये एकदम क्षीर सागर सा होता जाता है
सुनो, मैं इससे अपनी सारी बातें कहती हूँ,
इसकी शुभ्रता में नए प्रतिमान रच लेती हूँ
सारे अवसादों ग़मों को भूलकर
इसकी चाँदनी में नहा लेती हूँ
जानते, हो एक बात
जैसे में घंटों मुँडेर पर बैठकर
इसका इंतज़ार करती हूँ ना
वैसे ही ये मेरा रास्ता तकता है।
हम दोनों यूँही घंटों बातें करते हैं
तुमको याद करके आँसू बहाने से
अच्छा है ना कि मैं चाँद से मुलाक़ातें करूँ
जानते हो मेरी हर बातों में ज़िक्र
तुम्हारा होता है
कई बार तो इसे गुमाँ हो जाता है
कितनी बार तो ये बादल के पीछे छुप जाता है
जितनी दफ़ा मुँडेर से बुलाया है इसे
उतना ही इसने सताया है मुझे
सुनो ना, तुम जल्दी आ जाओ
कहके जाते हो और आने में कितनी देर लगाते हो
अब ये रात ना बिलकुल अच्छी नहीं लगती
ये जो मुआ चाँद है ना, जाने कहाँ गुम हो गया है,
कई दिनों से इसे देखा भी नहीं,
सुनो जल्दी आ जाओ ना, जल्दी आ जाओ॥
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
साहित्यिक आलेख
चिन्तन
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं