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माँ ने कुछ कहा

 

माँ ने कुछ कहा
काग़ज़ के पन्नों पर
अपनी भावनाओं को समेटते हुए
हर बार काग़ज़
छोटा पड़ता गया है और 
माँ की सब बातें 
दिन पर दिन बड़ी बनती गईं। 
 
माँ की आवाज़ में प्यार था
और एक अजीब 
कशिश थी
थकान उसके चेहरे पर
नज़र नहीं आई थी
लेकिन
उसकी आँखों में
एक अलौकिक प्रेम
पुत्र-प्रेम के रूप में 
उमड़ रहा था
माँ—
अक्सर मौन रहती थी
क्योंकि घर में 
उसे बोलने की आज़ादी नहीं थी
देश आज़ाद हो चुका था
सब के साथ
वह भी आज़ाद हवा में 
साँस ले रही थी
लेकिन उसके मन में
एक घुटन थी
एक रक्त रंजित 
पीड़ा थी 
जो परंपरा से
उसे अपने विचारों में बाँधे
रखे थी। 
 
माँ ने—
बहुत अपमान 
और यातनाएँ सही थीं
परंपराओं ने 
उसे बहुत ज़्यादा ही 
बाँध रखा था। 
माँ का जीवन—
हर रोज़ 
एक नए समर्पण के साथ 
चल रहा था—
जहाँ उसके साथ 
घर के सभी सदस्य 
अपने-अपने कर्त्तव्य के साथ 
बँधे हुए थे 
लेकिन—
मेरी माँ
एक गहरे तनाव 
और अवसाद में
जूझती रहती थी। 
 
समस्याओं से जूझना 
और 
विचारों की उन्मुक्तता से
जूझना 
कितना कष्टकारी
होता है 
यह-
मैंने
अपनी माँ से
देखा और 
सुना था! 

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