बहुत बार ढूँढ़ा तुझे
काव्य साहित्य | कविता पं. विनय कुमार15 Dec 2025 (अंक: 290, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
बहुत बार ढूँढ़ा तुझे
निरभ्र नीलाकाश में
सागर की गहराइयों में
झरनों की बहती जलधारा में
और लंबे स्थिर खड़े
फ़ौलादी बट वृक्ष की बाँहों में
मैंने ढूँढ़ा—तुझे
नदियों के किनारे खेलते हुए बच्चों की मुस्कान में
मैंने ढूँढ़ा—तुम्हें
जीवन के साथ चलने वाली विभिन्न समस्याओं में
मैंने तुम्हें ढूँढ़ा—जीवन में आई
आशा और निराशा में
जीवन और मृत्यु में
सफलता और असफलता में
बार-बार मैंने ढूँढ़ने की कोशिश की—
सुबह की ख़ुशबूदार चाय के प्याले में
जहाँ मीठी-मीठी सुगंध
मेरे मन प्राणों को खींच रही थी अपनी ओर
मैंने तुम्हें देखना चाहा—
काले-कजरारे बादलों के समूह में।
साथ ही साथ
मैं तुम्हें खोजना चाहा—
वहाँ भी, जहाँ मेह बरस नहीं रहे थे
और केवल अपनी गर्जन से
बरस जाने का संकेत रहे थे . . .
मैंने वहाँ भी खोजने की कोशिश की!
मैंने फूलों की ख़ुश्बुओं के साथ
उनकी कोमल पंखुरियों में भी
तुम्हें देखने की असफल कोशिश की
और सूरज की तीव्र रोशनी की गर्मी में भी
तुझे पाने की एक असफल जिदभरी कोशिश की
और चाँदनी रात की धवल रोशनी में भी
तुम्हें पाने की कोशिश की
लेकिन तुम्हारा वहाँ होना सम्भव नहीं था
तुम घर में ही थी शांत और मौन-मूक
अकेलेपन से जूझती हुई—
जैसे-देवी मंदिर में विराजती देवी की शांत प्रतिमा बनी
गृहिणी (देवी रूप में) अपने संपूर्ण सौंदर्य के साथ ही थी
लेकिन मैं उन्हें बाहर खोज रहा था
जैसे-भीतर में ईश्वर होने के बावजूद
उन्हें मंदिरों और मस्जिदों में
खोजने की असफल कोशिश की जाती है
मैंने तुम्हें देखा—
लेकिन हर बार नए रूप में
कभी सफ़ेद
कभी श्यामल
कभी सुगंधित
और सुवासित!
इस रोज़-रोज़ मैंने तुम्हें देखा
और कभी मैंने तुम्हें
पाने की
हर बार असफल कोशिश की!
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