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मैं लिखूँगा रोज़-रोज़ 

 

मैं लिखूँगा रोज़-रोज़
अपने मन की बात, 
कुछ नई, कुछ पुरानी बात, 
हाँ, हाँ—
कुछ सोची समझी बात, 
कुछ दास्ताने-ए-वारदात, 
कुछ अपने मन की
कुछ तुम्हारे मन की बात
हर बार मेरा मन ढूँढ़ेगा तुम्हें
और तुम्हारे पास जाकर 
लौटेगा मेरा मन बार-बार 
और वह द्विगुणित भाव से न
संचारित होगा: आस-पास का परिदृश्य 
जब जब चलेंगी हवाएँ
जब जब आएँगी बरसात
जब जब घिरेंगी-काली-घटाएँ 
जब-जब बिजली गुल होगी
मेरे दिल और दिमाग़ की, 
तब-तब खोजूँगा मैं तुम्हें 
और तुम्हारे साथ बिताए गए 
हर एक पल में जब
होगी एक आशा की कनक किरण
हर बार मैं महसूस करूँगा तुम्हें
और तुम्हारे बग़ैर रहने 
और कुछ-कुछ करते-रहने 
की प्रत्येक सीख, 
जैसे मैं लिखना चाहूँ‌गा
रोज़-रोज़ एक ख़त, 
और वह फैलता जाएगा 
अख़बारों में 
एक समाचार की तरह, 
और हर बात तुम्हारे नहीं होने की बात
बेमानी होती जाएगी
यह जानते हुए भी
कि अब तुम सदैव हवाओं में
विचरण करते रहोगे, 
तुम रहोगे बादल बनकर
बरसात में मेरे ऊपर आकाश में, 
तुम रहोगे 
ख़ुश्बू बिखेरते हुए फूलों में, 
जब-जब तुम्हारे लिए
तोड़ना चाहूँगा पुष्प-गुच्छ, 
जब-जब मैं अपनी कक्षा में
पढ़ाता रहूँगा बच्चों को, 
तब-तब तुम 
झाँकने मिलोगे 
बेंच-डेस्क के बीच, 
जब-जब मैं नहाऊँगा
नदी के सूने तट पर, 
तब-तक हर बार 
हवा के साथ
एक हिलोर तुम्हारे होने की
दस्तक देती रहेगी, 
जब-जब मैं घूमता रहूँगा
सड़कों पर बेफ़िक्र, 
तब-तब तुम 
एक शोर के साथ 
अपने पास बुलाना चाहोगे मुझे
मुझे पता नहीं है-कहाँ हो तुम? 
लेकिन-तुम्हारे लिए
तुम्हारे होने की ख़ुशी में 
मैं गाऊँगा-गीत-मल्हार 
सावन की रिमझिम बूँदों के साथ, 
हर बार खेत-खलिहान में
मेंढक और झिंगुर तुम्हें पुकारेंगे, 
पूछेंगे तुम्हारा कुशल-क्षेम; 
तब मैं हर बार लिखूँगा-
एक पत्र, 
रोज़-रोज़ बिन क़लम 
और बिन स्याही के
भावनाओं और 
कल्पनाओं में
इस स्याह भरे 
उदास मौसम में 
जब तुम
कहीं नहीं मिलोगे
संभवतः! 

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