धरती जल रही है
काव्य साहित्य | कविता अंजना वर्मा1 Jan 2021
मेरी बंद पलकों के भीतर
रोज़ छटपटाती है वह
असह्य दुःख से निकली उसकी चिंघाड़
गोदती है मेरी आत्मा को
वह बही जा रही है आर्तनाद करती हुई
पीड़ा की लाल नदी में
और मैं किनारे पर बेबस खड़ी
सजल नैनों से
उसे मृत्यु के मुँह में समाते हुए
देखती रह जाती हूँ
वह स्वयं नहीं मरी
उस मासूम को मारा गया
अनन्नास का प्रलोभन देकर
बम से उड़ा दिया गया
पृथ्वी पर यातना और हिंसा के दौर
बढ़ते जा रहे हैं क्यों?
उसके गर्भ में पलता हुआ शिशु
विस्फोट में धधक गया
नृशंसता की लाल-नारंगी लपटों में
जल गया
इंसानों के बीच छुपे हुए हैवानों ने
माँ के गर्भ को ही
अजन्मे शिशु की क़ब्र बना दी
जिसे हम कहते हैं मनुष्य
और जिसे बना देते हैं इस धरती का
श्रेष्ठतम प्राणी
उसके कारनामें लहूलुहान कर रहे हैं हमें
सारी कायनात त्रस्त है उससे
जानवर भी काँप रहे हैं
मनुष्य और पशु
दोनों के शब्दार्थों का
आपस में विपर्यय हो गया है
मनुष्य के आलोक-जगत में
पर्दे के पीछे घोर अँधेरा है
उसमें खुला हुआ है
कमज़ोरों और बेबसों के लिए क़साईबाड़ा
शक्ति और सत्ता हाथ से हाथ मिलाये
नाच रही हैं मदहोश होकर
इस उत्सव के बाद
उन सबकी हत्या कर दी जायेगी
जो कमज़ोर हैं
या जो उनके बताये रास्ते पर नहीं चलते
या जो उन्हें पसन्द नहीं
या जो ग़ैरज़रूरी हैं
या जिनके सिर उठे हुए हैं
या जो सवाल करते हैं
या जिनसे जीने का हक़ छीनकर
उन्हें लाभ होगा
नर या नरेतर, कोई भी हो
कभी ऑनर किलिंग
कभी दहेज़-हत्या
कभी यौन हिंसा
कभी भ्रूणहत्या
कभी रंग-भेद हत्या
कभी पशु-पंछी के प्रति क्रूरता
तितलियों तक के पंख काट लिये जायेंगे
छोड़ दी जायेंगी वे
तड़पकर मरने के लिए
इनमें से कोई बख़्शा नहीं जायेगा
रोज़ सताने के नये-नये क्रूर तरी्क़े
ईजाद हो रहे हैं
दो टाँग वालों से
आतंकित है पूरी दुनिया
उनका खौलता हुआ लावा
न जाने किस पर गिरे?
लगता है कि अब एक बार फिर
धरती अपनी मुक्ति के लिए गुहार लगायेगी
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
"पहर को “पिघलना” नहीं सिखाया तुमने
कविता | पूनम चन्द्रा ’मनु’सदियों से एक करवट ही बैठा है ... बस बर्फ…
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
साहित्यिक आलेख
गीत-नवगीत
लघुकथा
कहानी
बाल साहित्य कविता
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं
{{user_name}} {{date_added}}
{{comment}}