जूते का अधिकार
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य कविता राजनन्दन सिंह1 Dec 2020
मैं जाति से निम्न
अदना सा जूता हूँ तो क्या
पोशाक तो मैं भी हूँ
आदमी की शान बढ़ाता हूँ
मुझे चाटकर लोग
आदमी से अपना
काम बनवाते हैं
जो गोली बारूद से नहीं डरता
लोग उन्हें
मेरे नाम से डराते हैं
आदमियों में जब अच्छा-बुरा,
साधु-असाधु
सभी आदमी कहलाता हैं
छोटे ओहदे से
बड़े सत्ता शीर्ष तक
आरक्षण पाता है
फिर पोशाकों में सदियों से यह भेद
मेरे ही साथ क्यूँ?
मनुष्यों के पाँवों में पड़े रहना
मेरे साथ भी अन्याय है
अत्याचार है
मानव सर के उपर
हमें भी आरक्षण दो
जिस पर टोपी और पगड़ी का
सदियों से एकाधिकार है
राजा भरत ने
हमारे बड़े भाई
श्रीराम खड़ाऊँ को
अपने सर पर रखा था
चौदह वर्षों तक राजसिंहासन पर
विराजमान भी किया था
राजा भरत की जय
भगवान श्री रामचंद्र की जय
इतिहास साक्षी है इस बात का
न तो हमें कभी कोई अभिमान था
न अहंकार है
और रहे भी तो क्यूँ
यह तो हमारा सदियों पुराना
खोया हुआ अधिकार है
आखिर पोशाक तो मैं भी हूँ
आदमी के पाँव को
पथ के धूल-कीचड़
काँटे-कंकड़ ईंट पत्थर के
ठोकरों से बचाता हूँ।
मैं जाति से निम्न
अदना सा जूता हूँ तो क्या
पोशाक तो मैं भी हूँ
आदमी की शान बढ़ाता हूँ
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