ज़िंदगी बिकती है
काव्य साहित्य | कविता राजनन्दन सिंह15 Nov 2020 (अंक: 169, द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)
वे सारी की सारी आवश्यकताएँ
जिसके बिना ज़िंदगी रुकती है
ज़िंदगी ही है
आयात-निर्यात के बड़े-बड़े कंटेनरों
बक्से, गाँठों बोरियों
थैले लिफ़ाफ़ों शीशों में भरकर
ज़िंदगी बिकती है
ट्रक के ट्रक
जहाज़ के जहाज़
थोक के भाव
दलाली मुनाफ़ा नफ़ाखोरी सहित
ज़िंदगी बिकती है
बड़े बाज़ार की बड़ी दुकानों
छोटी दुकानों से लेकर
फ़ुटपाथ की पटरियों पर छानकर
ज़िंदगी बिकती है
ये ज़िंदगी आती कहाँ से है
ये ज़िंदगी बनती कहाँ है
इसे बनाता कौन है
वे परिश्रमी हाथ
वे ख़ून पसीने
किसी खेत में कारखाने में
किसी खुली या बंद जगह पर
किसी खादान में
किसी भट्ठी में या किसी तहखाने में
ताकि उन्हें भी मिल सके
एक हँसती-खेलती अनमोल ज़िंदगी
मगर नहीं
उन्हें मिलती है सिर्फ़ रुकी हुई ज़िंदगी
और उनके परिश्रम उनके हाथों
बनी हुई यह ज़िंदगी
बाज़ार में बिकती रहती है
बिकती ही रहती है
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