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तुम भी ग्रैजुएट हो? 

दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक होने के बाद विजयचन्द्र नौकरी की तलाश करने लगा। इंटरव्यू के लिए जहाँ कहीं भी जाता वहाँ कम से कम बीस-पच्चीस लड़के लाइन में पहले से होते। सभी साफ़-सुथरे इस्तरी मारे हुए कपड़े, चमकते जूते पहने, क़रीने से कटे-छँटे बाल, मूँछें ग़ायब, हैंडसम शहरी दिखते थे। कोई-कोई तो टाई बाँधे फ़िल्म स्टार अथवा मॉडल जैसी पर्सनैल्टी वाले भी होते थे। जैसे इंटरव्यू सेल्समैन अथवा सेल्स रिप्रेज़ेंटेटिव के लिए नहीं बल्कि असिस्टेंट मजिस्ट्रेट के लिए हो रहे हों। उनके सामने बिहार के एक छोटे शहर से आया हुआ विजयचन्द्र दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक होने के बावजूद भी बिलकुल देहाती दिखता था। हालाँकि वह दिल्ली में चार साल से ज़्यादा रह चुका था मगर कुछ आर्थिक तथा कुछ अपने गृहनगर की स्वाभाविक पारंपरिक मानसिकता के चलते रहन-सहन एवं ड्रेसिंग-सेंस सुधार नहीं पाया था। कपड़ों की प्रकृति के हिसाब से मानसिक दशा का मिलान होना ज़रूरी होता है। व्यक्ति की सोच के स्तर का अनुमान उसके द्वारा पहने हुए कपड़ों से लगाया जा सकता है कि वह कितना आत्मविश्वास अथवा कितनी हीन भावनाओं से भरा हुआ है। 

उसे लगता था वह जैसा है, जैसा पहनता है उसके लिए वही सहज है, वही ठीक है। हालाँकि तब तक दिल्ली भी फ़ैशन की दुनिया से परिचित नहीं थी। आम लोगों के लिए फ़ैशन के ब्रांडेड परिधानों की न तो दुकानें थी और न ही लोगों के पास पर्याप्त पैसे। गाँधी नगर का देसी रेडिमेड मार्केट, कनॅाट पेलेस का मोहन सिंह पैलेस, और जगह-जगह टेलर्स की दुकानें ही दिल्ली में फ़ैशन का प्रतिनिधित्व कर रही थीं। किसी को किसी के कपड़े यदि पसंद आ जाते तो अक़्सर लोग अनजानों से भी पूछ लेते थे कि कहाँ से ली किस दुकान से ली। 

मगर बिहार और दिल्ली के रहन-सहन, बात-व्यवहार, सोच के बीच का जो मनोवैज्ञानिक अंतर था वह तो था। बिहार का पढ़ा लिखा हर प्रकार से सभ्य संपन्न लड़का यदि दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ता था फिर भी वह हेय बिहारी था। और कोई स्थानीय अपढ़ ज़ाहिल, टपोरी, छिछोड़े स्टाइल मारता हुआ भीड़ भरी बसों में पाकेटमारी भी करता था तो वह दिल्ली वाला था। वह हेय नहीं था। इस तरह के चोर-उचक्के फ़ुटपाथी पाकेटमार भी बिहार से आए हुए किसी सभ्य संकोची को ज़लील करना अपना अधिकार समझता था और करता था। अस्सी और नब्बे के दशक की दिल्ली की सामूहिक मानसिकता की यह एक कड़वी सच्चाई है। ग्रामीण दिखने वाला संकोची भारतीय चाहे वह मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, यूपी, उड़ीसा, बंगाल, बिहार, असाम कहीं से भी क्यों न आया हो, दिल्ली वालों की नज़र में वह बिहारी नहीं तो पुरुबिया था। यदि कोई बोल बैठता कि मैं बिहारी नहीं हूँ तो उसे छूटते ही सुनने को मिलता ‘तो क्या हुआ पुरुबिया होगा। कोई अँग्रेज़ तो है नहीं’ जैसे कहने वाला स्वयं अँग्रेज़ हो। 

उन दिनों दिल्ली में लगता था जैसे देश में तीन तरह के नागरिक हैं एक बिहारी, एक सरदार और शेष भारतीय। 1984 में प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद पगड़ी पहनने वाले सिक्खों की सामाजिक स्थिति सम्मानजनक नहीं थी। लोग मज़ाक में सही उन्हें खुलेआम आतंकवादी बुला देते थे। मगर उनकी दशा बिहारियों से फिर भी बहुत ऊपर थी। तेयम दर्जे (तृतीय दर्जे)  की नागरिकता का आभास सिर्फ़ बिहारी ही कर रहे थे। बिहारियों के प्रति दिल्ली की हेय रवैये से विजयचन्द्र का आत्मविश्वास भी संघर्ष कर रहा था। उसमें ड्रेसिंग- सेंस की कमी नहीं थी मगर शहर के हिसाब से बहुत कुछ अभी सीखना था। वास्तव में उसके ड्रेसिंग-सेंस का जो स्तर उसके दिमाग़ में था उसके लिए पैसे नहीं थे। अनावश्यक दिखावे का पहनावा उसकी नज़र में स्वयं को टिनहीं हीरो (सस्ता फ़ुटपाथी फ़ैशन करने वाला) समझने जैसा था जिससे वह बचना चाहता था। उसके पास यदि पैसे होते तो अपने आप को शायद बेहतर प्रस्तुत करता, जो नहीं था बिहारी दिखना उसकी विवशता थी। 

विजयचन्द्र की बारी आती तो साक्षात्कार कक्ष से सिर्फ़ दो मिनट में ही वह बाहर आ जाता था। उसके पहनावे चलने बैठने-उठने और बोलने का ढंग देखकर इंटरव्यू ले रहा व्यक्ति उससे आगे बात करने की ज़रूरत ही नहीं समझता था। एक ने तो उसे देखकर उसका उपहास करते हुए यहाँ तक कह दिया कि अरे! तुम भी ग्रैजुएट हो? मगर तुम यहाँ कैसे पहुँच गये? तुझे यहाँ आने का सलाह किसने दे दी? तुम किसी लोहा फ़ैक्ट्री में जाओ यार। वही बैठे दूसरे थोड़े से बुज़ुर्ग सज्जन ने कहा कोई बात नहीं आ गये हो तो बैठो अपने बारे में बताओ। क्या तुझे भरोसा है कि तुम मार्केट में वरमा (पानी खींचने वाला छोटा हैंड पाईप) बेच लोगे? विजय ने कहा नहीं सर। मुझे यह काम पहले किसी सीनियर सेल्समैन के साथ सीखना होगा। उसके बाद बता पाउँगा। सज्जन ने कहा ठीक है आप बाहर प्रतीक्षा करें इंटरव्यू पूरा होने के बाद यदि आपकी ज़रूरत हुई तो हम आपको बतायेंगे। विजयचन्द्र अब तक इस तरह के तीन दर्जन से ज़्यादा इंटरव्यू दे चुका था। वह समझ चुका था कि इस वाक्य का मतलब है आप घर जाएँ आपकी ज़रूरत हमें नहीं है। विजय को उस वाक्य का कभी पता ही नहीं चला जो अक़्सर चयनित उम्मीदवारों को कहा जाता होगा या कहा जाता है। 

एक साथ इंटरव्यू देना, एक साथ छँटना, एक साथ दुबारा, तिबारा, चौबारा पुनः किसी और इंटरव्यू में मिलना। इस तरह इंटरव्यू देते-देते अक़्सर बहुत से लड़कों का आपस में जान-पहचान भी हो जाती थी। विजय को भी लगभग दर्जन भर लड़कों से चिन्हा परिचय हो गया था। यही कारण था कि विजय निराश नहीं होता था। वह सोचता था जब अच्छी-अच्छी पर्सनैल्टी वालों को नौकरी नहीं मिल रही तो मैं क्यों निराश होऊँ? लगे रहो कहीं न कहीं तो बात बन ही जाएगी। मगर इस इंटरव्यू ने उसे निराश कर दिया जहाँ उससे पूछा गया ‘अरे तुम भी ग्रैजुएट हो?’

उसने निर्णय लिया अब वह सचमुच सेल्समैनी की आशा छोड़कर किसी फ़ैक्ट्री में ही लगेगा और जो भी काम मिलेगा करेगा। 

इस बार वह किसी जान-पहचान वाले की सिफ़ारिश पर रेडिमेड गारमेंट एक्सपोर्ट हाउस में नौकरी के लिए गया। वहाँ भी इंटरव्यू चल रहा था। मगर उसे इंटरव्यू नहीं देना पड़ा। एक दूसरे कमरे में बुलाकर उसे एक फ़ॉर्म दिया गया जिसे भरकर जमा कर देने और अगले सोमवार से नौकरी पर आने के लिए कहकर भेज दिया गया। पन्द्रह मिनट के भीतर ही नौकरी कन्फ़र्म हो जाने का उसे भरोसा नहीं हो रहा था। मगर जितने लड़के रखने थे वे सभी विजय को वहीं उस कमरे में दिख गये थे। जब वापस घर जाने लगा तो सोचा कि इंटरव्यू की भीड़ भी देखता चलूँ। 

उसके मन में संशय हो रहा था इंटरव्यू तो लिया ही नहीं और रख लिया। पता नहीं सचमुच रख लिया है या कोई बात है? यदि कोई बात नहीं तो फिर ये अभी भी इंटरव्यू क्यों ले रहे हैं? 

दस बारह का इंटरव्यू हो चुका था। लगभग पैंतीस अभी अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे थे। हेल्पर की नौकरी के लिए भी इंटरव्यू—वाह रे व्यवस्था। मगर कोई बात नहीं मिट्टी का घड़ा भी लोग ठोक-बजाकर तो लेते ही हैं। 

विजय को मौखिक रूप से स्टोर सुपरवाइज़र की नौकरी मिल गई। वह स्टोर में काम करने लगा। स्टोर इंचार्ज ख़ुद बारहवीं पास था। उसे यह पसंद नहीं था कि कोई ग्रैजुएट बिहारी लड़का उसका असिस्टैंट बने। विशेष कर जीएम की सिफ़ारिश से लगा हुआ व्यक्ति। उसे भय था कि यदि यह काम सीख गया तो कहीं उसकी नौकरी न ख़तरे में पड़ जाए। विजय को अभी अनुभव कुछ था नहीं। ग़लतियाँ उसके लिए स्वाभाविक थीं। विशेषकर जब सारे सहकर्मी विपरीत हों। स्टोर के अन्य कर्मियों को भी अपनी तरक़्क़ी के रास्ते बंद होते हुए नज़र आ रहे थे। वे जानबूझकर उससे ग़लतियाँ करवाते और वही ग़लती स्टोर इंचार्ज को नमक-मिर्च लगाकर उकसाने वाले शब्दों के साथ बता आते। ‘ये देखो नेगी जी! कहता है कि मैं ग्रैजुएट हूँ और आता-जाता कुछ नहीं। आ गया बिहार से पढ़कर। बारह थान के मीटर नोट करवाये थे चार थान का मीटर ग़लत लिख दिया। शुक्र करो मैंने दुबारा चेक कर लिया और उसकी ग़लती पकड़ में आ गई वरना सौ मीटर कपड़ा फ़ालतू चला जाता और बाद में आप इनवेंटरी मिलाते ही रह जाते।’ 

स्टोर इंचार्ज रमेश नेगी उसकी ग़लतियाँ ढूँढ़-ढूँढ़ कर उसे झिड़कियाँ देता रहता था। और भीतर के लड़के उसे ज्ञान देते रहते अरे इतना पढ़-लिखकर तू कहाँ यहाँ अनपढ़ों के काम में आ गया। कहीं किसी साफ़-सुथरे ऑफ़िस में लग। सेल्स मैन बन। यहाँ क्या रखा है? विजय सबकी सुनता सबकी सहता और सबको चुपचाप झेलता रहता था। 

उसके अंतर्मन में बड़ा दुख पहुँचता कि सचमुच एक ग्रैजुएट को कहाँ तो उसके हिसाब से कोई उचित काम सीखने को मिलता मगर यहाँ तो उचित काम मिलता नहीं है और नीचे उतरकर काम करना चाहो तो वहाँ पहले मौजूद लोगों को अपने रस्ते बंद होते नज़र आने लगते हैं। इससे पहले वे भले बीस सालों से कोई तरक़्क़ी न पाया हो मगर कोई दूसरा आ गया तो उनके तरक़्क़ी के रास्ते ऐसे बंद होते हुए महसूस होने लगे जैसे यदि विजय नहीं आता तो उन सभी को एक साथ ही असिस्टैंट स्टोर मैनेजर बना दिया जाता। मगर वह मन मानकर रह जाता। जिस देश में पैदा हुए हैं वहाँ की व्यवस्था मानसिकता और लोगों को तो झेलना ही पड़ेगा। 

नेगी चाहता था विजय को यहाँ काम न सीखने दिया जाए और किसी न किसी बहाने यहाँ से भगा दिया जाए। इसलिए सुबह नौ बजकर पन्द्रह मिनट के बाद यदि नौ बजकर सतरह मिनट पर भी पहुँचता तो उसे हाफ़-डे के बाद आने को कहकर वापस कर देता था। और हेड ऑफ़िस में हमेशा उसकी शिकायत करता रहता था कि उसे कुछ आता-जाता नहीं है। ड्यूटी भी हर रोज़ एक डेढ़ घंटे देर से आता है। 

विजय यह सब बर्दाश्त कर रहा था। उसने इंटरव्यू दे-देकर अच्छी तरह यह समझ लिया था कि वह कहीं भी जाएगा इस स्थिति का सामना करना ही पड़ेगा। कई बार उसके मन में हुआ वह बिहार वापस चला जाए वहीं कुछ कर ले। मगर क्या कर ले? यह सोचकर थम जाता था। उसने निर्णय लिया कि भागना समाधान नहीं है। शत्रु यदि हथौड़ा है तो मुझे वह चिकना पत्थर बनना पड़ेगा जो हथौड़े की चोट से टूटता नहीं बल्कि छिटककर कहीं और जा गिरता है। 

इक्कीस सितंबर उन्नीस सौ पंचान्यवे को विजय नौ बजकर चौदह मिनट पर स्टोर पहुँच गया। नेगी का मन आज उसे स्टोर में रहने देने का नहीं था। लेकिन विजय ने ठीक एक मिनट पहले पहुँच के उसकी मंशा को कुंद कर दिया था। आज स्टोर में हेड ऑफ़िस से कुछ अफ़सर आ रहे थे जिन्हें किसी पढ़े-लिखे सहायक की ज़रूरत थी। नेगी को भय था कहीं वे विजय को अपने साथ न ले जाएँ। यदि ऐसा हुआ तो उसकी तरक़्क़ी हो जाएगी जिसे वह अयोग्य बताता आ रहा है। थोड़ी देर में कही से अफ़वाह मिली कि देश भर के मंदिरों में भगवान गणेश की प्रतिमा दूध पी रही है। नेगी को बहाना मिल गया। उसने विजय को साढ़े तीन रुपये देकर भगवान जी को दूध पिलाकर आने के लिए भेज दिया। और साथ में यह निर्देश भी दे दिया कि ध्यान से देखना भगवान जी सचमुच दूध पी रहे हैं या कोई झूठी अफ़वाह है। विजय को पक्का भरोसा था कि पत्थर की मूर्ति कभी दूध नहीं पी सकती। निश्चित रूप से ही यह कोई दृष्टि भ्रम होगी या फिर आस्था का एक सामूहिक झूठ होगा जिसे समझते सभी हैं मगर दूसरे को अचंभित करने का आनंद लेने के लिए सुने हुए झूठ में कुछ अपना झूठ मिलाकर आगे बढ़ाते रहते हैं। मनोविज्ञान की भाषा में इसे छल वाली आस्था यानी छलास्था तथा ऐसे व्यवहार करने वालों को छलास्थी कहा जा सकता है। विजय साढ़े तीन रुपये लेकर दूध की सभी दुकानें छान आया, कहीं दूध नहीं मिला। मंदिर की तरफ़ वह यह सोचकर चला गया कि कोई बात नहीं कम से कम दूसरों को दूध पिलाते देखकर ही आ जाता हूँ वरना नेगी पूछेगा तो जवाब क्या दूँगा? 

मंदिर से पहले नगर निगम का एक बहुत बड़ा पार्क था जो बदबूदार कूड़े के ढेर से भरा रहता था। उस कूड़े के ढेर में अपना भोजन तलाश करने के लिए दर्जनों सूअर, गाय, साँड़, तरह-तरह के कुत्ते इत्यादि का जमावाड़ा रहता था। लोगों की भीड़ देखकर तीन-चार साँड़ विफर गये और आपस में भयंकर ढाह (सर से वार करना) लड़ाई लड़ने लगे। साँड़ की लड़ाई बड़ी ज़िद्दी होती है जल्दी छूटती नहीं है। जब तक कि किसी एक पक्ष का साँड़ घायल होकर अथवा बुरी तरह दुम दबाके भाग न जाए। जितने लोग भगवान को दूध पिलाने के लिए लाइन में खड़े थे उससे कही ज़्यादा लोग साँड़ की लड़ाई देख रहे थे। ऐसा लग रहा था जैसे सारी की सारी जनता घरों से बाहर आ गई हो और बहुत बड़ा कोई मेला लगा हो। भीखमंगे डिरिया (गिड़गिराना) रहे थे मगर उनकी तरफ़ कोई देख भी नहीं रहा था।  सभी को चिन्ता थी भगवान की मूर्ति को दूध पिलाने की उसकी बारी कब आएगी। मंदिर के पास ही एक दूधिया, एक सेर दूध में चार सेर पानी मिलाकर बेच रहा था। विजय को सात रुपये का एक छोटा डिस्पोज़ल गिलास दूध मिल गया। लगभग डेढ़ घंटे बाद उसकी बारी आई। मूर्ति संगमरमर की थी मूर्ति के मुँह में गिलास लगाने पर सफ़ेद दूध सफ़ेद मूर्ति की सतह पर होता हुई नीचे गिरता थी। धार की ऊपरी सतह पर पृष्ठ तनाव के कारण गिरते हुए दूध (सफ़ेद पानी) की धार दिखती नहीं थी। इस लिए दृष्टि भ्रम हो रहा था कि दूध बाहर नहीं गिर रहा है तो निश्चय ही मूर्ति उसे पी रही है। महिलाएँ ज़्यादा भावुक हो रही थीं। एक दो नवयुवकों ने मूर्ति के पेट के पास हथेली लगाकर गिरते हुए दूध को जमा करके यह दिखाने की कोशिश की कि दूध बाहर गिर रहा है मूर्ति नहीं पी रहा तो पुजारियों ने उसे डाँट कर भगा दिया। चल नहा के दुबारा आ तेरा मन साफ़ नहीं है। चार घंटे बाद विजय वापस स्टोर में पहुँचा तो स्टोर के सभी कर्मचारियों ने उत्सुकता वश उसे घेर लिया। उन्हें आशा थी कि यह कोई चमत्कार के क़िस्से बढ़ा-चढ़ा कर सुनायेगा। मगर विजय ने जब कहा कि मूर्ति कोई दूध नहीं पी रही है सब फिजिक्स के ‘सर्फेस टेंशन’ और लोगों के मन की छलास्था है तो साथियों को बड़ी निराशा हुई। साथियों ने कहा कम पढ़े-लिखे लोग किसी काम के नहीं होते। चार अक्षर पढ़़ के भगवान को ही विज्ञान समझाने लगते हैं। नेगी ने भी विजय से कहा, “तुम लल्लू के लल्लू रह गये यार। तूने फिजिक्स कब पढ़ लिया? ‘सर्फेस टेंशन’ का तो मैंने कभी नाम भी नहीं सुना। 

“चलो अब लंच कर लो और दूसरे मंदिर में एक बार और दूध पिला के आओ। समय मिले तो वापस आ जाना नहीं तो यदि देर हो जाए तो वही से घर निकल जाना।” उसे भय था कि हेड ऑफ़िस से आनेवाला अधिकारी अभी भी आया नहीं था। 

विजय दूसरे मंदिर में पहुँचा तो लाईन अभी भी बहुत बड़ी थी और दूध का स्टॅाक समाप्त हो गया था। इतना ही नहीं मंदिर प्रबंधन ने लोगों को लाईन लगाने से मना करना भी शुरू कर दिया था। “भइया अब लाइन में मत लगो दूध पीने का समय साढ़े चार बजे तक ही था। चार बज चुके हैं लाइन कितनी बड़ी है देख ही रहे हो जब तक नंबर आएगा छह बज जाएँगे। जाओ अपने अपने घर जाओ।” विजय भी वापस स्टोर चला गया। स्टोर इंचार्ज को बताना ज़रूरी था कि दूसरे मंदिर में उसका नंबर नहीं आया। तब तक हेड ऑफ़िस से भी फोन आ गया था कि वह अफ़सर आज मंदिर में भगवान को दूध पिलाने चला गया था। इसलिए आज नहीं आ रहा है। 

दूसरे दिन के लिए नेगी ने विजय को बाहर से बाहर का ही काम दे दिया और बोल दिया कि कल आराम से जब मर्ज़ी आ जाना। 

दूसरे दिन का अख़बार समूचे भारत में भगवान गणेश की मूर्ति द्वारा दूध पीने के समाचारों तथा मंदिरों के आगे भीड़ वाली तस्वीरों से भरा था। मुँहा-मुँही लोग यह भी कह रहे थे कि यह सब तांत्रिक चन्द्रास्वामी का कोप है। सरकार ने उनके विरुद्ध यदि सख़्ती कम नहीं की तो भविष्य में अन्य देवी देवताओं की मूर्तियाँ भी दूध पियेंगी। और इस दुनिया में दूध की कमी पड़ जाएगी जिसका सबसे बुरा असर नन्हे बच्चों पर होगा। 

कुछ अख़बारों ने सामूहिक सम्मोहित अंधता तो कुछ ने वैज्ञानिक कारण पर भी आर्टिकल छापा था। किसी अख़बार ने अपने किसी छोटे से कोने पर ‘पृष्ठ तनाव’ वाली बात को भी जगह दिया था। नेगी ने जब पृष्ठ तनाव‘पृष्ठ तनाव’ वाली ख़बर अख़बार में पढ़ा तो उसने विजय को बुलाया और पूछा। 

“अरे कल तुम क्या कह रहे थे गणेश जी की मूर्ति दूध क्यों नहीं पी रही थी?” 

“सर पृष्ठ तनाव।”

“कल तो तुम कुछ और ही कह रहे थे।”

“सर्फेस टेंशन। उसी को हिन्दी में पृष्ठ तनाव कहते हैं।”

“ये देख अख़बार में भी ऐसा ही लिखा है।”

“मैं तो कल एक बार देखते ही समझ गया था सर।”

“तो इतने लोग क्यों नहीं समझे?” 

“सर सौ में अस्सी लोग समझ रहे थे। मगर मुझे लगता है ज़्यादातर लोगों को झूठ को हवा देने में मज़ा आता है न। इसलिए कुतुहल फैलाने का आनंद ले रहे थे।”

“हाँ बात तो तुम्हारी ही सही लगती है। चलो कल के लिए सॉरी यार।”

नेगी ने स्टोर में सभी को बताया कि कल जो विजय कह रहा था वही सही है। मूर्ति दूध नहीं पी रही थी। नज़र का वहम था। 

हेड ऑफ़िस से फोन आया विजय वहाँ कुछ कर नहीं रहा है उसे हेड ऑफ़िस भेजो। नेगी ने उसे यह सोचकर भेज दिया कि अब इसकी क्लास लगेगी। मगर वहाँ उसे सहायक कर्मचारियों के लिए होनेवाली पन्द्रह दिनों के ट्रेनिंग सेशन में काम सीखने तथा व्यवहारों की ट्रेनिंग लेने के लिए कहा गया। ट्रेनिंग पूरी होने के बाद जिस विभाग की समझ ज़्यादा होगी उस विभाग में लगाया जाएगा। 

नेगी को जब यह पता चला तो उसे बड़ी जलन और पश्चाताप हुआ। वह जिसका नुक़्सान करना चाहता था उसका तो उल्टे और लाभ ही हो गया। वह रोज़-रोज़ उसे वापस बुलाने के लिए फोन करने लगा। सर उसकी यहाँ स्टोर में ज़रूरत है, उसके बिना यहाँ काम रुक रहा है। एक दिन बड़ा मैनेजर चिढ़ गया।

बड़ा मेनेजर जब ग़ुस्सा होता था तो आदमी को गाली नहीं देता था। उसे बैंगन, भिंडी, गाजर, मूली इत्यादि जैसे नामों से संबोधित करने लगता था। बोला, “अबे मूली, जब यह वहाँ था तो उसमें बुराइयों की कमी नहीं थी। रोज़-रोज़ फोन करके उसकी ख़ामियाँ गिनवाता था। और अब उसके बिना वहाँ काम रुक रहा है तू चाहता क्या है?” 

“नहीं सर बड़ी मुश्किल से उसे ट्रेंड किया है अब वह हमें वापस चाहिए। नहीं तो फिर दूसरे को ट्रेंड करना पड़ेगा।”

“अच्छा ठीक है उसकी ट्रेनिंग पूरी होने दे वापस भेज दूँगा। मगर याद रखना अब दुबारा उसकी शिकायत आई तो उसे तुम्हारे पास से हटाकर कहीं और लगाना पड़ेगा।”

धक्का और ठोकर खाये हुए लोगों में सीखने की ललक और क्षमता दोनों ही तीव्र होती है। विजयचन्द्र स्नातक तो था ही। ठोकरें भी ख़ूब खाई थीं। पन्द्रह दिनों के सेशन में उसने पन्द्रह महीनों के बराबर सीखने का प्रयास किया। और एक बार जब पता चल गया कि कहाँ-कहाँ से क्या-क्या सीखना है तो आगे के लिए भी सीखते रहने और स्वयं को बेहतर करते जाने का सिलसिला चल पड़ा। थोड़ी बहुत टूटी-फूटी अँग्रेज़ी आती थी झिझक के मारे बोलता नहीं था। उसमें भी स्पीकिंग और ग्रामैटिकल सुधार होने लगा। ट्रेनिंग सेशन पूरा होने के बाद वापस जब वह स्टोर में आया तब वह पहले वाला झिझकी अथवा दब्बू विजय नहीं था। वह बहुत कुछ सीख चुका था। उसके चलने, उठने, बोलने, बातें करने और काम करने का अंदाज़ बहुत बदल चुका था। अब वह किसी के झाँसे, कुचाल-वाचाल इत्यादि का शिकार होने वाला नहीं था। पहले वह बात-बात पर बहस करता था। अब उसने सीख लिया था कि सभी बातों का जवाब देना ज़रूरी नहीं होता। नेगी जो हरदम उस पर हावी रहता था अब उसके साथ मित्रवत और कभी-कभी उल्टा सहमा-सहमा रहने लगा। उसे भय था पन्द्रह दिनों में इसने पता नहीं किस-किस से जान पहचान कर ली थी। अब इसे दबाना इतना आसान नहीं रह गया था। 

कभी-कभी ऐसा होता है आदमी किसी के लिए बुरा करना चाहता है मगर ईश्वर उसका परिणाम अच्छा कर देता है। विजय के प्रति नेगी का व्यवहार अब थोड़ा नर्म हो गया। उसका भी पूरा नाम रमेशचन्द्र नेगी था। उसी ने विजय को बताया कि हमारा नाम कितना कॉमन है। साल भर के भीतर विजय ने पूरे स्टोर का काम सँभाल लिया और स्टोर को पहले से कही ज़्यादा व्यवस्थित, साफ़-सुथरा, अपटूडेट और आसान बना दिया। सबसे महत्वपूर्ण काम जो विजय ने किया वह था सरप्लस स्टॅाक की पहचान कर उसे रनिंग स्टॅाक से अलग करना तथा हेड ऑफ़िस से अप्रूवल लेकर कंपनी स्टाफ़ के लिए उसका सेल लगाकर बेचने का सुझाव देना। 

अपने सुझाव में उसने लिखा था कि सरप्लस स्टॅाक को व्यापारियों के हाथों भी बेच सकते हैं। मगर वह किलो के भाव से, बहुत कम पैसे देगा। इसके बदले हम इसे यदि अपने स्टाफ़ के लिए दस रुपये प्रति मीटर में भी सेल लगाते हैं तो कम से कम दो गुना से ज़्यादा पैसा आएगा। इसलिए इस सेल के काम में यदि हम अपने दो स्टाफ़ को लगा देते हैं फिर भी उसकी तनख़्वाह के बाद भी बहुत से पैसे कंपनी को बचेंगे। इसे पहले सरप्लस के कपड़े सैंपलिंग के नाम पर कहाँ चला जाता था उसका पता ही नहीं था। सेल लगने से हेड ऑफ़िस स्टाफ़ से लेकर जीएम तक सभी ख़ुश हो गये। सस्ते दामों में बढ़िया कपड़ा किसे नहीं चाहिए? विजय को चूँकि श्रेय का लालच नहीं था इसलिए सारा श्रेय नेगी जी को ही जा रहा था। मगर नेगी भी ईमानदार था, दूसरे के कार्यों का श्रेय लेना उसकी प्रवृति भी स्वीकार नहीं करती थी। अपने शाबासी देने वालों को वह बतला दिया करता था कि यह काम विजय कर रहा है। 

नेगी को अपनी नौकरी का भय अभी भी था। मगर विजय का उद्देश्य स्टोर इंचार्ज से कहीं ऊपर था। वह चाहता था कि वह स्टोर से निकलकर हेड ऑफ़िस में पहुँचे वहाँ के एक्सपर्ट तथा प्रोफ़ेशनल लोगों के साथ काम करे उनसे कुछ सीखे। उसने नेगी को आश्वस्त किया कि उसका उद्देश्य स्टोर इंचार्ज बनना नहीं है। और उससे आग्रह किया कि वह हेड ऑफ़िस में प्रयास कर रहा है। इस बार उसकी बदली के लिए वहाँ से कोई बुलावा आए तो कृपया उसे रोके नहीं, जाने दे। 

नेगी मान गया। हेड ऑफ़िस में लगभग दस साल काम करते रहने के बाद विजय चन्द्र फ़ैब्रिक्स सोर्सिंग मैनेजर हो गया। स्टोर की रिपोर्टिंग फ़ैब्रिक्स सोर्सिंग मैनेजर को ही होती थी। नियमतः स्टोर अब विजयचन्द्र के अंडर आ गया। नेगी थोड़ा शर्मिंदा रहता था मगर विजयचन्द्र आदर से अभी भी उसे सर ही कहता था। “आइए सर!” 

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