संपूर्ण साहित्य को प्रगतिशील होना पड़ेगा
अन्य | सम्पादकीय प्रतिक्रिया राजनन्दन सिंह1 Apr 2021 (अंक: 178, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
सम्पादकीय: अगर जीवन संघर्ष है तो उसका अंत सदा त्रासदी में ही क्यों हो?
साहित्यकुञ्ज मार्च द्वितीय अंक का संपादकीय पढ़ा।
वैसे साहित्य कुञ्ज के सभी नये अंकों का सबसे पहले मैं संपादकीय ही पढ़ता हूँ। संपादकीय इसलिए कि किसी भी पत्रिका का प्रधान संपादक ही वह एकमात्र व्यक्ति होता है जो निश्चित रूप से अंक की सभी रचनाओं को ध्यान से पढ़ता है। अंक की समस्त विशेषताओं, ख़ूबियों ख़ामियों से भिज्ञ होता है तथा लेखन एवं रचनाओं में प्रगतिशील समृद्धि लाने के लिए ज़रूरी आवश्यकताओं को महसूस करता है। जो कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में उनकी कमल से संपादकीय में भी दिखाई पड़ता है। इसलिए मुझे लगता है कि किसी भी पाठक, विशेषकर लेखक सह पाठकों के लिए संपादकीय पढ़ना समझना एवं गुनना सबसे पहली प्राथमिकता होनी चाहिए।
संपादकीय का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है कि यह एक ऐसा संदेश है, जो स्वयं रचना न होते हुए भी रचना को निखारने हेतु रचना की दशा दिशा एवं आवश्यकताओं का अप्रत्यक्ष और कभी-कभी प्रत्यक्ष निर्देश देता है। जो हमें बताता है कि अंक की सभी रचनाओं को पढ़ने के बाद संपादक के मन में क्या आता है? और संपादक क्या सोचता है? कहाँ क्या कमी रह गई? कैसा महसूस करता है।
मार्च द्वितीय अंक के संपादकीय में मुझे जो सबसे सार बात लगी वह है –
"मेरा मानना है कि विमर्श-साहित्य बहुआयामी नहीं होता इसलिए विमर्श ही उसकी अभिव्यक्ति की और जीवनकाल की सीमा तय कर देता है। सामाजिक परिस्थितियों के बदलते ही विमर्श साहित्य– इतिहास बन जाता है। वह जीवंत नहीं रहता।"
और दूसरी बात जो इससे भी ज़्यादा सार एवं महत्वपूर्ण है –
"पाठक अलग-अलग क़लम से एक ही इबारत कब तक पढ़ते रहेंगे; और फिर हम कह देंगे — हिन्दी साहित्य के पाठक कहाँ हैं?"
संपादकीय की इन पंक्तियों से स्पष्ट है कि साहित्य कुञ्ज को प्राप्त होने वाली रचनाओं में प्रगतिशीलता का संभवतः अभाव है या अपेक्षित आधुनिकता नहीं है। जिस कारण संपादक महोदय चाहते हुए भी बहुत सारी रचनाएँ प्रकाशित नहीं कर पाते। साथ ही जो रचनाएँ प्रकाशित हो रही हैं उनमें भी कहीं न कहीं और प्रगतिशीलता एवं आधुनिकता की आवश्यकता है।
जिसका स्पष्ट निर्देश इस अंक के संपादकीय में संपादक जी ने दिया है।
"अंत में यही कहना चाहूँगा कि आधुनिक साहित्य रचें। इस युग की भाषा, जीवन शैली, संवेदनाओं की अभिव्यक्ति, बदलते जीवन मूल्य इत्यादि को लिखें। इन सबका बुरा पक्ष ही मत लिखें। कुछ अच्छा भी तो होता है। यह आवश्यक नहीं है कि आधुनिक भाषा में अँग्रेज़ी के शब्दों की भरमार हो। भाषा पात्र के अनुसार हो और आधुनिक हो।"
प्रगतिशीलता के उदाहरण के लिए संपादक जी ने नारी विमर्श का उदाहरण दिया है। यह सही बात है कि आजकल जिसे देखिये वही लेखक या कवि स्त्री को अबला पीड़िता समझकर पुराने शब्दों का रोना रोकर नारी की समस्त शक्तियों, संघर्षों एवं उपलब्धियों पर पानी फेर देता है। नारी के रूप में वह अपने घर-परिवार, गाँव-समाज, देश-दुनिया की आधुनिक सशक्त स्त्री को नहीं देखता। उनकी उपलब्धियों पर बधाई नहीं देता, गर्व नहीं करता। और पता नहीं किस काल्पनिक दुनिया की किस अबला स्त्री को कहाँ से निकाल लाता है, जिसकी हमदर्दी में चोरी के घिसे शब्दों एवं भावों के आँसू बहाकर स्त्रियों की चिंता में दुबला होने का प्रदर्शन करता है। और ऐसा करते हुए वह यह भूल जाता है कि वह स्वयं कहाँ है और वस्तुतः भारत एवं विश्व की आधुनिक स्त्रियों ने किस ऊँचाइयों को प्राप्त कर लिया है।
मेरी नज़र में यथार्थ यह है कि स्त्री कभी भी अबला नहीं थी। मैं जानता नहीं हूँ मगर बौद्धिक अबला स्वयं वही रहा होगा जिसने सबसे पहले किसी स्त्री को अबला कहकर उसे कमज़ोर होने का अहसास दिलाया होगा। जाने अनजाने स्त्री को कमजोर बनाने का दुष्टतपूर्ण कुप्रयास किया होगा। स्त्री को सबसे पहले अबला कहने वाले उस महानुभाव के सामने संभव है कोई ऐसी परिस्थितियाँ रही होंगी। जिसे देखकर उन्होंने हमदर्दी में बिना सोचे उस देश की स्त्री को अबला कह दिया जिस देश में साल में दो बार पूरे अठारह दिनों तक घर-घर दुर्गा सप्तशती पाठ की प्राचीन परंपरा है। उनकी अदूरदर्शिता यह थी कि अपनी पीड़िता नायिका को दुर्गा कहकर उसका हौसला नहीं बढ़ाया, अबला कहकर उसे कमज़ोर बना दिया। उन्हें पता नहीं रहा होगा कि स्त्रियों के प्रति उनकी हमदर्दी स्त्रियों कमज़ोर मानकर उसका नाम ही अबला रखवा देगी।
संभव है कुछ स्त्रियाँ उसके जाने अनजाने अदूरदर्शिता के झाँसे में आ गई होंगी और स्वयं को सचमुच कमज़ोर मानकर बैठ भी गई होंगी। मगर सभी नहीं। क्योंकि सत्य यही है कि स्त्रियाँ कमज़ोर नहीं होती।
स्त्री यदि कमज़ोर होती तो हम रानी चेन्नमा, रानी झाँसी और उनके साथ तलवार उठाकर लड़ने वाली झलकारी बाई जैसे हज़ारों महिलाओं की कथाएँ कहाँ से सुनते? देवासुर संग्राम में राजा दशरथ की सारथी रानी कैकेयी, महाभारत में मद्र देश की युद्ध कुशल सुंदर राजकुमारी माद्री की कल्पना कहाँ से करते? आधुनिक समय में सुनीता विलियम कल्पना चावला इंदिरा गाँधी जैसी महिलाओं का नाम कहाँ से आता। सबसे वर्तमान समय में फाईटर जहाज उड़ाने वाली फ़्लाइट लेफ़्टिनेंट अवनी चतुर्वेदी, भावना कंठ और मोहना सिंह का नाम भला कौन जानता।
साहित्य कुञ्ज पत्रिका में ही देख लें तो महिला साहित्यकारों की भूमिका एवं स्तर कहीं किसी से कम नहीं है। वे लेखक हैं, कवि हैं, भाषा एवं शब्दों की विशेषज्ञ हैं। मैं किसी का नाम नहीं लिख पा रहा हूँ क्योंकि मुझमें उतनी योग्यता नहीं है कि उनका मूल्यांकन करके उन्हें कोई क्रम दे सकूँ।
कुछ सफल महिलाओं के उदाहरण का अर्थ यह भी नहीं है कि महिलाओं के साथ भेदभाव नहीं था या नहीं है। बहुत सारे समाज में वोट अधिकार से वंचित, विधवा विवाह, सती प्रथा देवदासी प्रथा जैसी बुराइयाँ थीं जिसके विरुद्ध उस समय के लोगों ने लड़ाइयाँ लड़ीं और उसका अंत किया। आज के समय में हम उन्हीं पुरानी समस्याओं की गिनती नहीं कर सकते। आज की स्त्री, पुरुषों से किसी मामले में पीछे नहीं है। आज लड़कियों के जन्म पर भी परिवार का मन छोटा नहीं होता। देश में करोड़ों परिवार है जिनकी मात्र एक लड़की है मगर वे पुत्र की चाहत में दूसरी संतान की चाह नहीं रखते। पुत्र एवं पुत्री की शिक्षा पर लोग समान रूप से समान खर्च करते हैं। जहाँ ज़रूरत है वहाँ लड़कियों पर नज़र रखी जाती है तो लड़कों को भी खुली छूट नहीं दी जाती।
दहेज़ हत्या, बलात्कार दुष्कर्म जैसी कुछ घटनाएँ आज भी हैं। मगर इसके पीछे नागरिक सुरक्षा व्यवस्था या कानून पालन व्यवस्था की कमी है न कि स्त्री विरोधी या स्त्रियों को दबाने वाली या कोई भेदभाव वाली मानसिकता।
स्त्रियों की समस्या आज भी है बदलती हुई परिस्थिति एवं समय के साथ आगे भी रहेंगी। पुरुष भी जीवन की समस्त समस्याओं से पूर्ण मुक्त कभी नहीं था न है और नहीं रहेगा। बदलती हुई परिस्थितियों एवं नई चुनौतियों के साथ-साथ साहित्य को भी अपना दृष्टिकोण बदलना पड़ेगा। स्त्री, पुरुष, समाज, साहित्य, पर्यावरण, जीवमात्र एवं जीवन के सामने आनेवाली अन्य सभी नई चुनौती नई समस्याओं को ढूँढ़ना पड़ेगा। प्रगतिशील होना पड़ेगा। सिर्फ़ स्त्री विमर्श के मामले में नहीं बल्कि सभी मामलों में लेखकों का अपना दृष्टिकोण प्रगतिशील रखना होगा। जैसा कि संपादक महोदय ने कहा है “परिस्थितियों के बदलते ही विमर्श साहित्य– इतिहास बन जाता है” अतः जो कही जा चुकी है उसे दुहराने के बजाय हमें उससे आगे कहना होगा। सिर्फ विमर्श साहित्य ही नहीं बल्कि संपूर्ण साहित्य को प्रगतिशील होना चाहिए, होना पड़ेगा।
– राजनन्दन सिंह
फरीदाबाद हरियाण भारत
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