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शुभघाती

उसका नाम लक्ष्मण महतो था लेकिन गाँव के लोग उसे लखना कहते थे। भारत के लगभग सभी प्रांतों के गाँवों में अक़्सर ऐसा होता है। व्यक्ति के तत्सम नामों का देशीकरण उसके सामाजिक स्तर के अनुरूप कर दिया जाता है। उसी गाँव में एक और व्यक्ति का नाम लक्ष्मण महतो था। वे उमर में लखना से बड़े थे, पढ़-लिख कर बैंक के किरानी हो गये थे और शहर में रहते थे। थोड़ा-बहुत नाम उनका भी बदला था मगर लोग उनको लखना नहीं बल्कि लछुमण बाबू कहते थे। उनकी आर्थिक दशा थोड़ी ठीक थी इसलिए उनके नाम का देशीकरण नहीं बल्कि तद्भवीकरण हुआ था। लछुमन बाबू इस कहानी के पात्र नहीं है। उनका उदाहरण मैंने सिर्फ़ इसलिए दिया कि एक ही तत्सम संज्ञा का तद्भवीकरण अथवा देशीकरण किस तरह कर्ता के सामाजिक दशा के अनुसार अलग-अलग तरीक़ों से होता है। 

यह कहानी बिहार की है और बिहार बुद्धिजीवियों की धरती रही है, यहाँ का इतिहास गौरवपूर्ण रहा है। माना जाता है कि प्राचीन राजगृह एवं पाटलीपुत्र का इतिहास ही भारत का इतिहास है। सात सौ ईसापूर्व सम्राट ब्रहद्रथ द्वारा स्थापित मगध साम्राज्य का अस्तित्व, घाती पुष्यमित्र शुंग द्वारा अंतिम मगध सम्राट वृहद्र्थ की हत्या के समय 185 ईसापूर्व तक रहा। इसके बाद लंबे समय तक विखंडनों तथा विदेशी आक्रमणों का दौर चला मगर किसी न किसी रूप में पाटलिपुत्र सातवीं शताब्दी तक विभिन्न शासकों तथा उत्तर गुप्त शासकों की राजधानी बनी रही। बिहार की धरती, अंग देश, मगध साम्राज्य, विश्व के सर्वप्रथम लोकतंत्र लिच्छवी गणराज्य जैसी ऐतिहासिकता से गौरवान्वित तथा आचार्य चाणक्य, गौतम बुद्ध, भगवान महावीर जैसे अमर विभूतियों से विभूषित है। 

धरती के विभूतियों पर गर्व अवश्य करना चाहिए मगर उसी धरती पर यदि कुछ कुटिल शुभघाती पैदा हो जाएँ तो उनकी बातें भी होनी चाहिए उन्हें नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए। जिसका अतीत गौरवमय होता है एक दिन उसके बुरे दिन भी आते हैं। जिन दिनों की यह कहानी है उन दिनों बिहार की तत्कालीन दशा निःसंदेह उतनी अच्छी नहीं थी। लोग भूखे नहीं मर रहे थे, भीख नहीं माँग रहे थे, चोरी नहीं कर रहे थे, बदतमीज़ी भी नहीं कर रहे थे। अवसर तथा साधन के अभाव में पलायन शुरू हो गया था। ग़रीबी से जूझने अथवा जीवन स्तर को थोड़ा और अच्छा करने के लिए लोग अपने राज्य से दुसरे राज्यों में मज़दूरी करने जा रहे थे। कुछ पैसे बचाकर घर ला सकें इसलिए जैसे-तैसे निम्न स्तर के जीवन यापन का विकल्प उनकी विवशता थी। एक कमरे में चार-चार लोग गुज़ारा कर रहे थे। सभ्यता से हर किसी को इज़्ज़त देकर, आप करके बातें भी करते थे, मगर यह एक कड़वी सच्चाई है कि भारत में विवश ग़रीब-मज़दूरों को कभी कहीं सम्मान नहीं मिलता। 

सर पर चढ़कर जानवरों जैसे खींच के काम लेना। मज़दूरी कम देना। काम पर रखने का एहसान जताना, जी हुज़ूरी, आगे-पीछे करवाना ऊपर से बात बे बात पर डाँट-फटकार, नीचा दिखाना, ज़लील करना और दबा कर रखना ज़्यादातर भारतीय मालिकों की विशेषता है। सौ में मुश्किल से कोई चार-पाँच मालिक ही होते हैं जो अपने मज़दूरों को भी आदमी समझते हैं उन्हें थोड़ा-बहुत प्यार देते हैं या उनकी भवनाओं को समझने का प्रयास करते हैं। सैकड़े पंचान्यवे मालिकों की नज़र में मज़दूरों की कोई क़द्र नहीं होती। 

बिहार में बेरोज़गारी उन दिनों चरम पर थी। ग़रीब परिवारों के बच्चे जैसे-तैसे मैट्रिक, इंटर अथवा बीए करने के बाद टंकण (टाइपिंग) सीखना शुरू कर देते थे और सरकारी नौकरियों के फ़ॉर्म भरकर तीन-चार सालों तक लगातार परीक्षा देते रहते थे। हर बार सफलता सिफ़ारिश एवं पैसों को मिलती थी, इसलिए उन्हें कभी पता ही नहीं चलता था कि आख़िर उनकी मेहनत ईमानदारी और योग्यता का परिणाम कहाँ चला जाता है? वे कभी पास क्यों नहीं होते? अंत में थककर उन्हें भी गाँव के अनपढ़ मज़दूरों के साथ जाकर दिल्ली, फरीदाबाद या पंजाब जानेवाली रेलगाड़ी में बैठ जाना पड़ता था। वहाँ पहुँचकर उन्हें जो इज़्ज़त मिलती थी वह उनका नहीं बल्कि उनकी नागरिकता एवं उनके गृहराज्य का अपमान होता था। ज़िल्लत, अपमान, उपहास, बिहारी, पुरुबिया, भ‍इया, ऐऽ रिक्शेवाले, ओएऽ बिहारी बाबू, ओएऽ क्या नाम है तेरा? जैसे ये सारे शब्दवाक्य वहाँ उनके लिए सामानार्थी हो जाते थे। 

योग्यता होते हुए भी बिना नकदी और सिफ़ारिश के बिहार में सरकारी नौकरी दुर्लभ थी। भगवान मिलना आसान था मगर नौकरी मिलना कठिन। ऐसे में सबसे आसान उपाय था मैट्रिक पास करने के बाद टीचर्स ट्रेनिंग करके अपने लिए नौकरी पक्का करना। टीचर्स ट्रेनिंग पास कर लेने के बाद सरकारी नौकरी के लिए उम्र सीमा की बाधा समाप्त हो जाती थी। वैकेन्सी होने पर चालीस की उमर में भी मास्टर की नौकरी लग सकती थी। इसलिए पढ़ाई-लिखाई में जिसका बहुत बड़ा लक्ष्य नहीं होता था सामान्यतः वे लोग मैट्रिक पास करते ही पहले टीचर्स ट्रेनिंग कर लेते थे फिर आगे की सोचते थे। टीचर्स ट्रेनिंग में नामांकन मैट्रिक की परीक्षा में प्राप्तांकों के आधार पर होता था। बिहार में 30 प्रतिशत पर थर्ड डिवीज़न पास 45 प्रतिशत पर सेकेंड डिवीज़न 60 प्रतिशत पर फ़र्स्ट डिवीज़न और 70 प्रतिशत पर डिस्टींक्शन मिलता था। अन्य राज्यों के मुक़ाबले चूँकि बिहार का पाठ्यक्रम थोड़ा बड़ा और कठिन था। ज़्यादातर बच्चे थर्ड डिवीज़न से ही पास होते थे। जिसे सेकेंड डिवीज़न मिल जाता था उसे लगता था वह पढ़ने-लिखने में बहुत अच्छा है, जाकर आईएससी (इंटरमिडियट साइंस) में नाम लिखवा लेता था और दो तीन बार लगातार फ़ेल होने के बाद आइए (इंटरमिडियट आर्ट्स) पास करके आगे धक्के खाता था। 

बच्चा जब स्कूल में पढ़ रहा होता है तो महत्वाकांक्षा बहुत बड़ी होती है उसे यह पता नहीं होता कि उसे बनना क्या है सिर्फ़ यही सोचता है कि वह कुछ न कुछ असाधारण ही बनेगा। इसलिए वह कई आसान मगर निश्चित चीज़ों को छोड़कर बिना लक्ष्य के अनिश्चित मंज़िल की तरफ़ आँखें बंद करके चलता रहता है। 

शुरूआती दिनों में ज़्यादातर थर्ड डिवीज़न लोग ही टीचर्स ट्रेनिंग करते थे लेकिन जब बेरोज़गारी की भीड़ बढ़ी तो टीचर्स ट्रेनिंग में भी भीड़ बढ़ गई और फ़र्स्ट डिवीज़न वाले भी नाम लिखवाने लगे। 

लखना स्वयं पाँचवीं तक पढ़ा था। उसका बेटा बाबूलाल स्कूल जाता था मगर पढ़ने में कुछ ख़ास नहीं था। लखना सोचता था किसी तरह उसका बेटा पढ़-लिख कर प्राइमरी स्कूल का मास्टर बन जाए तो उसकी क़िस्मत खुल जाए। इसके लिए उसे चार-पाँच कट्ठा ज़मीन भी बेचनी पड़े तो बेच देगा। 

किस बहाने कब किसकी क़िस्मत खुल जाए किसी को पता नहीं होता। बिहार में कांग्रेस पार्टी को हराकर जनता दल की सरकार बनी और लालू प्रसाद यादव बिहार के मुख्यमंत्री बने। अपने काम से ज़्यादा प्रसिद्धि उनके अपने बालों के स्टाइल एवं बोलने चलने के अंदाज़ों के कारण मिली। शिक्षा के क्षेत्र में उन्होंने सभी को शिक्षा देने के लिए बिहार में चरवाहा विद्यालय खोला जहाँ भेड़, बकरी गाय, भैंस, सूअर इत्यादि चराने वाले बच्चों को शिक्षा दिया जा सके। 

और इधर मैट्रिक की सामान्य परीक्षा में एक नया डिवीज़न जुड़ गया “लालू डिवीज़न”। लालू डिवीज़न का मतलब था उन दबे-कुचले ग़रीब विद्यार्थियों का भी फ़र्स्ट डिवीज़न से पास होना जिन्होंने अपने लिए फ़र्स्ट डिवीज़न कभी सपने में भी न सोचा हो या जिनके पढ़ाई-लिखाई के बारे में बिना कुछ जाने आम धारणा रहती थी कि यह तो फ़ेल ही होगा या बहुत से बहुत ग्रेस पाकर थर्ड डिवीज़न से पास करेगा। बाबूलाल की क़िस्मत अच्छी थी फ़र्स्ट डिवीज़न साढ़े छियासठ प्रतिशत नंबर से मैट्रिक पास कर गया। गाँव से इस बार पाँच बच्चों ने परीक्षा दी थी क़िस्मत सिर्फ़ बाबूलाल महतो की ही चमकी। 

धनेसर बाबू गाँव के धनी एवं प्रभावशाली व्यक्ति थे। इस साल की परीक्षा में उनक पोता रुपेसर भी बैठा था मगर वह छतीस नंबरों से फ़र्स्ट डिवीज़न से चूक गया। धनेसर बाबू को जब पता चला कि लखना का बेटा बाज़ी मार लिया तो भीतर से बहुत दुखी हुए। उन्हें लगा बिहार बोर्ड ने उनका अपमान किया है। उनके रुपेसर को साढ़े छप्पन और लखना के बबूललवा को साढ़े छियासठ यह न्याय नहीं है। इसमें गाँव के किसी आदमी का हाथ होता तो धनेसर बाबू पता नहीं उसके साथ क्या करते मगर यह तो परीक्षा समिति का रिज़ल्ट था। ईर्ष्या और जलन के मारे कई दिनों तक धनेसर बाबू का खाना-पीना सोना सब अशांत हो गया। साधारण ग्रामीण होते तो मन की बात पचास जगह बोल आते। हेडमास्टर से रिटायर्ड थे मन की बात को मन में छुपाना उन्हेंं आता था। बाबूलाल के रिज़ल्ट से उन्हेंं कोई झटका लगा है उन्होंने किसी से ज़ाहिर नहीं होने दिया। उल्टे उन्होंने बाबूलाल को बुलवाकर उसे बधाई एवं अपना आशीर्वाद दिया कि ज़िन्दगी में इससे भी अच्छा करो। 

वैसे तो टीचर्स ट्रेनिंग का क्रेज़ बिहार में समाप्त हो गया था क्योंकि लालू जी ने टीचरों की बहाली के लिए टीचर्स ट्रेनिंग की अनिवार्यता समाप्त करके कंपेटीशन परीक्षा का प्रावधान कर दिया था। सफल अभ्यर्थियों को पहले बहाली और बाद में टीचर्स ट्रेनिंग करने की सुविधा मिल रही थी। मगर धनेसर बाबू इस फेरे में नहीं उलझना चाहते थे। स्वयं टीचर रह चुके थे उन्हें भरोसा था कि यह राजनीति की अस्थायी व्यवस्था है टीचर्स ट्रेनिंग की ज़रूरत कभी समाप्त नहीं हो सकती। 

रुपेसर के नंबर इतने भी कम न थे कि कॉलेज में उसका नाम न लिखाएँ। परन्तु धनेसर बाबू का ध्येय ही था कि रुपेसर पहले टीचर ट्रेनिंग करे फिर आगे की पढ़ाई करे इसलिए दरभंगा में डोनेसन पर नाम लिखवाने के लिए पता करने लगे और एक जगह जुगाड़ भिड़ाकर टीचर्स ट्रेनिंग में रुपेसर का नाम लिखवाने की बात भी कर ली। रुपेसर टीचर्स ट्रेनिंग में नाम लिखवाने दरभंगा चला गया। धनेसर बाबू ने गाँव में बताया कि रुपेसर के नंबर कम थे इस नंबर से किसी अच्छे कॉलेज में उसका नाम तो कहीं लिखा नहीं जाएगा। इसलिए वह दरभंगा में अपने मौसा के सरबेटा के साथ रहकर पढ़ाई करेगा और अगले साल दुबारा परीक्षा देगा। धनेसर बाबू जब यह बात गाँव वालों को बता रहे थे तो गाँव का धनुआ (असली नाम धनुर्धारी) भी वहीं बैठा था, वह बड़ा बड़बोला था, गाँव के लोग उसे मूर्ख समझते थे। मगर अपने आप में वह मूर्ख नहीं था उसने झट से धनेसर चाचा से सवाल कर दिया। 

“चाचा रुपेसर के मौसा का सरबेटा तो रुपेसर का मौसेरा भाई हुआ न?” 

“वह तो है ही धनुआ तू इतना भी नहीं समझता?”

“समझता हूँ चाचा मगर आप उसे रुपेसर का मौसेरा भाई भी तो कह सकते थे।”

“अब रहने दे न धनुआ, मुँह से निकल गया वह निकल गया। बात तो वही है न?” 

“हाँ बात तो वही है धनेसर चा।”

“इसीलिए तो लोग तुझे धनुआ कहते हैं। हर बात समझता है पर देर से समझता है, ई नहीं कि बड़े लोग जब बात कर रहे हों तो चुपचाप सुनते रहें बुरबक कहीं का।”

उसी समय लक्षमण महतो भी धनेसर बाबू से कुछ राय विचार करने पहुँच गया। जैसा कि गाँव के ज़्यादातर लोग अपने बच्चों की पढ़ाई-लिखाई के लिए धनेसर बाबू से ही राय विचार लिया करते थे। 

“गोर लगइछी चच्चा (पाँव पड़ता हूँ चाचा)।”

“आ लखना इधर बैठ कुरसी पर, लालू राज का असली फ़ायदा तो तुम्हीं को मिला है।”

“उ त है चाचाजी भगवान जे कर देवे सब ठीके है।”

“अरे नहीं लखना मज़ाक कर रहा हूँ, तुम्हारा बेटा फ़र्स्ट डिविजन से पास किया बहुत-बहुत बधाई हो। इससे गाँव का इज़्ज़त बढ़ा है।”

“सब आपलोगों का ही आशीर्वाद है नहीं तो हमारी क्या औक़ात है।”

“आशीर्वाद तो हमेशा साथ है। अब जमाना बदल गया है इतना पढ़ाई से कुछ नहीं होगा कुछ हिम्मत कर इसको और आगे पढ़ा।”

“इसीलिए तो आपके पास आया हूँ। आप ही कुछ रास्ता बताइए।”

“अपने बेटा से पूछा है? आगे वह क्या करना चाहता है, वैसे तुम क्या पढ़ाना चाहते हो?” 

“मैं तो चाहता हूँ चाचा कि उसे टीचर टरेनिंग करवा दे उसका जीवन बन जायेगा। बेटा भी वही चाहता है।”

“ना ना ना॥टीचर्स ट्रेनिंग पुराने जमाने का हिसाब था। माहटरी का जीवन कवनो जीवन है? बकरी का चरवाही। मैं तो भुक्तभोगी हूँ, सारा जीवन निकल गया बकरी हाँकते-हाँकते।”

“लेकिन हमने तो मन बनाया है कि आप किसी टीचर टरेनिंग कॉलेज में मेरे बाबूलाल का ईडमिशन करवा दीजिए। ग़रीब का बेटा है देर-सवेर माहटर हो जाएगा।”

“तुमको तो पता भी होगा बिहार सरकार ने टीचर भर्ती का नियम बदल दिया है अब सीधे कंपेटिशन से बहाली होगा, पता है कि नहीं है?” 

“ई सब हमको क्या पता। जनबे करते हैं कम पढ़ल लिखल आदमी आँख रहते भी अन्धा होता है।”

“तो ठीक है मेरी बात मानो। बच्चा इतना अच्छा किया है। अब इसको पटना भेजो। कॉलेज में नाम लिखवाकर कंपेटिशन की तैयारी करता रहेगा। किस्मत साथ दे दिया तो बहुत बढ़िया हो जाएगा। बैंक या रेलवे में ऑफिसर बन सकता है।”

“बात त आप सहीये कह रहे हैं, चलिए हिम्मत करते हैं। न होगा तो थोड़ा बहुत जो जमीन है वो बेच देंगे। बेटा तो पढ़ जाएगा।”

“तो ठीक है जाओ तैयारी करो। रुपया पैसा घटे तो हम मदद कर देंगे। दुनिया से तीन रुपये सैकड़ा लेते हैं तुमको बच्चा पढ़ाना है दो रुपये सैकड़ा दे देना।”

“ठीक है। अच्छा तो हम चलते हैं इस बारे में थोड़ा बाबूलाल से भी बात कर लेते हैं कि ऊ क्या चाहता है।”

लखना जब धनेसर बाबू के दरवाज़े से चला तो दोनों हाथ पीछे पीठ पर बाँधे हुए धनुआ भी उसके पीछे हो लिया। थोड़ी दूर जाकर धनुआ ने लखना से कहा, “एक बात कहूँ लखन भाई।”

“दो बात कह धनुआ।”

“हमको धनेसर चाचा का सुझाव पता नहीं काहे, अच्छा नहींं लगा, तुमको फँसवा देंगे भीतर का बड़ा जरंत आदमी है। हँस-हँस के जो आदमी बोलता है न उससे सावधान रहना चाहिए।”

“रे धनुआ तू साँचो बुरबके रह जाएगा। उ बच्चे को आगे पढ़ाने के लिए कह रहे हैं। कम ब्याज पर पैसे की मदद देने को तैयार हैं और तुमको इसमें जरंतपन नजर आ रहा है। तू भी न खुद मूर्ख है मुझे भी मूर्ख बनाना चहता है।”

“जो आदमी मन का सच्चा बात कह दे उसे दुनिया मूर्ख समझती ही है और जो पेट में कुछ और बाहर कुछ और बोले उसे सलाम करती है। मुझे तो जो लगा वो मैंने बोल दिया आगे तेरी मर्जी।”

“नहीं धनुआ तू धनेसर चाचा से ज्यदा समझदार थोड़े ही है? वे ज्यादा पढ़े-लिखे हैं। हेडमास्टरी से रिटायर हैं, उनके पास चार आँखें है। हम और तुम क्या हैं मूर्ख हैं।”

“बात को समझो लखन भाई। तुम तो जानते हो तुम्हारा बेटा केतना तेज है। लालू डिवीजन से पास हुआ है, पटना में कहीं आगे नहीं चल पाया तो आगे दिकदारी हो जायेगा। लालू डिवीजन का फायदा उठाओ भले सोचे हो टीचर टरेनिंग करवा दो कम से कम नौकरी तो पक्की हो जाएगी।”

“क्यों करवा दूँ टीचर टरेनिंग? लालू डिवीजन भी उसी को आया है जिसमें कुछ दम था। अपने गाँव में ही देख। कहाँ किसी को आया है लालू डिवीजन भी। रुपेसर को भी नहींं।”

“इसीलिए तो तुमको वो चढ़ा रहे हैं तुम अभी नहीं समझते हो तो चढ़ जाओ बाद में उतरना भारी पड़ जाएगा।”

“देख धनुआ तू ज्यादा बुद्धि न लगा। वो तो फिर भी चढ़ा रहे हैं मगर तुम तो गिराना चाहते हो। मैंने तो तय कर लिया है जो धनेसर चाचा कहेंगे वही होगा। वो हमारे शुभचिन्तक हैं देखा नहीं बाबूलाल के पास होने पर कितना खुश हुए।”

“ठीक है मैं भी कहाँ मना कर रहा हूँ मैं तो समझा रहा था। करोगे तो अपने ही मन का पर एक बात याद रखना वो तुम्हारे शुभचिंतक नहीं शुभघाती हैं देखना एक दिन तुम भी कहोगे जो बुरबक कह रहा था वही हुआ। पछताओगे।”

धनुआ के घर का रास्ता जहाँ से मुड़ता था वह अपने घर की ओर मुड़ गया लखना भी अपने घर चला गया। धनुआ सोच रहा था भलाई का ज़माना ही नहीं है। किसी को गड्ढे से बचने को कहो तो वह जानबुझकर गड्ढे में ही पाँव रखेगा। आदमी को जब नुक़्सान होना होता है तो सही सुझाव उसे बाधा नज़र आने लगता है। चलो मेरा क्या है? हो सकता है सचमुच कहीं मैं ही ग़लत होऊँ। मैं भी तो सातवीं फ़ेल ही हूँ। 

जिस आदमी का मन स्थिर नहीं होता उसका सपना कभी पूरा नहीं होता क्योंकि बढ़ा हुआ अस्थिर मन अपने साथ-साथ उसके लक्ष्य को भी अस्थिर करके आगे खिसकाता रहता है। 

लखना अपने बेटे को टीचर ट्रेनिंग करवाने का सपना देखता था। उसके सौभाग्य से जब वह अवसर मिला तो उसे वही टीचर ट्रेनिंग आसान और छोटी नज़र आने लगी। उसने इससे बड़े लक्ष्य को अपना सपना बना लिया। पटना में एडमिशन और ख़र्च का हिसाब नहीं बैठा तो धनेसर बाबू के सुझाव पर ही मुजफ्फरपुर के किसी कॉलेज में बाबू लाल का एडमिशन साइंस विषय के साथ हो गया। डेरा लेकर वह वहीं कहीं रहने लगा। घर में सत्यनारायण भगवान की पूजा हुई पुरे गाँव को भोज खिलाया गया। 

गाँव से शहर में आकर बाबूलाल को अच्छा लग रहा था। शुरू-शुरू में दो-चार नये दोस्त बन गये पैंट-शर्ट, जूते-मोजे, काला चश्मा। बाल भी बढ़ाकर मिथुन चक्रवर्ती के स्टाइल में कटवा लिया। 

महीने में चार सिनेमा भी देखने लगा। शहर में रहने से चमड़ी का रंग भी साफ़ हो गया पाँच महीने बाद जब वह गाँव गया तो उसकी माँ सर पर घूँघट डालकर घर के भीतर चली गई अचानक पहचान ही नहीं पाई। फिर बाहर आई तो देर तक बेटे को निहार-निहार कर ख़ुश होती रही, हँसती रही। सब कुछ बड़ा अच्छा लग रहा था। 

यदि कोई दिक़्क़त थी तो दो ही दिक़्क़तें थीं। पहला तो हिन्दी को छोड़कर फिजिक्स,, केमिस्ट्री मैथ और अँगरेज़ी में कुछ भी समझ नहीं आता था। दुसरी समस्या थी उसी की क्लास में पढ़नेवाली लीली उसे कभी भी नहीं देखती थी। फिजिक्स और केमेस्ट्री की प्रैक्टीकल कक्षा में बाबू लाल हमेशा प्रयास में रहता था कि लीली की मदद के बहाने उससे उसकी कभी बात हो जाए मगर शहर के तेज़ लड़के उसे किसी न किसी बहाने साइड करके उसकी योजना को फ़ेल कर देते थे। 

उधर काफ़ी पैरवी सिफ़ारिश और दौड़ धूप के बाद डोनेशन देकर रुपेसर का एडमिशन टीचर्स ट्रेनिंग कॉलेज में हो गया। धनेसर बाबू उसे पैसे उतने ही भेजते थे जिससे उसका हाथ हमेशा तंग रहे। पढ़ाई का बोझ बिलकुल नहीं था। सिनेमा देखने के पैसे तो होते नहींं थे इसलिए शाम को वह शहर से सिनेमा के पोस्टर और शो कार्ड ही देखकर वापस आ जाता था। 
सुसंपन्न परिवार से होते हुए भी रुपेसर ने टीचर्स ट्रेनिंग के दो साल बड़ी परेशानी अभाव और तंगी में गुज़ारे। जैसे-तैसे सर्टिफ़िकेट मिल गया और वह गाँव लौट आया। गाँव में किसी को कानो-कान भनक भी नहीं लगी कि रुपेसर कहाँ पढ़ रहा था और क्या पढ़कर वापस आ गया। 

उधर बाबू लाल का रिज़ल्ट आया तो वह पाँच में से तीन विषयों में फ़ेल था। उसने अपने पिता को पत्र लिखा कि इस बार वह बहुत मामूली नंबर से रह गया है अगले साल ज़रूर अच्छे नंबरों से पास करेगा। घर पर पढ़ाई नहीं होगी इसलिए उसे एक साल और मुजफ्फरपुर में ही रहने दिया जाए। लखना तैयार हो गया। मगर बाबूलाल जानता था कि साइंस में नाम लिखवाकर उसने बहुत भारी भूल कर लिया है अगले साल भी वह पास नहीं होगा। कॉलेज में लेक्चरर जानबूझकर नहीं पढ़ा रहे थे क्योंकि उनका ट्युशन मारा जाएगा। आर्टस के लेक्चरर अक़्सर कहते थे साइंस वालों को ही ठीक है। सैलरी भी मिलती है और ऊपर से ट्युशन के पैसे भी। साइंस वाले इसका जवाब देते थे हमने पढ़ाई भी तो ट्युशन पढ़के ही की है और आपने बिना ट्युशन के। तो इसमें ठीक क्या है और बे ठीक क्या है? जिसने लगाया है वही तो पायेगा। 

आज की तरह उन दिनों मोबाईल फ़ोन, सोशल मिडिया, विडियो गेम नहीं थे। लड़के-लड़कियों को साथ घूमने की खुली छूट नहीं थी जैसा कि बॅालीवुड की फ़िल्मों में दिखाया जाता था। हाई स्कूल और कॉलेजों में लड़कियों के लिए अलग से कॉमन रूम हुआ करते थे। कॉलेज के बाद बच्चे या तो कमरे में रहकर पढ़ाई करते थे या बन-ठनकर शहर में इधर-उधर जहाँ-तहाँ सिनेमाघरों के आस-पास घूमते थे। बाबूलाल को मुजफ्फरपुर रहने का ख़र्च बड़ी मुश्किल से मिल रहा था वह कहीं घूमने नहीं जाता था क्योंकि घूमने के लिए दोस्त ज़रूरी थे और दोस्ती के लिए पैसे। 

ट्युशन के पैसे उसके पास थे ही नहीं। किताबें लेकर डेरे में पढ़ने बैठता तो आँखों के सामने पहले तो हँसती मुस्कुराती हुई लीली आ जाती थी और उसके बाद पता नहीं कब और कैसे नींद। 

बाबूलाल दूसरे साल भी फ़ेल हो गया। अब इससे ज़्यादा और फ़ेल होने की हिम्मत उसमें नहीं थी। गाँव जाने में उसे डर और लाज दोनों लग रहे थे। किस मुँह से घर जाए। तीन सालों तक उसे ख़र्च देने के लिए उसके पिता ने सरेह का साढ़े तीन कट्ठा खेत बेच दिया था और धनेसर बाबू से 2 रुपया प्रति सैकड़ा चक्रवृद्धि ब्याज पर ग्यारह हज़ार रुपये क़र्ज़ा ले लिया था। अब आगे और ख़र्च देने की गुंजाईश भी नहीं थी। बाबूलाल ने सोचा अब मैं साइंस से इंटरमिडियट पास होकर भी क्या करूँगा। पास होते ही कोई नौकरी तो रखी नहीं है जिससे आमदनी शुरू हो जायेगी और सारे क़र्ज़ चुका दूँगा। पढ़ाई में हासिल कुछ हुआ नहीं, साढ़े तीन कट्ठा खेत गया, ग्यारह हज़ार का क़र्ज़ और 220 रुपये प्रति महीने का ब्याज भी शुरू है। सब कुछ सोच विचार करने के बाद बाबूलाल एक दिन पंजाब खटने जा रहे मज़दूरों के साथ ट्रेन में बैठ कर लुधियाना चला गया। तीन महीने तक आस-पास के गाँवों में कहीं खेतों में काम करता रहा। खेती का सीज़न समाप्त होने के बाद उसके साथी मज़दूर लौटने लगे तो वह शहर लुधियाना जाकर किसी धागा फ़ैक्ट्री में काम करने लगा। सालभर बाद जब वह गाँव लौटा तो कुल साढ़े तीन हज़ार रुपये बचाकर लाया था। धनेसर बाबू को पता चला कि लखना का बेटा पढ़ाई छोड़कर पंजाब कमा रहा है तो वे मन ही मन बहुत ख़ुश हुए। मगर ऊपर से अफ़सोस प्रकट करने लखना के घर की तरफ़ निकल पड़े। 

उनके सालभर का ब्याज 2640 रुपये हो गया था, असली उद्देश्य ब्याज के उन पैसों की वसूली थी। ग्यारह हज़ार रुपये उन दिनों बहुत बड़ी रक़म थी। मज़दूरों की तनख़्वाह पाँच सौ रुपये प्रतिमाह भी नहीं होती थी। इतनी मोटी रक़म ब्याज पर देने के पीछे धनेसर बाबू की एक योजना थी। उनकी घराड़ी से सटे लखना का चार कट्टा ज़मीन था। लखना यह ज़मीन किसी भी क़ीमत पर किसी को बेचनेवाला नहीं था। उसे यदि उसके बेटे को कॉलेज में पढ़ाने के सपना नहीं दिखाया जाता तो वह रुपया कभी उधार नहीं लेता। उधार नहीं लेता तो ब्याज में नहीं दबता और ब्याज में नहीं दबता तो ज़मीन का मोह नहीं छोड़ता। धनेसर बाबू ने बाप बेटे दोनोंं को समझाया। “देख लखना मुझे दुख है कि तुम्हारे बेटे की पढ़ाई पूरी नहीं हुई और वह मजदूरी करने लगा। मगर क्या करोगे गरीबों को सपने देखने का अधिकार नहीं है जो देखने का साहस करता है उसे कीमत चुकानी पड़ती है। मुझसे तो जितना बन पड़ा मदद करने की कोशिश की। क्या करें सफलता तुम्हारी किस्मत में नहीं थी। तुमने हिम्मत किया मैं तुम्हारी साहस का दाद देता हूँ और कुछ मेरा दिल भी दयालु है इसीलिए मैंने चक्रवृद्धि ब्याज न लगाकर साधारण ब्याज ही लगाया है। तुमने भी देख ही लिया सालभर की कड़ी मेहनत और कटौती के बाद बाबू लाल मात्र साढ़े तीन हजार रुपया ही बचा पाया है। इस तरह तो सालभर की बचत में सिर्फ़ ब्याज ही भर पाओगे। और इसी तरह यदि बीस बरस तक भी ब्याज भरते रहोगे फिर भी मूलधन खड़ा का खड़ा ही रहेगा। यदि तुम चाहो तो मेरे बगल में जो तुम्हारा चार कट्ठा जमीन है उसकी कीमत ज्यादा से ज्यादा दस हजार होगा। मैं वह ग्यारह हजार रुपये में ले लूँगा। तुझे भी एक हजार का फायदा हो जायेगा।” 

क़र्ज़े के रुपये के बदले ज़मीन बेचने की बात सुनकर लखना का कंठ और ख़ून दोनों सूख गए। दिन में ही तारे नज़र आ गये। उसे लगा जैसे उसके शरीर में कोई जान ही नहीं है वह ज़मीन पर बैठ गया। बेटे ने कहा तो उठकर थोड़ा पानी पिया और खाट पर लेट गया। उसने हिसाब लगाया तो निष्कर्ष यही पाया कि ज़मीन तो उसे हर हाल में धनेसर बाबू को देनी ही पड़ेगी। 

क्योंकि धनेसर बाबू के घर के पिछवाड़े कोई और तो सचमुच उसे दस हज़ार भी नहीं देगा। धनेसर चाचा अभी ग्यारह हज़ार दे रहा है। इससे पहले कि कोई उनका विचार बदलवाये, कल ही रजिस्ट्री करके क़र्ज़े से मुक्ति पा लेना ठीक रहेगा। कल ही डुमरा जाकर यह काम कर दूँगा। 

लेकिन एक बात समझ में आ गयी धनेसर चाचा सचमुच मीठी कटार है। बड़प्पन की आड़ लेकर सीधे लोगों को ऐसा फँसाते हैं कि लाखों में न होने वाला काम हज़ारों में हो जाए और वह आदमी उनके एहसानों तले भी दबा रहे मुँह न खोले कोई आवाज़ न उठाए। पुराने गेहुअन साँप का काटा आदमी उठकर पानी भी नहीं पीता। लखना की दशा भी पुराने गेहुअन के काटे जैसी हो गई। धनेसर बाबू का रंग भी गेंहुआ था लखना के दिमाग़ में उनके चेहरे की जगह फण काढे गेंहुअन साँप नज़र आने लगा। 

यही ज़मीन यदि मैं क़र्ज़े में न फँसता तो पच्चीस हज़ार में भी उन्हें नहीं देता। मगर अब तो फँस चुका हूँ। यह सब सोचते-सोचते लखना को नींद आ गई वह बड़बड़ा रहा था। उस दिन धनुआ बिलकुल सही कह रहा था। काश मैंने उसकी बातों पर ठंडे मन से विचार किया होता। धनुआ को लोग बुरबक कहता है बुरबक तो मैं हूँ। अब मुझे समझ में आया लोग मूर्खता की सराहना क्यों करते हैं ताकि मूर्ख फूलकर आदमी न रहे बेंग हो जाए और आसानी से तीसी के झाड़ पर चढ़ जाए। और सच बोलने वाले को मूर्ख अथवा पागल इसलिए कहते हैं कि फँसने वाले लोग उसकी बातों को समझकर कहीं समय से पहले, सचेत या सावधान न हो जाए। आमतौर पर लखना खर्राटे लेकर सोता था। मगर उस दिन उसके खर्राटे ग़ायब थे। सोते-सोते वह चौंकता था और फिर सो जाता था। 

इस बात को बीते लगभग तीस बरस हो चुके। दस साल पहले धनेसर बाबू का स्वर्गवास हो गया। लखना पचहत्तर वर्ष का हो चुका है। गाँव में ही रहता है उसे कुछ दिखाई नहीं देता। इतने पैसे हैं नहीं कि लहान जाकर आँख बनवा आए। धनुआ गाँव से गुज़रने वाली जानकी डोली परिक्रमा के साथ चला गया तो वापस नहीं लौटा। कुछ लोग कहते हैं कि वह साधू भेष में एक बार जनकपुर में दिखाई दिया था। रुपेसर मोतीहारी के किसी हाईस्कूल में इतिहास का वरिष्ठ शिक्षक है डेढ़ कट्ठा ज़मीन लेकर मोतीहारी में ही घर बना लिया है। एक बेटा एलपीयू पंजाब से बीएससी आईटी की पढ़ाई कर रहा है और दूसरा राजस्थान के कोटा में रहकर आईआईटी जी की तैयारी। बाबूलाल डोंबीवली ईस्ट एमआईडीसी के एक कपड़ा रंगाई फ़ैक्ट्री में पैकिंग सुपरवाइज़र है। वहीं आसपास की एक स्लम बस्ती में किराये के एक ही कमरे में पत्नी और तीन बच्चों के साथ रहता है। कोविड में उसकी भी नौकरी चली गई थी। मजबूरी रोने पर छह महीने बाद कंपनी ने पुरानी तनख़्वाह से पाँच हज़ार कम पर दुबारा रख लिया। उसका दोनोंं बेटे वहाँ के सरकारी स्कूल से बारहवीं पास कर चुके हैं। आगे पढ़ नहीं सकते क्योंकि मुफ़्त शिक्षा बारहवीं तक ही थी। दोनोंं में से कोई अभी तक कोई काम भी नहीं करता इधर-उधर घूमते हैं। बाबू लाल को भरोसा है कि उसके बच्चे कमाने लगे तो वह मुंबई छोड़कर माँ बाप की देखभाल के लिए गाँव चला जाएगा। खेती तो रही नहीं सब्ज़ी बेचकर वहीं गुज़ारा करेगा। बीस हज़ार की तनख़्वाह में यहाँ तो कुछ होता नहीं। 

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टिप्पणियाँ

डॉ वीएन प्रसाद 2022/06/17 08:36 AM

यह रचना बिहार के राजनीति और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को चित्रित करते हुए सामाजिक मनोदशा को व्यक्त करता यथार्थ बोध से प्रेरित है। पर यह सिर्फ ग्रामीण ही नहीं सामान्य मानवीय स्वभाव में दिखाई देता है ।लेखक द्वारा मानव मानस बोध को उद्घाटित करने का प्रयास किया गया है। धन्यवाद । साहित्य के लिये सतत् ऐसे प्रयास बनाये रखें । बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं ।

प्रियंका सिंह 2022/06/12 09:10 AM

समाज में सचमुच धनेसर बाबू जैसे बहुत से लोग होते हैं जो लक्ष्मण महतो जैसे सीधे-सादे लोगों को सही रास्ते से भटकाकर गलत रास्ते पर धकेल देते हैं जहाँ उसे नुकसान के सिवा फायदे की कोई संभावना न हो। और खुद वही करते हैं जो दुसरों के लिए गलत बताते है। समाज की एक सचाई को उजागर करती हूई कहानी बहुत सुन्दर बनी है। लेखक को बधाई।

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