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माहटर साहब का मकान

रामेश्वर महतो जब हेडमाहटरी से रिटायर्ड हुए तो उन्होंने सोचा रिटायरमेंट के पैसों से सबसे पहले गाँव में एक घर बना दिया जाए, जैसा कि उन दिनों अक़्सर, सरकारी नौकरी से रिटायरमेंट के बाद लोग करते थे। पुराना घर जर्जर हो चुका था। साधारण किसान परिवार था खेती ज़्यादा नहीं थी। मास्टरी की नौकरी के बुते ही घर और बच्चों की पढ़ाई-लिखाई चल रही थी वरना उनकी बराबरी एवं देयादी (गोतिया) के दुसरे किसान मुश्किल से अपना गुज़ारा कर रहे थे। 

परिवार बड़ा था, चार बेटे, दो बेटियाँ। दोनों बेटियों की शादी उनके कम उम्र में ही हो चुकी थी। एक बेटे की शादी भी हो गई थी जिससे दो पोतियाँ थीं। बच्चे अभी या तो पढ़ रहे थे या बेरोज़गार थे। एक आमदनी और गदेल का ख़र्च। आर्थिक दशा तंग थी। मगर बच्चे साफ़-सुथरे कपड़े पहनते थे। पाँव में चप्पल, बाल क़रीने से बँधे हुए अथवा कंघी किये हुए होते थे। कुल मिलाकर तंगहाली में भी समृद्ध दिखने वाला सभ्य रहन सहन था फटेहाली नहीं थी। 

गाँव के कुछ अन्य समृद्ध लोग जिन्होंने मास्टर साहब के पिताजी को मज़दूरी करते और फटेहाली में जीवन गुज़ारते देखा था उन्हें मास्टर साहब की इस तरक़्क़ी से बड़ी जलन रहती थी। मास्टर साहब से जलने वालों में उनसे दस साल छोटे से लेकर उसकी बराबरी एवं उनसे बड़े, सभी उम्र के लोग थे। उन्हें लगता था कि यह फटेहाल आदमी का बेटा माहटरी की नौकरी पाकर उनकी बराबरी में आ बैठा है जो उन्हें बर्दाश्त नहीं था। वे लोग समझते थे कि रमेसरा (मास्टर रामेश्वर) की असली जगह वास्तव में वहीं है जहाँ उसका बाप था। मास्टर रामेश्वर के बच्चों के शरीर पर साफ़-सुथरे कपड़े वास्तव में उनके मुँह चिढ़ाते थे। 

मास्टर साहब के स्कूल में पढ़ाने वाले मौलवी साहब के बड़े भाई बड़े नामी राजमिस्त्री थे। मास्टर साहब ने उन्हीं से राय विचार लेकर चार कमरे वाले मकान का कच्चा नक़्शा बनवाया था। उनकी योजना थी कि उसी मकान के ऊपर धीरे-धीरे साल दो साल में एक मंज़िल और बना दी जाएगी जिससे कमरे आठ हो जायेंगे जो उनके चार बेटों एवं आए-गए अतिथि मेहमानों के लिए पर्याप्त होगा। जिस दिन यह मकान पूरा बनकर तैयार होगा गाँव में सबसे पहला दो मंज़िला मकान भी यही होगा। इसके बाद जो पैसे बच रहे थे, वे अपने पास अपने खाते में रखना चाहते थे जो ज़रूरत पड़ने पर अपनी इच्छानुसार ख़र्च कर सकें अथवा संभवतः यह सोचकर कि हाथ में पैसे रहेंगे तो बच्चे भी उनकी बातों में रहेंगे। 

हमदर्दी के मीठे बोल प्रायः बड़े-बड़े सतर्क व्यक्तियों को भी अपने झाँसे में ले लेता है। मास्टर साहब जीवन भर फूँक-फूँक कर क़दम रखने में क़ामयाब रहे थे मगर रिटयरमेंट के बाद जब खाते में पैसे की गरमी आई तो सोचने की शक्ति थोड़ी कमज़ोर पड़ गई। भावुक व्यक्ति थे किसी को नाराज़ करना नहीं चाहते थे। ऐसे व्यक्ति, नाराज़गी का नाटक करनेवाले चतुर लोगों के झाँसे में बड़ी आसानी से फँस जाते हैं। 

गाँव का ही धनई सिंह दुष्ट प्रवृति का असभ्य आदमी था। उसमें शिक्षा और शिष्टाचार की कमी थी इसलिए अक़्सर अपने से बड़े बुज़ुर्गों के साथ भी गाभी (उपहासपूर्ण मज़ाक) करता रहता था। गाँवों में अपने बाप-दादे की उम्र के लोगों के साथ गभियाना अशिष्टता मानी जाती है, इसलिए “भर घर देओर भतार से ठठ्ठा” वाली कहावत उस पर चरितार्थ होती थी। धनई गाँव के कई लोगों के सही फ़ैसलों में टाँग अड़ाकर उसे गुमराह कर चुका था तथा क‍इयों के हित बनकर उसे नुक़्सान पहुँचाने का अच्छा अनुभव प्राप्त कर चुका था। वह वर्षों से किसी मौक़े की तलाश में था कहाँ कौन ऐसा अवसर मिले जिससे वह मास्टर साहब को भी नुक़्सान पहुँचाए। मास्टर साहब ने उसकी मीठी बातों में आकर उसे अपनी सारी योजनाएँ बताने की भूल कर दी। अब धनई अपनी बुद्धि से मास्टर साहब की योजनाओं को ध्वस्त करने की नई व शातिर योजनाएँ बनाने लगा। 

मास्टर साहब की मूल योजना थी सीमेंट कंक्रीट की ढली हुई पक्की नींव पर पिल्लर देकर पाँच इंच दिवाल की चुनाई और ऊपर से पक्के छत की ढलाई करना। गाँवों में यह तकनीक उन दिनों नई थी और बहुत कम ही लोगों को इस तकनीक के बारे में जानकारी थी। साधारण मकानों के लिए शहरों में भी अभी तक यह तकनीक उतना लोकप्रिय नहीं थी। मगर मौलवी साहब के भाई कलकत्ता से लेकर आरा छपरा बलिया कई शहरों में मकान बना चुके थे। उन्होंने मास्टर साहब को अपना छोटा भाई समझकर आश्वस्त कराया था कि यह तकनीक बहुत सफल है मकान की लागत भी अपेक्षाकृत कम है तथा मकान भी सुंदर और टिकाऊ बनता है। एक बार पहली मंज़िल तैयार हो जाने के बाद दुसरी मंज़िल की लागत और भी सस्ती पड़ती है। मास्टर साहब जानते थे कि बड़े मौलवी कभी झूठ नहीं बोलते तथा कभी ग़लत सुझाव नहीं देते इसलिए उन्होंने उसी योजना पर काम करने का निर्णय लिया था। 

उनकी यह मूल योजना उनके चारों बच्चों पत्नी, बहू व परिवार के सभी सदस्यों को बहुत पसंद थी। वे बड़े ख़ुश थे कि अब तक का जीवन भीत खपरैल की बिना खिड़की रोशनदान वाले जर्जर मकान में गुज़री है, अब उनके पास ईंट का पक्का हवादार छतऊ मकान होगा जिसकी छत पर संध्या को बैठ सकते हैं या गर्मी के दिनों अंजोरिया रात्रि में देर तक चाँदनी रात का आनंद ले सकते हैं यहाँ तक कि कृष्णपक्ष की अँधेरी अथवा अमावस्या रात्रि में भी सोने से भरी औंधे थाल में तारे निहारने का आनंद लिया जा सकता है। और सबसे बड़ी ख़ुशी यह थी कि गाँव में सबसे पहला दो मंज़िला मकान उन्हीं का होगा जिसे देखने गाँव भर के लोग, बच्चे और महिलाएँ कई महीनों तक आते रहेंगे। और वे सभी को गर्व के साथ दिखा-दिखा कर ख़ुश होंगे। गाँव में पुराने हिसाब से कड़ी शहतीर की छत वाले चार-पाँच मकान पहले से अवश्य थे मगर ढली हुई छत वाली अथवा दो मंज़िला मकान कोई नहीं था। 

एक दिन धनई सिंह सिंह गाँव के दो चार बुरबक ढहलेल (मूर्ख बेढंगा) क़िस्म के लोगों के साथ मास्टर साहब के दरवाज़े पर आकर जम गया। बड़ी देर तक इधर-उधर की बेकार बातें करता रहा। मास्टर साहब से गभियाता रहा मगर जिस उद्देश्य के लिए वह आया था उसकी बातें जानबूझकर शुरू नहीं कर रहा था। वह इंतज़ार कर रहा था कि मकान की बात मास्टर साहब स्वयं ही शुरू करे तो ठीक रहेगा। ताकि बाद में उसके ऊपर कोई बात आए तो वह ताल ठोककर कह सके कि मैंने तो अपने तरफ़ से कोई सुझाव नहीं दिया था। पूछने पर ही अपना विचार रखा था। परन्तु उसके साथ आए हुए ढहलेलों को सब्र नहीं थी। उसमें से एक ने बात शुरू करते हुए पूछ ही लिया, “माहटर साहेब सुनली हऽ घर बनेवला हई।” (मास्टर साहब मैंने सुना है कि आपका मकान बनने वाला है)।

“हँऽ बननेवाला तो है,” मास्टर ने जबाब दिया।

धनई सिंह को बोलने का मौक़ा मिल गया। वह मास्टर साहब से दस साल छोटा था मगर उपदेशात्मक उपेक्षित अंदाज़ में ऐसे बोला जैसे वह दस साल बड़ा हो।

“मास्टर जी करोगे तो अपने ही मन की, मगर वह ढलाई वाला नींव और पिल्लर पर पाँच इंच का दिवाल अच्छा नहीं होगा। पैसा भी लगेगा मकान भी कमजोर रहेगा।”

“ऐसा नहीं है धनई मैंने बड़े मौलवी से पूरा खरिया (अच्छी तरह पता करना) लिया है। पिल्लर वाला मकान बहुत मजबूत होता है।”

“आपने तो देखा ही है मुखिया जी के बीस इंच दिवाल में भी खरसा गाँव के चोरों ने सेंध मार दिया था। पाँच इंच का दिवाल क्या है?“

“गिलावा (गीली मिट्टी) पर जोड़ा हुआ बीस इंच दिवाल भले ही कोई बिना आवाज के खोद दे मगर सीमेंट पर जुड़ा हुआ पाँच इंच तोड़ने के लिए छेनी हथौड़ी चाहिए। ठन्न ठन्न बोलेगा।”

“ठीक है चोर का डर न सही मकान का जड़ तो कमजोर रहेगा।”

“रहना तो नहीं चाहिए मौलवी भइया को आरा छपरा बलिया कई-कई जिलों में मकान बनाने का अनुभव है।”

“वह तो ठीक है लेकिन आरा छपरा बलिया जिला का माटी और अपने सीतामढ़ी जिला के माटी में भी तो फरक है।”

“क्या फरक है?”

“अब वहाँ के माटी का तो मुझे नहीं मालूम मगर अपने जिला में तो हर साल बाढ़ आता है। अपने गाँव में भी पानी चढ़ आता है। नींव मजबूत होना चाहिए नहीं तो जनबे करते हैं।”

“जनबे क्या करते हैं ? गाँव में इतना भीत का मकान है बाढ़ में एको गो गिरा है आज तक?”

धनई थोड़ी देर के लिए चुप हो गया। उसे लगा कि मास्टर का मन एक बार में अकेले बदलना कठिन है। इसलिए आज के लिए इतना ही बहुत है सोचकर उसने बात बदल दी।

“अच्छा मास्टर साहेब तो आपको जो बढ़िया लगे वही किजिए। पैसा आपका लगेगा हमारा क्या है? हम तो गाँव के हित समाज के नाते जो अच्छा लगा वह कह दिये। मकान बार-बार नहीं बनता है। मेहनत का पैसा है सोच समझकर बनाना चाहिए कि बाद में पछताना न पड़े। मगर आप तो बड़े मौलवी की बात मानोगे वह आपका ज्यादा हितैषी है।”

मास्टर साहब को टोंट सुनने की आदत नहीं थी। उनको लगा शायद धनई का दिल दुखा है। जो वे नहीं चाहते थे। वे बात को सँभालते हुए बोले, “अरे नहीं धनई आप हमारे कोई दुश्मन थोड़े ही हैं? न ही मौलवी हमारा कोई बहुत बड़ा हितैषी है। हम गाँव समाज से बाहर नहीं है। मकान तो राय विचार और सोच-समझ के ही बनायेंगे। अभी तो हम राय विचार ही कर रहे हैं।”

धनई के मन में थोड़ी सी उम्मीद जगी उसे अपनी मंशा सफल होती हुई दिखाई देने लगी। उसे लगा कि चार आना काम हो गया है अब बाक़ी बारह आने होते देर नहीं लगेगी जैसे मकान की समूची नींव तैयार हो जाने के बाद आगे का काम आसान हो जाता है। उसने सोचा कि अब यहाँ एक पल भी ठहरना बात बदलने का जोखिम लेना होगा। अपनी घड़ी की तरफ़ निहारते हुए उसने मास्टर साहेब से बोला, “देखिए न बातों बातों में समय का पता ही नहीं चला डेढ़ घंटा यहीं बैठ गया। बाबूजी खिसिया (ग़ुस्सा होना) रहे होंगे। अब मैं चलता हूँ ।”

कहकर वह तेज़ी से निकल गया। मास्टर साहब भी वहीं कहीं टहल गये। चारों ढहलेल (बेढंगे) अब भी वहीं बैठे रहे। वे आपस में बातें कर रहे थे।

“हाँ मकान का नेंव (नींव) तो मजबूत होना ही चाहिए।”

“आउर क्या बिलकुल मजबूत होना चाहिए। लगता है माहटर को मौलवी ने उल्टा पढ़ा दिया है।”

“डांगडर (डॅाक्टर) साहब का मकान बना था तो हमने देखा था। भर मानुष (मनुष्य की लंबाई भर) नेंव खुदाया था। उतना नींचे से बीस इंच का नेंव उठाया गया था जो धरती से ऊपर भर डाँड़ (कमर तक) और जोड़ा गया तब जाकर उसके ऊपर पन्द्रह इंच का दिवार जोड़ा गया। चालीस साल से ऊपर हो गया होगा देखो मकान जस का तस है।”

मास्टर साहब वहाँ से ज़्यादा दूर नहीं गये थे। थोड़ी ही दूर पर खड़ा होकर खैनी मल रहे थे। ढहलेलों की सारी बातें उन्हेंं वहाँ तक साफ़-साफ़ सुनाई पड़ रहीं थीं। सोच रहे थे, धनईया भी मुझे ग़लत कह गया है। ये मूर्ख आदमी है यह भी मुझे ही ग़लत कह रहा है। मौलवी साहब वाला मेरा फ़ैसला कहीं ग़लत तो नहीं है? 

उधेड़-बुन में मास्टर साहेब को रात में ठीक से नींद नहीं आई। सुबह-सुबह पत्नी और बच्चों से राय विचार लिया तो सभी ने एक सुर से उनके उसी फ़ैसले को सही बताया जो उन्होंने मौलवी साहब की मदद से लिया था। मास्टर साहब का असमंजस कम होने के बजाए और बढ़ गया, कई दिनों तक मन ही मन परेशान रहे। धनई भी कई बार मिला मगर उसने इस सम्बन्ध में कोई बात नहीं की। 

उधर धनई ने मास्टर साहब की परेशानी को उनके चेहरे पर पढ़ लिया था। उसे मालूम था कि उसका मंतर मास्टर जी के ऊपर काम कर गया है अब उनकी परेशानी को और बढ़ानी है तो समास्या के सम्बन्ध में बातचीत से बचा जाए। 

वह मास्टर साहब के सामने भले ही ज़ाहिर करता था कि मकान कैसे भी बने उसकी कोई दिलचस्पी नहीं है मगर गाँव के ही वकील साहब से इस बात की ख़ूब चर्चा करता था। उसे मालूम था कि वकील भी मास्टर को नीचे गिराने में कोई अवसर नहीं गँवायेगा। उसकी सोच भी धनई से ही मिलती थी। ये दोनों अपनी योजना बना ही रहे थे कि एक दिन धनेसर बाबू जो बिना बुलाये कहीं जाते नहीं थे मास्टर रामेश्वर से मिलने उनके दरवाज़े पर पहुँच गये। धनेसर बाबू भी हेडमास्टरी से ही रिटायर्ड थे तथा उम्र में रमेश्वर मास्टर से लगभग दस वर्ष बड़े थे। इसलिए मास्टर रामेश्वर उनकी बड़े भाई की तरह बड़ी इज़्ज़त किया करते थे। वे शिक्षक भी उन्हीं की प्रेरणा से बने थे उन्हें अपना आदर्श और उनकी बातों को पत्थर की लकीर मानते थे। धनेसर बाबू ने कहा, “क्या रे रमेसर ई मैं क्या सुन रहा हूँ? तू पढ़-लिखकर मास्टर बना हजारों बच्चों को पढ़ा-लिखाकर कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया हेडमास्टरी से रिटायर भी हो गया फिर भी तुझे बुद्धि नहीं हुई। तू उस अनपढ़ मौलवी की बातों में कैसे आ गया? उ शहर का मिस्त्री है गाँव में कहीं वैसा मकान बनता है?“

“नहीं बड़े भाई अभी फाइनल फैसला नहीं किया है। उस दिन धनईया भी यही बात कह रहा था। और तो और ऊ चारों ढहलेलवा भी मेरा मजाक उड़ा रहा था । मैं तो खुद ही पन्द्रह दिनों से बड़ी उलझन असमंजस में हूँ क्या करूँ न करूँ? मैं तो राय विचार के लिए आपके पास आने ही वाला था। अच्छा हुआ कि आज आप ही आ गये।”

“तो क्या सोचा है कैसा घर बनवाना है?“

“जो सोचा था वह सब खतम हो गया अब आगे बताइए कैसे बनवाना है? वैसे ही बनेगा।”

“तो सुनो युग जमाना खराब है। चार बेटे में एक जगह पक्का मकान मत बनाओ। आज मिल्लत है तो सब ठीक है जिस दिन चार बहुएँ आ गई यह मकान काल हो जाएगा। इस लायक भी नहीं रहेगा कि तोड़कर आपस में ईंटों का बँटबारा भी कर सकें।“

“हाँ बड़े भाई ई तो हमने सोचा ही नहीं था। कल भाइयों का आपस में नहीं बना तो मकान का बँटबारा कैसे होगा? कंक्रीट का मकान तोड़ने पर तो मलवा के सिवा कुछ भी नहीं निकलेगा।”

“इसीलिए कहता हूँ काम ऐसा करो जिसमें बर्बादी न हो। कल को भाइयों में अनबन हो तो बाँटने के लिए कम से कम ईंट तो सलामत निकले।“

”बात तो सोलह आने सही है मैं इस पर विचार करूँगा।“

“विचार मत करो काम करो। पाँच फीट नीचे से बीस इंच का नींव लो। उसके ऊपर जमीन से और चार फीट पन्द्रह इंच और उसके ऊपर कम से कम चउदह फीट दस इंच का दीवार जोड़ो। सारी चिनाई चिकनी मिट्टी से करवाना और ऊपर से खपरा डाल देना। पलास्टर होने के बाद चार कोट चूने की पुताई करवा देना। नीचे सफेद रंग ऊपर लाल खपरा । मकान ऊँचा रहेगा दूर से ही राज दरबार जैसा दिखेगा। बरघारे में ठाठ से आराम कुरसी लगाकर मुखिया जी की तरह टाँग फैलाकर बैठना।”

रामेश्वर मास्टर साहब को धनेसर बाबू की यह योजना बहुत पसंद आई। इतनी दूर तक तो उन्होंने कभी सोचा ही नहीं था। मन ही मन उन्होंने वह छवि भी देख लिया कि सफ़ेद कुरता-धोती पहने कंधे पर हरे कोर वाला गमछा डाले आराम कुर्सी पर बैठे हुए वे कितने ठाठ में दिख रहे हैं। वाह! उनका सारा असमंजस सारी चिंता दूर हो गई आज वे बड़े ख़ुश और हल्का महसूस कर रहे थे।

“अब चाहे बच्चे न मानें या सूरज भले पश्चिम से निकलना शुरू कर दे मकान वैसे ही बनेगा जैसा धनेसर भइया ने कहा है।”

मास्टर साहब धनेसर बाबू को पहुँचाने उनके घर तक गये। वापसी में ईनार के पास बैलगाड़ी के मुहरे पर बैठकर खैनी मलते हुए धनुआ मिल गया। मास्टर साहब उसकी अनदेखी करके आगे बढ़ रहे थे तब तक धनुआ ने पीछे से प्रणाम कर दिया। 

“प्रणाम माहटर साहेब।“

“खुश रह धनुआ क्या समाचार है?“

“समाचार तऽ सब ठीके है माहटर साहेब ई धनेसर चचा के साथे आप जा रहे थे। तऽ देख के चिन्ता हो गया। आप घर बना रहे हैं देखियेगा तनि ध्यान से न तऽ ई सब काम बिगाड़ने वाला लूहड़ (बदमाश) लोग है।“

मास्टर साहब को धनुआ का यह व्यवहार अच्छा नहीं लगा। जिसकी वो इतनी इज़्ज़त करते हैं उसे कोई लूहड़ कह दे। उसे डाँटना चाहते थे मगर मूर्ख समझकर अनदेखी करते हुए बोले। 

“तू इसकी चिंता न कर धनुआ हम अपनी बुद्धि से ही काम करेंगे।”

“फिर तो बहुत अच्छा मास्टर साहब।”

धनुआ सोच रहा था पढ़े-लिखे लोग कितना समझदार होते हैं। ज़रा सा इशारा भी तुरंत समझ जाते हैं। इसीलिए तो वह पढ़े-लिखे लोगों की इज़्ज़त करता है। 

मास्टर साहब के बच्चे बड़े हो गये थे। एक की शादी हो गई थी दो बच्चियों का बाप भी बन गया था मगर सभी डरते आज भी उतना ही थे जितने बचपन में। परिवार में किसी को भी धनेसर बाबू का सुझाया रास्ता पसंद नहीं था मगर किसी में मास्टर साहब का विरोध करने का साहस भी नहीं था। एक महीने बाद विजय दशमी के दिन घर का नींव खुदना शुरू हुआ। सब कुछ ठीक वैसे ही होता रहा जैसे धनेसर बाबू ने बताया था। कभी कभी धनेसर बाबू निरीक्षण के लिए आते भी थे और थोड़ा-बहुत ख़र्चा बढ़ाने वाला सुझाव दे जाते थे। मिट्टी पर चिनाई होनेवाले मकान की जुड़ाई में समय बहुत लगता है। क्योंकि गिलावा यदि ठीक से न सूखा हो तो उसके ऊपर दीवार की जुड़ाई नहीं हो सकती। सरदी शुरू हो गई थी धूप में वो गरमी नहीं थी। समय ज़्यादा लग रहा था और दिन भी छोटा हो रहा था। ख़र्चा बढ़ रहा था। यह बात धनेसर बाबू को अच्छी तरह पता था पर मास्टर रामेश्वर को इसका कोई पूर्वानुमान नहीं था। मज़दूरी का ख़र्च लगभग दो गुणा लग गया। आठ-नौ महीने बाद सभी दिवालें पूरी हुईं और खपरा डालने का समय आ गया। खपरा डालने के लिए दस फीट दिवाल के बाद से ही तिकोना जुड़ाई शुरू होनी चाहिए थी जिसमें चउदह फीट पहुँचते-पहुँचते धरन और छानी के हिसाब से ज़रूरी ढलाव बन जाए। मगर मिस्त्री अनाड़ी था। दिवाल को चारोंं तरफ़ से सीधा चउदह फीट पहुँचा दिया। अब दो उपाय थे या तो चार फीट चारों तरफ़ से तोड़कर दुबारा बनाया जाए अथवा मकान को चार फीट और उँचा कर दिया जाए। अनाड़ी लोग अपनी ग़लती दुसरों पर थोपने में बड़े तेज़ होते हैं मिस्त्री ने यह ग़लती मास्टर साहब पर थोप दी और मास्टर साहब ने मान भी लिया। किसी बुद्धिमान आदमी से कोई काम बिगड़ जाए तो मूर्खों को भी ज्ञान देने का अवसर मिल जाता है। गाँव के ढहलेलों में से दो ढहलेल भी मकान बनाने में हुई इस भूल को देखने आ गया। वे आपस में बातें कर रहे थे। 

“ई मास्टर बुझाइछउ सेथिये बुढ़ा के रिटायर भे गेलउ, एकरा कोनो अक्कील उक्कील न हउ।”

“हँ हो, ई अप्पन मकान खराब कऽ लेलको तऽ लड़िका सभ के कथि पढएले होतो?“

“हए दूर बूर तोरा लड़िका सभ के चिन्ता धएले हउ, इंहा रोपिया लोकसान हो गेलई से नऽ लउकइछो। बुरिआन्हर कहीं केऽ चल इंहा से न तऽ अभीये मास्टर सुनतउ त जूतिया देतउ।”

“हँ हँ चऽला चऽला।”

 (“लगता है मास्टर मुफ़्त ही बूढ़ा होकर रिटायर्ड हो गया इसे कोई अक्ल-वक्ल नहीं है।”

“हाँ जी जब इसने अपना ही मकान ख़राब कर लिया तो बच्चों को क्या पढ़ाया होगा।”

“अरे मूर्ख तुझे बच्चों की पड़ी है यहाँ कितने रुपयों की हानि हो गई तुझे नहीं दिखता? मूर्ख कहीं का? यहाँ से चलो वरना मास्टर ने कुछ सुन लिया तो जूता मारेगा।” 

“हाँ हाँ चलो चलो।”) 

वहीं कहीं आस-पास में ही खड़े मास्टर ने दोनों ढहलेलों की बात को सुना मगर मूर्खों को समझाने में अपनी ऊर्जा कौन ख़र्च करे सोचकर बात को दुसरे कान से निकाल दिया। 

धनई सिंह और वकील साहब तो उसी दिन से गद्‌गद्‌ था जिस दिन मास्टर साहब ने धनेसर बाबू के बात पर काम शुरू किया थ। धनई का काम बिना किसी योजना तैयारी के धनेसर बाबू ने स्वयं ही कर दिया उसे कुछ करना या कहना भी नहीं पड़ा और उसका काम हो गया। उसने मन ही मन सोचा मैं तो खामखा ही अपने आप को सबसे बड़ा पाजी (ख़ुराफ़ाती बदमाश) समझता हूँ। मेरा परबाप (दादा) तो इसी गाँव में बैठा हुआ है।

जब उसने सुना कि मकान की ऊँचाई ग़लती से ज़्यादा हो गई है तो वह और भी ख़ुश हुआ। उसकी ख़ुशी में उसका अपना कोई लाभ नहीं था मगर पूरी तरह निःस्वार्थ भी नहीं था। दुसरों का नुक़्सान या उसे परेशानी में देखकर ख़ुश होना कुछ लोगों की दुष्प्रवृति होती है। इसलिए ऐसे लोग अपना नुक़्सान झेलकर भी दुसरे को नुक़्सान पहुँचाते रहते हैं। धनई की ख़ुशी भी वस्तुतः उसकी ख़ुशी नहीं बल्कि दुष्प्रवृति ही थी। 

मास्टर साहब साहब इसी उधेड़बुन में थे कि मकान चार फ़ीट तोड़ें या चार फ़ीट ऊँचा करें? 

तभी धनई सिंह वहाँ पहुँचा और कुरसी खींचकर बैठते हुए बोला, “मकान तो बहुत सुंदर बन रहा है भइया। बस दिवाल थोड़ा ऊँचा हो गया।”

मास्टर साहब नें अपनी दुविधा बताई तो धनई ने कहा, “मेरे पास इसका भी एक उपाय है यदि आप मानों तो दिवाल न ऊपर जोड़ना पड़ेगा न नीचे तोड़ना। जहाँ है वहीं काम हो जाएगा। बस थोड़ा खर्च जरूर बढ़ जाएगा मगर हिसाब लगाइयेगा तो फायदे में ही रहियेगा।”

“उपाय क्या है पहले ये बताओ धनई ।”

“उपाय क्या है कोई बड़का साइंस थोड़े ही है। लिंटर बन्हवाइए और पक्का छत डाल दिजिए।”

“मगर छत तो महँगा पड़ेगा।”

“महँगा कुछ नहीं पड़ेगा। खपरा के लिए भी धरन छानी कोरो बत्ती खपरा ऊपर से हर साल मरम्मत कोई कम खर्च है? जन मजदूर मिलता नहीं है खासकर घरामी (घर छानेवाला कारीगर) तो और भी नहीं। कहाँ-कहाँ किसका निहोरा करते फिरियेगा? वैसे तो एक बार आँख जाँत के छत पिटवा दिजिए सौ साल के लिए छुट्टी।”

मास्टर साहब के मन में प्रश्न था कि यदि पक्का छत ढाल दिया और बच्चे कल एकजुट नहीं रहना चाहे तो वे ईंटें कैसे बाँटेंगे? मगर नुक़्सान और फ़ज़ीहत दोनों ही ज़्यादा हो चुकी थी। इसलिए मन की बात मन में दबा गये। अचरज की बात थी कि मास्टर साहब को अभी भी इसमें किसी की कोई कुचाल या चतुराई नहीं लग रही थी। उन्हें लग रहा था कि नुक़्सान तो वैसा कुछ हुआ नहीं है ख़र्चा और समय थोड़ा ज़्यादा ज़रूर लग गया है मगर मकान की मज़बूती सौ साल तक कहीं जाने वाली नहीं है। उन्होंने धनई से बोला, “बात तो तुम सही कह रहे हो धनई, जब नींव और दिवाल इतना मजबूत बना ही है तो मुझे भी लगता है अब खपरा क्या डालें छत पिटवा देना ही अच्छा रहेगा।”

“वही अच्छा ही रहेगा भइया, अब देखिए न आपके पास दूरा-दरवाजा भी नहीं है अनाज-पानी, पर-पथार कहाँ सुखाइयेगा?

“छत रहेगा तो वहाँ आराम से सूखता रहेगा। चारो तरफ से दिनभर खुला धूप। न कभी छाँह, न बकरी पठरु माल-जाल के जुठाने का डर। कपड़ा-लत्ता बर-बिछौना सब आराम से सूखेगा।”

“सही कह रहे हो, अब इसे नीचे तोड़ता हूँ तो खर्च, ऊपर जोड़ता हूँ तो खर्च इससे अच्छा छत ही ढलवा देते हैं मगर पहले सोचा नहीं सीढ़ी तो बना नहीं है यह दिक्कत हो गया।”

“आप काहे चिन्ता करते हैं उ मिस्त्री का काम है आप तो सामान दीजिए और आज्ञा दीजिए काम हो जाएगा।”

छत ढल गया। मकान का काम पूरा हो गया। दीवारों के बाहर भीतर से पलस्तर, फ़र्श और छोटे-मोटे और भी बहुत सा काम बाक़ी रह गया। जो पैसे थे सब लग गये। आगे के काम के लिए पैसे नहीं बचे। 

बड़े मौलवी के नक़्शे में कमरों के साइज़ इससे छोटे थे मगर संख्या चार थी एक हॅाल, रसोईघर, पूजाघर दो टॅायलेट अलग से था। दो मंज़िल मकान पूरा बनने का बाद अस्सी हज़ार रुपये बच भी रहे थे जिसे उन्होंने अपने हाथ में रखने का मन बनाया था। 

इस नये मकान में तीन बड़े कमरे एक छोटा सा आँगन और एक रसोईघर था। पैसे सारे लग चुके थे और अभी भी कम से कम पचास हज़ार का ज़रूरी काम बाक़ी था। चिनाई चिकनी मिट्टी की थी समूची दीवार उबड़-खाबड़ थी। मिट्टी पर एक तो पलस्तर ठीक से नहीं पकड़ेगा ऊपर से माल भी ज़्यादा लगेगा। मास्टर साहब ने फ़ाइनल हिसाब लगाया तो पता चला कि पैसे अनुमान से डेढ़ गुणा ज़्यादा ख़र्च हो चुके हैं और काम अभी भी बाक़ी है। काम पूरा होते-होते ख़र्च दो गुना ही हो जाएगा। मास्टर साहब को पश्चाताप होने लगा। समुचे जीवन की कमाई लगाकर भी घर का काम पूरा नहीं हुआ। काश बड़े मौलवी वाले फ़ैसले पर ही क़ायम रहते। पैसा यदि ज़्यादा भी लगता तो अनुमान से थोड़ा बहुत ही तो ज़्यादा लगता। इस तरह पूरे अस्सी हज़ार अतिरिक्त लगाकर और पचास हज़ार का काम तो बाक़ी नहीं रह जाता। मकान भी कितना कमज़ोर होता? छड़ सिमेंट लगता तो इससे कहीं ज़्यादा ही मज़बूत बनता। चार गुना से ज़्यादा ईंट हमने मकान में लगा दिया। ऊपर छत का पैसा तो उतना ही लगा। सीढ़ी रह गई सो अलग। मास्टर साहब इसमें अभी भी किसी दुसरे को दोष न देकर अपनी ही ग़लती मान रहे थे। सोच रहे थे घर बनाने का यह पहला अनुभव था इसीलिए ऊन का दून (दोगुना ख़र्च) पड़ गया। सोच-सोच कर बीमार पड़ गए। मकान जो ख़ुशी के लिए बनाया था वह अधूरा रह गया। अब वह अधूरा मकान हृदय को ख़ुशी देने के बदले सालता रहता था। आमदनी का एक मात्र स्त्रोत वही पेंशन था। घर का ख़र्च गदेल। जैसे-तैसे लेन देन हाथ-हथफेर करते धरते दो साल में मकान रहने लायक़ हो गया। मास्टर साहब ने मन को दुबारा समझा लिया कि कोई बात नहीं ज़्यादा पैसे लग गया मकान ठोस है। ईंटे सलामत हैं ज़रूरत पड़ने पर काम आ ही जाएगा। धीरे-धीरे पश्चाताप के भी आदी हो गये तो गाँव में निकलने लगे। उस दिन टहलते-टहलते धनेसर बाबू के दरवाज़े पर जा पहुँचे। देखते क्या हैं बड़े मौलवी साहब वहाँ बैठे चाय पी रहे हैं। 

और जो नक़्शा मौलवी साहब ने उन्हें सुझाया था ठीक हूबहू उसी नक़्शे का मकान बन रहा है। दीवारों की जुड़ाई साढ़े दस फ़ीट तक हो चुकी है और अब उसपर छत डालने के लिए शटरिंग की जा रही है। रमेश्वर मास्टर ने भीतर जाकर पूरे मकान को देखा। हूबहू वही सबकुछ जो मौलवी साहब ने उसे बनाकर दिया था। बिना छत, बिना पलस्तर बिना फ़र्श के भी मकान क्या खिल रहा था। दिवारें इतनी चिकनी और सफ़ाई के साथ चिनी हुई कि उसपर पलस्तर न भी हो फिर भी सुंदर डिजायन लग रही थी। मास्टर साहब को बात समझ में आ गई। 

आकर कुरसी पर बैठ गए जहाँ धनेसर बाबू बैठे हुए मौलवी साहब से चर्चा कर रहे थे। 

“मकान की ऊँचाई सवा दस फीट रखनी थी। आपने पौने ग्यारह कर दी। पता है दो रद्दा (ईंट जुड़ाई की पंक्ति) मे ही पुरे दो टेलर से ज्यादा ईंट लग गया?”

मास्टर साहब ने मन ही मन सोचा यहाँ पाँच इंच का दिवाल है तो आधा फीट पर इतना दर्द हो रहा है और मेरे मकान में जो दस इंच का दिवाल चउदह फीट ऊँचा कराने का सुझाव दिया था तब नहीं सोचा था कि उसमें कितना रद्दा, कितने टेलर ज्यादा ईंट लग जाएगा? तब तो ऊँचा घर सुंदर लग रहा था और अब आधा फ़ीट उँचाई भी बर्दाश्त नहीं हो रहा है। वाह! धनेसर भइया वाह! उसने प्रश्नभरी निगाहों से धनेसर बाबू की तरफ़ देखा। ढीठ अपराधी कभी अपनी गलती स्वीकार नहीं करता। धनेसर बाबू ने भी नज़र नहीं चुराई। बोले, “मेरा मन तो वैसा ही मकान बनाने का था जैसे तुझे बताया था। उसमें खर्चा थोड़ा ज्यादा होता है मगर मकान एयर कंडीशनर के जैसे आरामदायक होता है। पर क्या करता ? चारों पोता एक मत हो गया माना ही नहीं। बड़े पोते ने ताऽ जबरदश्ती मोतीहारी से यह नक्शा बनवाकर भेज दिया और बोला कि मुझे हूबहू ऐसा ही मकान चाहिए। जौ भर भी इधर या उधर नहीं। वही बात आँख मूँदकर बाकी के तीन पोते भी। अब नयका पीढ़ी के सामने हमारा क्या चलता है? सो देखो जो बन रहा है सामने है मगर सच पूछो तो मुझे पसंद नहीं है।”

मास्टर साहब को सारी बात सेकेंडों के भीतर समझ में आ गई। वे ख़ूब समझ रहे थे नक्शा बड़े मौलवी का है और बताया मोतीहारी का जा रहा है। मेरी चार बहुएँ आएँगी तो बेटों को एक नहीं रहने देंगी। इनकी बहुओं ने आने से पहले ही लिखनामा दे दिया है कि वे एक रहेंगी। बोले, “रहने दीजिए रहने दीजिए मुझे सब समझ में आ गया। बड़े मौलवी का पता भी आपके पोते ने मोतीहारी से ही भेजा होगा। आपकी बहुएँ एक रहेंगी आपने दिव्यनेत्रों से देख लिया है।”

धनेसर बाबू बड़े ढीठ वक्ता थे उनके तर्क और वाकपटुता के सामने कोई ठहरता नहीं था। जहाँ उनका साम कमज़ोर पड़ता था वहाँ वे तुरंत ही अपने दाम का प्रयोग कर देते थे। मगर आज रामेश्वर मास्टर के सामने झेंप गये। कोई जबाब देते न बना, चुप रह गये।

मास्टर साहब को इससे ज़्यादा न तो कुछ कहना था न ही कुछ सुनना। उठे और बिना कुछ बोले चुपचाप वहाँ से चल दिये। भारी क़दमों से सँभलते हुए वे घर को लौट रहे थे। मन में पचास तरह की बातें आ रही थी। सरलता चाहे लाख अनुभव जमा कर ले कुटिलता को कभी पहचान नहीं सकती। बिना अच्छी तरह पहचाने किसी पर इतना आँख मूँद भरोसा और उसका इतना सम्मान भी नहीं करना चाहिए कि वह हमें कोई नुक़्सान पहुँचाए और उसके विरुद्ध हमारा मुँह भी न खुले। मैं सचमुच कितना बड़ा मूर्ख हूँ। उस दिन मैंने सुना तो मुझे बुरा लगा। मैं धनुआ को भी डाँटना चाह रहा था। मगर वास्तव में ढहलेलवा भी सहीये कह रहा था। 

“ई मास्टर बुझाइछउ सेथिये… … एकरा कोनो अक्कील उक्कील न हउ।”

बीस साल से ऊपर हो गया, धनेसर बाबू गुज़र चुके हैं। उनके मकान का काम वहाँ से आगे नहीं बढ़ा जहाँ तक रामेश्वर बाबू देख कर आए थे। बड़े पोते ने मोतीहारी में ही बसने का मन बना लिया था। इसलिए वहाँ ज़मीन लेने के लिए पैसे बचाने लगा। मँझले को कोई साला नहीं था, ससुराल में घरजावाई बन गया। बाक़ी दो पोते तो तब तक पढ़ाई ही कर रहे थे। मकान धनेसर बाबू अपनी ज़िद, अपने पैसों से बना रहे थे। पोतों ने आगे पैसा लगाने से साफ़ मना कर दिया इसलिए काम जहाँ था वहीं रुक गया। आजकल उन दिवालों पर लौकी व सेम की लत्तियाँ छायी रहती हैं। नीचे घास-फूस उग आई है जिसमें से कभी-कभार साँप बिच्छू गोजर इत्यादि निकलते रहते हैं। 

धनई अभी तक अपने दादा के बनाये हुए घर में ही मरम्मत करवा-करवा कर रह रहा है। उसका दोनों बेटे दारुबाज़ निकल गए। अगले बीस सालों तक वह मकान बनाने की सोच भी नहीं सकता। 

माहटर साहब का वह मकान दो मंज़िला बन चुका है। पिल्लर और पाँच इंच का दिवाल वाला जो काम पहली मंज़िल पर नहीं हो पाया था वह दुसरी मंज़िल पर हुआ। उनके चारों बेटे, चारों बहुएँ और दर्जन भर से ज़्यादा उनके पोते-पोतियाँ उसी मकान में हँसी-ख़ुशी रह रहे हैं। लोग कहते हैं उनके घर में कभी किसी ने, किसी को, किसी से, लड़ते नहीं देखा। परिवार का माथ मज़बूत है। माहटर साहब ने बियासी वर्ष की उम्र पार करके खाट पकड़ लिया है मगर आज भी उनके बच्चों में से किसी की मजाल नहीं कि उनकी बातों को कोई अनसुनी कर दे या मुँह लगे जवाब दे दे। ऐसा बिलकुल नहीं है कि उनके बच्चों के मन में अभी तक उनका कोई भय व्याप्त है। बल्कि वास्तव में अपने बच्चों को उनका दिया हुआ यह संस्कार है। 
 

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टिप्पणियाँ

प्रियंका सिंह 2022/07/24 09:38 PM

"परिवार का माथ मजबूत है" इस एक पंक्ति में संयुक्त परिवार के मूलमंत्र का दर्शन होता है। इस कहानी में वैसे तो लेखक ने समाज के कई सत्यों को उजागर किया है। उन्हीं में से एक सत्य है बच्चों को यदि सही अनुशासन में रखते हुए सही संस्कार दिये जाएँ तो संयुक्त परिवार की खुशियों का आनंद जारी रह सकता है। कहानी का प्रवाह अच्छा है। एकबार शुरु करने पर बिना पुरे पढे कोई रह नहीं सकता। लेखक को बधाई।

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