लोक आस्था का महापर्व डाला छठ
आलेख | सांस्कृतिक आलेख राजनन्दन सिंह1 Dec 2021 (अंक: 194, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
हिन्दी मास कार्तिक शुक्ल पक्ष षष्ठी की संध्या सूर्यास्त से लेकर अगले सूर्योदय के बीच छठी रात्रि को सौभाग्य रात्रि मानकर पुत्र-पुत्री, धन्य-धान्य, सुख-समृद्धि एवं निरोगी काया की कामना से सौभाग्य रात्रि की पूजा अर्चना की जाती है। इसी छठी रात्रि का नाम है छठी माई।
षष्ठी विशेषकर इसलिए कि लगभग समूचे भारत में ऐसी पुरातन लोक मान्यता है कि जन्म के बाद जन्म की षष्ठी रात्रि को जातक का भाग्य निर्धारण होता है। इसीलिए भारतीय बच्चों का छठी-पूजन संस्कार भी होता है। अतः कार्तिक शुक्ल पक्ष षष्ठी की इस विशेष रात्रि को मन में सात्विक सौभाग्य कामना तथा इस रात्रि के प्रति श्रद्धा व आस्था का होना पूर्णतः प्राकृतिक तथा पूर्ण वैज्ञानिक है।
नवरात्रों की तरह छठ पर्व भी साल में दो बार मनाया जाता है। कार्तिक शुक्ल पक्ष षष्ठी को मनाया जानेवाला पर्व “डाला छठ” तथा चैत शुक्ल पक्ष षष्ठी को मनाया जानेवाला पर्व “चैती छठ” कहलाता है। चैती छठ एक प्रकार से वैकल्पिक है इसे कम लोग मनाते हैं मगर डाला छठ अनिवार्य रूप से सभी मनाते हैं।
इस व्रत में व्रती को कठिन से कठिन सावधानी, सफ़ाई, श्रद्धा एवं संयम से गुज़रना होता है। महीने की शुरूआत से ही व्रती एवं परिवार सात्विक जीवनशैली के साथ-साथ व्रत के लिये ज़रूरी तैयारी शुरू कर देते हैं। नदी तालाबों के घाटों की सफ़ाई की जाती है, उसे सजाया जाता है।
तीन दिन पहले ’नहा खा’ होता है इसका अर्थ होता है सात्विक स्नान के बाद ही खाना। इस दिन व्रती स्नान के पश्चात ही अन्न जल ग्रहण करती है। नहा खा के दूसरे दिन ’खरना’ होता है। खरना यानि व्रत से एक दिन पहले का उपवास। इस दिन व्रती दिनभर उपवास रखती हैं और रात्रि को केले के पत्ते पर चावल और गुड़ की खीर का न्योज (भोग लगाना) चढ़ाने के बाद अपना उपवास तोड़ती हैं।
खरना के अगले दिन व्रती सुबह से ही निर्जला उपवास रखती है। अस्ताचल सूर्य की आराधना एवं अर्घ्य के साथ पर्व की शुरूआत होती है। मुख्य पूजन रात्रि में डाला जागरण, षष्ठी रात्रि की गुणगान एवं सर्वमंगल कामनाओं के साथ होता है और भोर में पुनः सौभाग्य तथा सर्वसमर्थता के प्रतीक भास्कर साक्षात् भगवान सूर्य के आगमन की प्रतीक्षा, परिवार में सुख समृद्धि की कामना एवं मनुहार के साथ नवोदित सूर्य को अर्घ्य के साथ व्रत पूर्ण होता है। श्रद्धालु लोग व्रती के पाँव छूकर आशीर्वाद लेना अपना सौभाग्य समझते हैं।
देशज शब्द छठी से ही संस्कृत शब्द“षष्ठी" बना है। छठी से“छठी मइया" इसलिए क्योंकि भारतीय पुरातन लोकमान्यता में जन्म देनेवाली भौतिक माता के सिवा जन्म दिलाने में सहायता करनेवाली, पालन पोषण करने वाली तथा सौभाग्य प्रदान करनेवाली भी माता के समान मानी जाती है। छठी रात्रि चूँकि भाग्यरात्रि मानी गई है इसलिए इस रात्रि को मातृरूप मानी जाती है।
पर्व की विशेषता यह है कि आदि परंपरा तथा लोक आस्था का यह सनातन महापर्व इतना पुराना है कि किसी को भी सही सही नहींं पता यह कब, कैसे क्यों और कहाँ से शुरू हुआ। यह पूर्ण सनातन है तथा आदिकाल से अब तक, अपने मूल रूप में ही आनेवाली अनंतकाल तक सदियों के लिए जारी है। कुछ श्रेय लोभी तुक्केबाज़ों ने भले ही इस महापर्व को अपने अपने चहेतों पात्रों से जोड़ने का प्रयास किया हो मगर आज तक वो कहीं से भी व्यवहारिक, विश्वसनीय या लोक स्वीकृत साबित नहींं हो पाए; क्योंकि सच्चाई यही है कि लोक आस्था का महापर्व, यह डाला छठ आदि सनातन परंपरा की एक अटूट व अनवरत कड़ी है जिसका किसी भी व्यक्ति, धर्म, मत, समुदाय या विचारों से कहीं कोई सम्बन्ध नहींं है। यह किसी भी देवी-देवता ऋषि-मुनि या किसी और द्वारा सुझाया बताया गया नहींं है। श्रद्धा एवं आस्था के सिवा न ही इसके पीछे कोई कथा या दंतकथा है। इसके लिए न तो कोई मंत्र है, न विधान है और न ही किसी कथावाचक ब्राह्मण या पुरोहित की आवश्यकता है। हर प्रकार से यह पर्व लोक आस्था का महापर्व है।
मूल रूप से इस पर्व की शुरूआत प्राचीन भारत तथा वर्तमान बिहार राज्य की राजधानी पटना से मानी जाती है। मगर समय के साथ लोगों के पलायन तथा समय पर गाँव न लौट पाने की विवशता के परिणाम स्वरूप पहले भारत के सभी राज्यों में पहुँचा और अब यह भारत से बाहर सात समुंदर पार अमेरिका यूरोप सहित दुनिया के कई देशों में जहाँ-जहाँ भी बिहार तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोग रहते हैं, वहाँ मनाया जाने लगा है। दूसरे शब्दों में यदि कहें तो आज यह पर्व अपनी वैश्विक पहचान बना चुका है।
छठ के पारंपरिक गीतों के आधार पर छठ से जुड़ी कथा का अनुमान लगाना भी एक कठिन कार्य है, क्योंकि किसी भी गीतों की कोई संपूर्ण कड़ी नहींं मिलती।
छठ के पारंपरिक गीत ज़्यादातर मगही, अंगिका, बज्जिका, भोजपुरी एवं मैथिली में है। कुछ सामान्य गीत जो सभी भाषाओं में है—
“केरवा जे फड़ेला घवद से ओह पर सुग्गा मेड़राए
मारबउ रे सुगवा धनुष से, सुग्गा गिरे मुरछाए”
सुग्गा यानि तोते को सावधान किया गया है कि यदि तुमने छठी मईया के चढ़ावे वाले फलों को जूठा किया तो तुझे धनुष से मार गिराया जाएगा। इसी गीत के आगे की कड़ी में तोते की पत्नी छठी मैया से गुहार लगाती है कि उसके तोते को जीवित कर दिया जाए। हालाँकि आगे के गीत में यह स्पष्ट रूप से नहींं कहा गया है मगर संभवतः दयालु छठी माई उसके पति को कुछ कड़े निर्देश के साथ जीवन दान दे देती हैं।
मुख्य रूप से इस पर्व की शुरूआत पटना के गंगा घाट से मानी जाती है। जो कि मगध क्षेत्र है। जहाँ शायद गेहूँ नहींं होता।
“मोर भईया जाएला महंगा मुंगेर,
ले ले अईहा हो भईया गेहूँ के मोटरिया
अमरी के गेहूँआ महंग भेल बहिनी,
छोड़ी देहू हे बहिनी छठी सन वरतिया”
इस गीत से स्पष्ट होता है कि इस पर्व का सम्बन्ध किसी न किसी रूप में मगध और मुंगेर यानि अंगिका क्षेत्र से है।
“काँच ही बाँस के बहँगिया, बहँगी लचकइत जाए
बाट ही पूछेला वटोहिया ई भार केकर जाए
तू जे आन्हर होएबे रे वटोहिया ई भार छठी माई के जाए”
इस गीत में यह स्पष्ट है कि छठी माई का प्रसाद कम या थोड़ा नहींं बनाया जाता। पूरा प्रसाद बनाया जाता है जिससे कि अच्छा ख़ासा बहँगी भार (एक लचीले पट्टी के दोनों तरफ बराबर भार लटकाकर काँधे पर ढोया जाने वाला भार) बन जाए। तथा कुछ असामान्य विकृत व्यक्तियों को छोड़कर सामान्यजन आसानी से यह समझ जाए कि यह प्रसाद छठी पूजन के निमित्त जा रहा है।
“घोड़वा चढ़न को बेटा मांगिले,
पोथिया पढ़न को पुतोह
रुनकी झुनकी एगो बेटी मांगिले॥”
इस गीत में व्रती अपने लिए भरा-पूरा परिवार, समृद्धि एवं विद्या माँगती है, और अंत में जब भोर अर्घ्य का समय होता है तो व्रती को यह एहसास होने लगता है कि आज सूर्यदेव इतनी देर कहाँ लगा रहे हैं?
“सब दिन उगइछा हो दीनानाथ, आहो भोर भिनुसार
आजु के दिनमा हो दीनानाथ हे लागल अति देर”
“रहिया में भेंटि गेल हे वरती, ए गो अन्हरा पुरुष
अँखिया देअइते हे वरती, हे लागल अति देर”
हे दीनानाथ सब दिन आप भोरे-भोरे उगते हो, दर्शन देते हो आज मैं तुम्हारी प्रतीक्षा में अर्घ्य लिये पानी में खड़ी हूँ। आज आपने कहाँ इतनी देर लगा दी?
सूर्य जबाब देते हैं कि हे व्रती मेरे रास्ते में बहुत से दीन-दुखी लोग मिलते रहते हैं जिनकी ज़रूरतों के अनुसार मैं उनकी सहायता या मदद करते हुए चलता हूँ; अतः मुझे देर हो जाती है।
इस प्रकार पारंपरिक गीतों से छठ पर्व की ऐतिहासिकता या कथा का पूरा-पूरा पता नहीं लगता मगर इसमें इस सृष्टि के केन्द्र बिन्दु सूर्य के प्रति लोक-आस्था का महान दर्शन होता है अतः इस पर्व को लोक-आस्था का महापर्व कहा जाता है।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
अक्षय तृतीया: भगवान परशुराम का अवतरण दिवस
सांस्कृतिक आलेख | सोनल मंजू श्री ओमरवैशाख माह की शुक्ल पक्ष तृतीया का…
अष्ट स्वरूपा लक्ष्मी: एक ज्योतिषीय विवेचना
सांस्कृतिक आलेख | डॉ. सुकृति घोषगृहस्थ जीवन और सामाजिक जीवन में माँ…
अस्त ग्रहों की आध्यात्मिक विवेचना
सांस्कृतिक आलेख | डॉ. सुकृति घोषजपाकुसुम संकाशं काश्यपेयं महद्युतिं। …
अहं के आगे आस्था, श्रद्धा और निष्ठा की विजय यानी होलिका-दहन
सांस्कृतिक आलेख | वीरेन्द्र बहादुर सिंहफाल्गुन महीने की पूर्णिमा…
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
सम्पादकीय प्रतिक्रिया
कहानी
सांस्कृतिक आलेख
कविता
- अंकल
- अंतराल
- अंधभक्ति के दरवाज़े
- अदृश्य शत्रु कोरोना
- अबला नहीं है स्त्री
- अव्यवस्था की बहती गंगा
- अहिंसा का उपदेश
- आज और बीता हुआ कल
- आत्मसंघर्ष
- आहत होती सच्चाई
- ईश्वर अल्लाह
- उत्पादन, अर्जन और सृजन
- उत्सर्जन में आनन्द
- उपेक्षा
- एक शब्द : नारी
- कर्तव्यनिष्ठता
- कविता और मैं
- कोरोना की तरह
- क्षेत्रियता की सीमा
- गंदी बस्ती की अधेड़ औरतें
- गेहूँ का जीवन मूल्य
- गौ पालकों से
- घर का नक़्शा
- घोंसला और घर
- घोंसलों से उँचा गाँव
- चिड़ियों की भाषा
- चुप क्यूँ हो
- जगह की कमी
- जब कोई दल बदलता है
- जब से बुद्धि आई है
- जाते-जाते हे वर्ष बीस
- जीवन का उद्देश्य
- ज्ञान जो अमृत है
- झूठ का प्रमेय
- टॉवर में गाँव
- तरक्क़ी समय ने पायी है
- तवायफ़ें
- तुम कौन हो?
- तुम्हारी ईमानदारी
- तुम्हारी चले तो
- दिशा
- दीये की लौ पर
- देश का दर्द
- नमन प्रार्थना
- नारी (राजनन्दन सिंह)
- पत्थर में विश्वास
- पुत्र माँगती माँ
- पूर्वधारणाएँ
- प्रजातंत्र में
- प्रतीक्षा हिन्दी नववर्ष की
- प्राकृतिक आपदाएँ
- प्रार्थना
- फागुन आया होगा
- फूल का सौदा
- फेरी बाज़ार
- बक्सवाहा की छाती
- बदबू की धौंस
- बिल्ली को देखकर
- बोलने की होड़ है
- बोलो पामरियो
- भारतीयों के नाम
- मक्कारों की सूची
- मन का अपना दर्पण
- महल और झोपड़ी
- महा अफ़सोस
- माँग और पूर्ति का नियम
- मुफ़्त सेवा का अर्थशास्त्र
- मूर्खता और मुग्धता
- मूर्ति विसर्जन
- मेरा गाँव
- मेरा घर
- मेरा मन
- मेरे गाँव की नासी
- मैं और तुम
- मैं और मेरा मैं
- मैली नदी के ऊपर
- यह कोरोना विषाणु
- यह ज़िंदगी
- राजकोष है खुला हुआ
- रावण का पुतला
- लुटेरे
- शत्रु है अदृश्य निहत्था
- शब्दों का व्यापार
- सचेतक का धर्म
- सच्चाई और चतुराई
- सत्ता और विपक्ष
- समभाव का यथार्थ
- सरदी रानी आई है
- सामर्थ्य
- साहित्यहीन हिन्दी
- सीमाएँ (राजनन्दन सिंह)
- सुख आत्मा लेती है
- सुविधामंडल
- स्मृतिकरण
- हमारी क्षणभंगुर चाह
- हमारी नियति
- हर कोई जीता है
- ग़रीब सोचता है
- ज़िंदगी (राजनन्दन सिंह)
- ज़िंदगी के रंग
- ज़िंदगी बिकती है
किशोर साहित्य कविता
हास्य-व्यंग्य कविता
दोहे
बाल साहित्य कविता
नज़्म
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं
पाण्डेय सरिता 2021/11/30 01:31 PM
बढ़िया जानकारी