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दिहाड़ी का अर्थशास्त्र

भारत की आज़ादी के बाद लगभग आठ-दस वर्षों के भीतर ज़मींदारी प्रथा का जड़ से अंत हो चुका था, मगर बहुत से गाँवों में अस्सी की शुरूआती दशक तक ज़मींदारों का वह पूराना रौब-दाब और रुतबा बहुत हद तक क़ायम था। अँग्रेज़ों से सत्ता हस्तांतरण के बाद समय और क़ानून ज़रूर बदल गया था परन्तु उस समय तक अभी भी ज़्यादातर वे लोग जीवित थे जिन्होंने अँग्रेज़ी ग़ुलामी को देखा था। ज़मींदारी से होनेवाली ज़मींदारों की आमदनी बंद हो चुकी थी। पढ़े-लिखे तथा संपन्न लोगों के प्रति ज़मींदार परिवारों का व्यवहार भी बदल गया था, परन्तु ग़रीब मज़दूरों पर रौब और व्यवहारों में ऐंठन अभी तक उसी रूप में मौजूद थे। खेती की ज़मीन अभी भी सौ बीघे से ज़्यादा बची हुई थी। दबे हुए सस्ते और बेगार मज़दूर उपलब्ध थे। खेती होती थी धन-धान्य की कमी नहीं थी मगर जीवन में वह बात अब नहीं रह गई थी जो कभी ज़मींदारी के दिनों में हुआ करती थी। 

पढ़े-लिखे लोगों को उनके सामने हाथ जोड़ना या खड़े रहना मंज़ूर नहीं था। वे चाहते थे कि यदि वे उनके दरवाज़े पर जाएँ तो उन्हें बैठने के लिए कुरसी दी जाए, बैठने को कहा जाए। चाय-पानी पूछें अथवा न पूछें, उनके साथ सामान्य शिष्टाचार निभाया जाए। मगर जिनके संस्कारों में अपने से नीचे वालों को हेय समझना, बराबर वालों से प्रतिस्पर्धा रखना और अपने से सिर्फ़ ऊपर वालों के साथ ही शिष्टाचार दिखाना सिखाया गया हो, वे भला समय अथवा क़ानून चाहे कितना भी बदल जाए आम लोगों के साथ शिष्टाचार क्यों दिखाएँ। इससे तो उनकी प्रतिष्ठा कम होती थी। इसलिए अनपढ़ ग़रीब मज़दूर अथवा उनके जन बनिहारों के अलावा कोई भी सभ्य आदमी उनके दरवाज़े की तरफ़ झाँकने से भी कतराता था। 

बड़े ज़मींदार रामरथ बाबू साठ वर्ष के हो चुके थे। अपने ज़माने में उन्होंने अपनी ज़िन्दगी राजकुमार और राजाओं की तरह जी थी। जब वे पढ़ाई करते थे तब उन्हें तथा उनके भाई बहनों को पढ़ाने के लिए एक मौलवी साहब और एक गुरुजी उनके दरवाज़े पर रहा करते थे। वे शिक्षक होते हुए भी उनसे सहमे-सहमे डरे-डरे से रहते थे कि कहीं उनकी कोई शिक्षा या बात उनके किसी विद्यार्थी को बुरी न लग जाए। उन दिनों गाँव में स्कूल नहीं था इसलिए आम परिवारों के बच्चों को उनके साथ बैठना-खेलना तो दूर, कभी साथ में खड़े होने तक का अवसर भी नहीं था। आम बच्चों से जान-पहचान का मतलब उनकी प्रतिष्ठा का कम होना था। 

अब, जब उनके सामने उनके बच्चों को उस सरकारी स्कूल में पढ़ना पड़ रहा था, जहाँ धनी, ग़रीब जन, मज़दूर ऊँच–नीच मध्यम सभी जातियों के बच्चे पढ़ते थे तो उनके दिल में बड़ा दर्द होता था। उनका वश चलता तो हेडमास्टर से कह के उन सभी जातियों के बच्चों को स्कूल से नाम कटवाकर भगवा देते जो उनकी आँखों को खटकते थे। मगर वे मन मसोसकर जीते थे। 

उनकी पहली समस्या थी कि स्कूल के बच्चों में उनके नाम का कोई ख़ौफ़ नहीं था। गाहे-बेगाहे कोई भी तेज़-तर्रार बच्चा उनके पोतों को घुड़की दे देता था या उसके साथ हाथापाई भी कर लेता था। कोई भी बच्चा ज़मींदारों के बच्चों के साथ सहज महसूस नहीं करता था। इसलिए ज़मींदार बच्चों का स्कूल में कोई दोस्त नहीं था। 

दुसरी समस्या थी कि हेडमास्टर साहब भी किसी बड़े परिवार से थे और शायद ज़मींदार परिवार का प्रतिस्पर्धी भी। इसलिए वे उनकी कोई बात नहीं सुनते थे और उनके बच्चों को भी स्कूल में किसी प्रकार का कोई विशेषाधिकार नहीं जमाने देते थे। 

क्लास में फ़र्स्ट सेकेंड अथवा थर्ड वही आता था जिसमें सचमुच उसके योग्य प्रतिभा थी। हेडमास्टर साहब मुँह, जाति, अथवा परिवार देखककर रिज़ल्ट बनाने के सख़्त विरोधी थे। स्कूल परिसर में उनसे बिना आज्ञा लिये सिर्फ़ स्कूल इंस्पेक्टर ही सम्भवतः आ सकते थे तो आ सकते थे, वरना बिना उनकी अनुमति गाँव के मुखिया जी का प्रवेश भी वर्जित था। कड़क मूँछ रोबिला चेहरा और चेहरे पर तेज। हेडमास्टरी केवल शौक़ के लिए करते थे; शान से रहते थे। विनम्र बहुत थे मगर सिर्फ़ विनम्रों के लिए। रौब-दाव अथवा धौंस जमाने वाले लोगों से उन्हें बड़ी चिढ़ थी। ज़मींदार साहब ने कई बार प्रयास कर लिया था मगर चाहकर भी उनकी बदली नहीं करवा सकते थे। 

गाँव भूमिहीन ग़रीबों का था। मुश्किल से चार-पाँच परिवारों की दशा ही ठीक थी जो अपनी खेती से अपना गुज़ारा करके चार पैसा बचा सकते थे। वरना समूचे गाँव की दशा “लूट लाओ कूट खाओ” वाली थी। जो हर रोज़ कमाते थे और हर रोज़ खा जाते थे। उनकी मज़दूरी ही इतनी कम थी जिससे कि कभी उनके पेट न भरे और पानी की मछली की तरह हमेशा भोजन की तलाश में उद्यमरत रहें। कपड़े के लिए मज़दूर बहुएँ, मालिक स्त्रियों की टहल एवं ख़ुशामद करती रहें। बदले में बचा-खुचा खाना (जो कि कभी मिलता नहीं था) अथवा उनके छोड़े हुए कपड़ों के लिए हाथ फैलातीं, विनती करतीं रहें और यदि कोई फटा-पुराना छँटा हुआ मिल जाए तो अपना सौभाग्य समझे। जो साड़ी मलिकाइन के शरीर पर फबती थी सुंदर लगा करती थी वही साड़ी मज़दूर बहुओं के तन पर ऐसे लगती थी जैसे उसे कोई देख ले तो शायद आँखें गंदी हो जाएँ अथवा पास से गुज़र जाए तो कपड़े की बास से उसका मन भिन्ना जाए। जो कपड़े मालिक के बच्चों पर संपन्नता झलकाते थे वही कपड़े मज़दूर बच्चों के तन पर फटेहाली और विपन्नता दर्शाते थे। कोई भी कपड़ा अथवा आभूषण शरीर पर अच्छा लगे इसके लिए कपड़े की प्रकृति के अनुसार मन में उसी प्रकृति का भाव तथा अंतःविश्वासों का होना ज़रूरी होता है। वरना कपड़े और व्यक्तित्व का तालमेल बेताल ही रहता है। एक उच्च शिक्षित और सभ्य व्यक्ति चाहे जितने साधारण कपड़े पहन ले उसका व्यक्तित्व नहीं छुपता इसी तरह एक निरक्षर गँवार को थोड़ी देर के लिए चाहे जितने भी महँगे कपड़े पहना दिये जाएँ उसकी असलियत भी नहीं छुप सकती। सिनेमा अथवा नाटक के अभिनेताओं पर यह नियम इसलिए लागू नहीं होते क्योंकि वे जिस चरित्र के लिए कपड़े पहनते हैं उसी चरित्र के हिसाब से अपने मनोभावों का अभिनय भी करते हैं। आदमी के व्यक्तित्व के साथ उसके कपड़े का बड़ा नज़दीकी रिश्ता होता है। यही कारण होता है कि कोई सभ्य आदमी टपोरियों जैसे कपड़े नहीं पहनता और बदले में टपोरी भी कभी सभ्य दिखने वाले कपड़ों को हाथ नहीं लगाता। कारण सम्भवतः यही था कि मालिकों के बच्चों द्वारा छोड़े हुए कपड़े उनके चाकरों के बच्चों पर कभी नहीं फबते थे। 

ग़रीबी रेखा की तरह संपन्नता की कोई तय अथवा परिभाषित रेखा नहीं होती। यह पूरी तरह से व्यक्ति की अपनी आत्मसंतुष्टि पर निर्भर होती है कि व्यक्ति कहाँ से अपने आप को संपन्न मानना शुरू कर देता है अथवा कहाँ तक स्वयं को अभावग्रस्त ही मानता रहता है। गाँव में जिस परिवार को दोनों शाम भरपेट भोजन और साल में एक बार नये कपड़े मिल जाते थे वह अपने आप को संपन्न परिवार समझता था। 

रामगुलाम कई पीढ़ियों से दरबार का हरवाहा था। उसके साथ उसकी पत्नी तथा बेटा रामसकल भी दरबार की सेवा में ही था। वह ख़ुद हरवाही करता था और पत्नी दरबार के घर में अनाज पानी सुखाने, फटकन-झटकन तथा मलिकाइनों की सेवा-टहल करती थी। रामसकल कुदाल से आड़ी कोना तामता था जहाँ हल नहीं पहुँच पाता था। साथ ही हरवाही भी सीखता था ताकि पिता के थक जाने पर उनकी जगह वह हरवाहा बन सके। बिडंबना ही थी कि परिवार के तीन-तीन जनों के मेहनत के बाद भी उसके घर की दशा अच्छी नहीं थी। तन पर कभी ढंग का कपड़ा नहीं चढ़ा। ज़मीन के नाम पर मात्र दस धूर खतियानी घराड़ी थी जिसमें फूस के दो कमरे का घर था और बची हुई जगह को टाट से घेरकर आँगन बना लिया गया था। 

दरबार की महिलाएँ अपने घर का बचा-खुचा खाना अपने बैलों को डलवा देती थईं मगर जन मज़दूर अथवा टहलुओं अथवा उनके बच्चों को नहीं देती थीं। उनका आशय था कि छोटे लोगों के लिए ज़मींदारी खाना हमेशा रहस्य ही रहे। उनके मज़दूरों को उनके खाने-पीने के स्तर तथा स्वाद का कभी पता न चले। वे चाहते थे कि वे लोग केवल वही चबाएँ जिसके लिए उनका जन्म हुआ है। वे अपने जन बनिहारों को अपने जूठन के अधिकारी भी नहीं समझते थे। 

रामगुलाम को अपना परिवार पालने के लिए हर रोज़ मिलने वाली बनिहारी ही उसका एकमात्र सहारा था। एक-एक साल के अंतराल पर उसके बेटे राम सकल के तीन बच्चे हो गए थे। ख़र्चा बढ़ गया था जो बनिहारी मिलती थी खा-पीकर बराबर हो जाती थी। कई पीढ़ियों से चली आ रही उसकी ग़रीबी और अभाव की ज़िन्दगी में रत्ती भर भी कोई बदलाव नहीं हुआ था। इसलिए ग़रीबी में भी ख़ुश रहने का उसने एक तरीक़ा निकाल लिया था। घोर ग़रीबी में भी वह त्यागी हो गया था। एक गमछा और एक धोती के अलावे कोई कपड़ा नहीं पहनता था। सरदी के मौसम में देह पर एक फटा हुआ भेड़िहर कंबल रखता था। गले में तुलसी जी की माला और मस्तक पर तीन पट्टा रामनामी तिलक लगाता था। काम के बाद जो समय बचता था उसमें वह राम नाम का जाप करता था। रात को खाना-पीना खाकर महतो के बैलघर में जाकर सोता था बदले में महतो से बिना माँगे ही शाक सब्ज़ी और कभी-कभार दूध-दही पा जाता था, ख़ुश रहता था। 

तीन-तीन लोगों की बनिहारी के बाद भी घोर अभाव की ऐसी ज़िन्दगी सिर्फ़ रामगुलाम की ही नहीं थी लगभग समुचे बिहार में खेतीहर मज़दूरों की दशा ऐसी ही थी। मज़दूरी कम थी मगर इसका एक लाभ भी था कि इससे ज़्यादा लोगों को काम मिल रहा था। दोष ज़मींदारों का भी नहीं था। दोषी परिस्थितियाँ थी। इसलिए सन अस्सी के बाद बिहार से खेतीहर मज़दूरों का पलायन शुरू हुआ तो किसानों की खेती के लिए जन मज़दूर मिलने कम हो गये। दरवाज़े पर बैल-भैंसों की देख-रेख के लिए भी मज़दूर मिलने मुश्किल हो गये। जैसे-तैसे चार-पाँच साल चला उसके बाद खेतों की जोत के लिए बैलों की जगह ट्रैक्टरों ने लेना शुरू कर दिया। दो-तीन साल और जैसे-तैसे धड़-पकड़ के खेती का काम चलता रहा। नब्बे के दशक की शुरूआत में जितनी तेज़ गति से मज़दूरों का पलायन शुरू हुआ उतनी ही तेज़ी से खेती पर निर्भर किसानों की खेती प्रभावित होने लगी। पहले मज़दूर छह-सात महीने कहीं से भी कमाकर वापस गाँव लौट आते थे। अब जो जहाँ कमाने जाता उनमें से ज़्यादातर वहीं बसने लगा। खेती अब लाभ का सौदा नहीं रहा। बड़े किसानों के पास दुसरा उपाय नहीं था बचत न होते हुए भी खेती करते रहना उनकी मजबूरी थी। छोटे एवं मझोले किसानों के बच्चे खेती की आशा छोड़कर शहर के कारखानों में मज़दूर सुपरवाइज़र या सेक्युरिटी कंपनियों में गार्ड किरानी इत्यादि होने लगे। 

दरबार की खेती भी प्रभावित हुई। उनके जो बच्चे पढ़ने लिखने में अच्छे थे वे ऊँची शिक्षा के लिए बड़े शहरों में चले गए। जिनका पढ़ने-लिखने में मन नहीं लगा वे कहाँ जाते। खेतों का बँटबारा हो गया। किसी ने अपने हिस्से के खेतों को ख़ाली करवा के वहाँ ईंट की चिमनी खड़ी करवा ली और ईंट भट्ठे का मालिक हो गये। किसी ने अपना खेत हुंडा बटैया दे दिया और ख़ुद बाज़ार में कोई दुकान कर ली किसी ने ट्रैक्टर थ्रेशर निकलवाकर गाँव का खेत जोतना, चिमनी से ईंट ढोना, शहर से सामान ढोने, टैक्सी इत्यादि का काम कर लिया। नयी पीढ़ी में ज़मींदारी का वह रोब नहीं था। जो बच गये वो आम समाज में घुल-मिलकर ज़िले और पंचायत की राजनीति करने लगे। 

दरबार की खेती बंद होने से रामगुलाम बेरोज़गार हो गया; उम्र भी हो चुकी थी अब वह घर पर ही रहने लगा। ख़ाली बैठा रामगुलाम पहले बीमार पड़ा और इलाज के बिना राम-राम करते करते एक दिन राम जी को प्यारा हो गया। साल भर के भीतर उसकी पत्नी भी उसी के पीछे-पीछे चली गई। 

रामसकल को भट्ठे पर काम मिल गया उसने ईंट भट्ठे पर काम करना शुरू कर दिया। 

स्कूल के नये हेडमास्टर साहब ने समूचे गाँव के लोगों को अपने बच्चों को स्कूल भेजने का आदेशात्मक निर्देश दिया था। उसके फ़ायदे बताये थे। रामसकल को हेडमास्टर साहब की बात समझ में आ गई थी उसके तीनों बच्चे अब स्कूल जाने लगे थे। 

भट्ठे की दिहाड़ी से उसका ख़र्चा चल नहीं रहा था। पत्नी को भट्ठे में काम पर लगाना नहीं चाहता था क्योंकि एक तो वहाँ कोई महिला मज़दूर काम नहीं करती थी और दूसरा ज़्यादातर छड़े-छवारे मज़दूर ही वहाँ पर काम करते थे। उसकी सुरक्षा का सवाल था बच्चे छोटे थे तो घर सँभालना भी ज़रूरी था। इसलिए पत्नी ने दो भैंस पोसिया ले लिया। भैंसों से होनेवाली आधी आमदनी भैंस के मालिक को जाना तय था मगर दो भैंस पालने का मतलब था एक भैंस की आमदनी का मालिक होना। भैंसों से कुछ आमदनी होने लगी। 

उधर रामसकल ने राजमिस्त्री जान महमद ठीकदार से बात की जो बराबर भट्ठे पर जाता रहता था और उसका हेल्पर बनकर उसके साथ सौ रुपये की दिहाड़ी पर काम करने लगा। नौ घंटे में दो बार चाय, दो पहर का भोजन और आधा घंटा आराम। रामसकल को लगा जैसे उस कोई सरकारी नौकरी मिल गई हो जहाँ काम का समय मज़दूरी और अलग से मिलने वाली सुविधा की किसी से कोई चिरौरी नहीं सब कुछ तय था। अब वह अपनी कमाई का एक अनुमान लगा सकता था कि वह महीने में कितना कमा सकता है। 

 

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धरम महतो उसी गाँव का एक मंझोला किसान था। किसानों की खेती बंद हुई तो धरम महतो का खेत भी मज़दूरों के अभाव में परती रहने लगा। उसके बच्चे पहले से ही शहर में पढ़ते थे और वहीं से पढ़ते-पढ़ते गुजरात के सूरत शहर में जाकर कपड़ा मिलों में नौकरी करने लगे। मन लग गया तो जगह ख़रीदकर वहीं बस गये थे। सामान्य आदमी के लिए नई जगह पर ज़मीन लेकर नया मकान बनाना आसान काम नहीं होता। मकान बन जाने के बाद भी घर जुटाने तथा पूरी गृहस्थी बसाने में उसके जीवन भर की कमाई लग जाती है। धरम महतो के तीनो बेटे राम, बलराम, घनशाम अलग-अलग शहरों में अपनी-अपनी गृहस्थी बसाने में बीस-बीस साल के लिए बैंकों के कर्ज़दार हो गए थे। गाँव में लोग समझते थे कि महतो के तीन-तीन बेटे शहर में कमाते हैं इसे पैसों की क्या कमी है। यह तो राजा है। मगर महतो को जो कमी थी वह किसी से कह भी नहीं सकता था। थोड़ा सा खेत शाक सब्ज़ी के लिए रखकर बाक़ी बटायी पर दे दिया था। उससे साल में उसे खाने के बराबर भी नहीं मिलता था। ईंट के पाये और खपड़े का घर था, उसकी मरम्मत, बर-बीमारी, रिश्ते-नाते नेवता-पेहानी हर चीज़ के लिए पैसे चाहिएँ जो तीनों बच्चे मिलकर भी पूरा नहीं कर पा रहे थे। दशा अंदर से जितनी ख़राब थी बाहर उससे भी ज़्यादा दिखती थी मगर राम, बलराम या घनशाम तीनों में से किसी को कोई मतलब नहीं था। महतो ने अपना ख़ून सुखाकर कंजूसी कर-कर बड़ी आशा से बच्चों को पढ़ाया था। क्या-क्या सपने भी देखे थे जब तीनों कमाने लगेंगे तो गाँव में सबसे बड़ा, सबसे सुंदर पक्का तीन मंज़िला मकान मेरा होगा। बाज़ार पर ज़मीन ख़रीद के वहाँ एक बड़ा सा तीन मंज़िला मार्केट बनवाउँगा जहाँ एक भाई के हिस्से में कम से कम बीस दुकानें होंगी। एक ऑफ़िस अलग से रहेगा जिसमें मैं बैठूँगा एक मैनेजर रहेगा जो पूरी मार्केट की देखभाल और व्यवस्था देखेगा। बच्चे कभी अपने बच्चों के साथ गाँव आएँगे तो उन्हें उनके शहर से ज़्यादा सुविधा यहाँ देखकर गर्व महसूस होगा। धरम महतो अपने समय के मैट्रिक पास तथा व्यवहारिक आदमी थे। वे स्वप्नदर्शी बिलकुल नहीं थे। उनके बच्चे यदि उनकी बातों में होते तो वह सब कुछ आसानी से सम्भव था जो वे सोचते थे। गाँव में प्रखंड मुख्यालय हो गया था और बड़ी तेज़ी से वह गाँव टाउन में बदल रहा था। जितने पैसे वहाँ लगते उनसे तुरंत ही एक अच्छी आमदनी शुरू हो जाती। बच्चे चाहते तो गाँव आकर व्यवसाय कर लेते या शहर में भी रहते तो उनके लगाये हुए पैसे उन्हेंं वापस मिलने शुरू हो जाते। मगर नहीं, व्यक्ति जहाँ रहता है उसे सारी सम्भावना सारा भविष्य वहीं पर दिखाई देता है और वह वहीं से आगे बढ़ने का लिए संघर्षों में जुट जाता है। 

महतो की सारी योजना सारे सपने ध्वस्त हो चुके थे। व्यक्ति को अपनी कमाई का निवेश वहाँ करना चाहिए जहाँ अपनी जमा-पूँजी अथवा निवेश को भविष्य में अपनी योजना के मुताबिक़ जब चाहे जैसे जहाँ उपयोग कर सके। बच्चों पर किया गया निवेश वास्तव में निवेश नहीं होता। वह उसके लालन-पालन और शिक्षा का कर्तव्य मात्र होता है इसलिए उसे निवेश मानकर उसके आधार पर कोई योजना नहीं बनानी चाहिए। क्योंकि बच्चा जब तक चलना सीखता है तब तक तो उसे कीचड़, पानी, गड्ढे, ठोकर, हर चीज़ से बचाने की ज़िम्मेवारी उसके पालनकर्ता की होती है मगर जब वह अपने पैरों पर दौड़ना सीख लेता है तो उसे अपने हिसाब से चलने की छूट देना भी अभिभावक का कर्तव्य हो जाता है। क्योंकि अब वह एक विवेकशील मनुष्य है, कोई पालतू नहीं जिसके गले में रस्सी डालकर जहाँ मर्ज़ी घुमाया जा सके या यदि अपनी इच्छा से वह कहीं जाना चाहे तो जाने से उसे जबरन रोका जा सके। 

महतो जी गंभीर व्यक्ति थे वे जनते थे “रहिनम निज मन की व्यथा मन ही राखो गोय” वरना पहले तो लोग सिर्फ़ दूर से इतराते थे, अब इतने बड़े हमदर्द बन जाएँगे कि सुबह शाम जब न तब हमदर्दी का डोज़ दे दे कर जीना दूभर कर देंगे। वैसे महतो के कुछ शातिर क़िस्म के हितैषियों को उनकी इस पीड़ा का अनुमान था जिस पर नमक छिड़कने के लिए वे कोई न कोई ऐसी बात लाड़ते रहते थे जिससे महतो की दुखती रब दबे और वो सब कुछ उन्हें बता दे। 

झींगन ठाकुर हमेशा महतो के दरवाज़े पर उठता–बैठता था। उसने अपने भाइयों से बेईमानी करके अपना दो तल्ला मकान पीट लिया था। जब न तब महतो को भी कुरेदता रहता था। 

“महतो चचा ई घरवा काहे नहीं बनवा लेते हैं।”

महतो अनसुनी करके चुप रह जाते

“सच पूछिये तो अब ई जड़ी से तोड़ के बनानेवाला हो गया है। इसमें मरम्मत का पैसा बेकारे जाएगा।”

“बनवा तो देंगे इसमें रहने कौन आएगा?” 

“हाँ बात तो आपके ठीके है मगर देखने में अच्छा नहीं लगता। इतना बड़ा आपका नाम है तीन-तीन लड़का कमा रहा है थोड़ा-थोड़ा भी लगा दे तो तीन साल में तैयार हो जाएगा।”

महतो पचासों बार अलग-अलग मुँह से इन सुझावों को सुन चुके थे। बात बहुत हद तक सही भी थी मगर कोई भी सुझाव तभी अच्छा लगता है जब उसे कार्यरूप देने की कोई सम्भावना हो। उन्हीं सुझावों को जब कार्यरूप देना सम्भव नहीं रह जाता तो बुरा लगता है। महतो अक़्सर चुप्पी से ही इन प्रश्नों का जवाब देते तो थोड़ी देर में झींगन झेंप मिटाता हुआ उठता और चला जाता। 

गाँव के सबसे सीधे माने जाने वाले लोग भी अक़्सर महतो से इस सम्बन्ध में कुछ न कुछ उगलवाने का प्रयत्न करते रहते थे मगर धरम महतो सभी की चालाकियों को विफल करके यही ज़ाहिर करते थे कि उनके बच्चे किसी बड़े उद्देश्य पर काम कर रहे हैं। जो इस गाँव में घर बनाने से कहीं सौगुना ज़्यादा ज़रूरी है। 

उस दिन झींगन ठाकुर चला गया तो दाताराम आकर बैठ गया।

“राम राम चचा।”

“राम राम दाता।”

“कहना तो नहीं चाहिए चचा हम तऽ मुरुख आदमी हैं मगर ई घरवा आपको बनावा लेना चाहिए। 
भगवान की दया से आप ख़ाली आलस ओढ़े हुए हैं नहीं तो आपको क्या कमी है।”

“देख दाताराम हमारी तुम्हारी सोच इस गाँव की सीमा के भीतर है मगर उनकी सोच हमारी तुम्हारी सोच से बहुत बड़ी है। उन्होंने दुनिया देखी है पूरा देश घूमा है। यदि मैं गाँव में घर बनाना चाहूँ तो अगले महीने से शुरू कर दूँ मगर मैं ही मना करता हूँ वे तो आज्ञाकारी हैं मैं जो कह दूँगा वे करेंगे।” 

“तो एक बार कहिए न चाचा ज़रूरत तो है ही।” 

“मगर यह भी तो सोचो इस गाँव में चाहे कोई कितने भी पैसे कमा ले उठने–बैठने के लिए क्या उस स्तर के लोग यहाँ मिल जाएँगे जिनके साथ उनका उठना–बैठना है? स्कूल, कॅालेज, बस, ट्रेन, फ़्लाइट, मेट्रो, शॅापिंग कल्ब, सड़कें, टैक्सी, और मेट्रोपॅालिटिन शहर की वे सारी सुविधाएँ यहाँ मिल जाएँगी जो वहाँ सहज ही उपलब्ध है? वहाँ के सौ वर्ग गज़ मकान की बराबरी भी क्या यहाँ के बीघे में बनी हुई कोठी कर सकती है? कभी नहीं।” 

“हाँ ई बात तो आप सही कहते हैं। अपना गाँव अब साबिक (पहले जैसा) नहीं रहा। ईंहा जलने वाला और टाँग खींचने वाला लोग बहुत हो गया है।”

महतो को इस तरह के संवादों सुझावों की आदत पड़ चुकी थी हर बार उनकी इन बातों से उनके छद्म हितैषी कुछ दिनों के लिए चुप हो जाते थे मगर यह भी एक मानी हुई सच्चाई है कि क्षुद्रता और मूर्खता न तो कभी पराजित होती है न ही कभी शर्मिंदा। इस लिए महतो के छद्म हितैषी किसी न किसी बहाने फिर सक्रिय हो जाते थे। महतो अपने तर्कों से उन्हेंं फिर बौना बना देते और आठ-दस दिनों बाद वे पुनः सक्रिय हो जाते थे। भारतीय ग्रामीण ज़िन्दगी की यह एक बहुत बड़ी विशेषता है जिसका सिलसिला कभी थमता नहीं हमेशा जारी रहता है।

 

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दस साल का समय निकल गया था। रामसकल के तीनों बच्चे जैसे-तैसे मैट्रिक पास कर गये मगर वे आगे नहीं पढ़ना चाहते थे। ग़रीबी और अभाव की ज़िन्दगी से ऊब गये थे। ख़ाली पेट विवशता में सम्भवतः भजन तो हो सकता है मगर निरुद्देश्य पढ़ाई जारी नहीं रह सकती। इसलिए वे शहरों में जाकर ज़्यादा पैसा कमाना चाहते थे। साल भर दिल्ली रहे; हेल्परी की; गंदी बदबूदार बस्तियों में बेढंगे डरावने लोगों से बच के रहना, काम पर आने–जाने के लिए चार घंटे बसों में धक्के खाना और ख़र्चे अलग। हिसाब लगाया तो अगले बीस वर्षों तक भी यदि ऐसे करते रहे तो भी कोई भविष्य कोई लाभ नहीं। गाँव लौट आए। 

रामसकल ने तीनों बेटों को समझाया। शहर में गाँव के मुक़ाबले मज़दूरी भले ही थोड़ी ज़्यादा है मगर उसी हिसाब से खरचे भी ज़्यादा है। ज़रूरतें भी ज़्यादा है और मन भी उसी हिसाब से बढ़ता है। 

जिसमें दुसरों के अनुभवों से सीखने की क्षमता होती है उसका अपना बहुत क़ीमती समय कुछ करने के लिए बच जाता है। गाँव के अन्य लोगों का उदाहरण पर ख़ूब विचार किया। फ़लाना दस सालों से दिल्ली पंजाब कमा रहा है। पक्की नौकरी है नहीं, छ्ह महीने कमाकर आता है तो तीन महीने यहाँ बैठकर खा जाता है। फ़लाना बाल-बच्चा सब दिल्ली ले गया घर में ताला जड़ा है। दो-दो साल पर आता है, न वहाँ बचत, न यहाँ घर। फ़लाना पाँच साल दिल्ली में रहकर बिगड़ गया, अब लाट बनकर दिनभर इघर-उधर घूमता है, कुछ नहीं करता। कोई वहाँ से लौट आया, यहाँ किराना की दुकान करके ख़ुश है। कोई वहाँ गार्ड है, बच्चे को यहाँ कोई कहने-सुनने वाला नहीं; बच्चे यहाँ खुल्ला मनमानी करते हैं। चिलाने के पास शहर में सब कुछ ठीक है गाँव में माँ-बाप को कोई पानी पूछने वाला नहीं। इसलिए गाँव में ही मन लगाओ. जान महमद ठीकदार से सीखो, वह भी कई सालों तक दिल्ली की फ़ैक्ट्री में सिलाई करता रहा। बारह वर्षों तक कुछ न हुआ, खा-पीकर सब बराबर होता रहा तो वापस गाँव आ गया। पाँच साल यहाँ काम सीखा। ठीकेदार हो गया अब अच्छा पैसा कमा रहा है। गाँव में ज़मीन लेकर घर भी बना रहा है। 

अंततः रामसकल के तीनों बेटों ने काम सीखकर गाँव में ही अपना रोज़गार जमाने का निर्णय लिया। उसका बड़ा और छोटे दो बेटे उसी के साथ हेल्परी करके राजमिस्त्री का काम सीखने लगे। दूसरा मोहम्मद इस्माइल के गैरेज में हेल्पर होकर बाइक रिपेयरिंग का काज सीखने लगा। अब चार तरफ़ से चार आमदनियाँ एक जगह जमा होने लगीं तो बचत वाली गठरी मोटी होने लगी। आमतौर पर नवयुवक जब मोटर ड्राइविंग या मरम्मत लाईन में जाता है तो वह गुटखा, तंबाकू, बीड़ी, शराब, गंदी गालियाँ, भद्दे मज़ाक और फ़ुज़ूलख़र्ची सीख जाता है मगर ये सारी बुराइयाँ सिर्फ़ उन्हें लगती हैं जिसके जीवन में खाने-कमाने के सिवा कोई उद्देश्य नहीं होता। इन तीनों भाइयों का एक उद्देश्य था। घर बनाने के लिए दस धूर से ज़्यादा जगह नहीं थी। और उसके घर से सटे भोमल सिंह का चरकठवा खेत बिकाऊ था जिसका कोई ग्राहक मिल नहीं रहा था। उसी के चलते दो साल से भोमल सिंह के लड़की की शादी भी रुकी हुई थी। 

चारों बेटे पुते मिलाकर एक हज़ार रुपये प्रतिदिन की दिहाड़ी कमा रहे थे। कुछ भैंस से आमदनी थी। दो सौ रुपये ख़र्चा काटकर आठ सौ रुपये प्रतिदिन की बचत हो रही थी। साल में तीन सौ दिन से ज़्यादा काम भी मिल रहा था। साल भर के भीतर ही क़रीब ढाई लाख रुपये जमा हो गये। सवा लाख रुपये कट्ठा के हिसाब से रामसकल ने चार कठे ज़मीन का सौदा तय कर लिया। भोमल सिंह ने आधे रुपये जमा कराके रजिस्ट्री कर दी और बाक़ी रुपये साल भर के भीतर दे देने तथा समय पर रुपये न देने की स्थिति में दो रुपये सैंकड़े ब्याज भरने की लिखा-पढ़ी भी हो गई। भोमल सिंह लड़की के लिए रिश्ता देखने लगे। लड़के का पता करने, देखा-देखी, आने-जाने, लेन-देन और लग्न तय करने में लगभग इतना समय तो लग ही जाता है। तब तक बाक़ी रुपये भी आ ही जाएँगे। 

रामसकल का काम अच्छा चल रहा था। सालभर की भीतर ही बाक़ी रुपये चुका दिये। तब तक उसके तीनों बेटे अपने-अपने काम सीख चुके थे। आमदनी अब लगभग दो गुनी बढ़ गई थी। और उधर दो भैंस भी अपनी हो चुकी थीं। अब उस जगह पर सबसे पहले मकान बनाने का काम ज़रूरी था। इतने दिनों तक काम करने के बाद रामसकल की ईंट, छड़, सीमेंट, रेत-बालू वालों से अच्छी जान-पहचान हो गई थी। बाज़ार से कम दर पर छह महीने तक बिना तगादे की शर्तों पर सारा सामान गिरवा लिया। मिस्त्री और लेबर घर में ही थी। पछियारी गाँव के वकील साहब के घर का नक़्शा कलकत्ता के किसी बड़े आर्किटेक्चर कंपनी से बनकर आया था। हूबहू बनाने के लिए उतना बजट नहीं था मगर आधारभूत नक़ल तो की ही जा सकती थी जो कर ली। थोड़े-थोड़ा हर साल करते-करते छह साल में छह कमरों का देखने लायक़ मकान बन गया। सही जगह पर सही नाप के दरवाज़े, खिड़कियाँ और कमरों की लंबाई चौड़ाई उँचाई का सही अनुपात ही वह असली इंजिनियरिंग है जो मकान की ख़ूबसूरती में चार चाँद लगाती है। सजावट और बाहरी अतिरिक्त सजावटी डिज़ाइन के बिना आर्किटेक्चर के नक़्शे पर जब सादा मकान बनकर तैयार हुआ तो बिना प्लास्तर हुए भी वकील साहब के मकान से भी ज़्यादा खुलने लगा। शहर में शिफ़्ट हो चुके पढ़े-लिखे लोग भी जब गाँव आते तो उसका मकान देखने जाते, देखकर दंग होते ऊपर से प्रशंसा करते और मन ही मन अचरज करते कि इन अनपढ़ मज़दूरों को इतनी अक़्ल कहाँ से आ गई? स्वयं को कोसते और अपने प्रस्तावित मकान का बजट बढ़ाकर इससे अच्छा बनाने की योजना बना कर वहाँ से वापस आते। जो वास्तव में कभी शुरू ही नहीं होती। 

देखते-देखते दस साल और गुज़रे तो रामसकल के दोनोंं बेटे ठीकेदार बन चुके थे। आमदनी बढ़ चुकी थी। पढ़ी-लिखी तीन बहुएँ घर में आ चुकी थीं मगर उद्देश्य स्थिर था। लक्ष्य अभी भी एक था। बहुएँ अपना ख़र्च स्वयं निकाल रही थीं। पहली गाँव के बच्चों को ही ट्युशन पढ़ाने लगी, दुसरी शिक्षा मित्र हो गई तीसरी आँगनबाड़ी से जुड़ गई। 

 

♦  ♦  ♦  

 

बाज़ार की वह ज़मीन जिस पर महतो की नज़र थी, रामसकल के नाम हो गई। अब उस पर आरजी मार्केट (रामगुलाम मार्केट) की योजना बन रही थी। 

समय के साथ तरक़्क़ी सभी की जारी थी। दरबार के कई बच्चे विदेशों में सेट हो चुके थे बाक़ी यहाँ पर अपने अपने धंधे में लगे हुए थे। महतो जैसे लोग पहले गाँव के मंझोले किसान थे अब उनके बच्चे शहर में मकान और कार ख़रीदकर वहाँ के मध्यम वर्ग बन चुके थे। गाँव में महतो का भी दो तल्ला घर बन चुका था जहाँ कोई रहता नहीं था, ताला जड़ा था। महतो जी ने भी अपना मन शहर में ही लगा लिया था। 

मगर सबसे ज़्यादा तरक़्क़ी यदि हो रही थी या हुई थी तो रामसकल और उसके जैसे कुछ अन्य लोगों की जो कभी विवश बेगारी मज़दूर थे। दिन-रात की कड़ी मेहनत के बाद भी जो भरपेट भोजन और शरीर पर कपड़े नहीं जुटा पाते थे। अब सुखी एवं समृद्ध जीवन का आनंद ले रहे थे। उनकी ज़िन्दगी को किसी आदमी ने नहीं बदला था, ईश्वर ने भी नहीं बदला था। इस बदलाव में देश और समाज की सामूहिक तरक़्क़ी थी। सामूहिक बदलाव था। सरकारी नीतियाँ थी, नीतियों से अवसर, अवसर से रोज़गार, रोज़गार से आय, आय से नया निर्माण और नये निर्माण से पुनः पैदा हो रहे नये अवसर थे। जो जान महमद और रामसकल को मिले और सतत मिलते रहे। 

इन सबके ऊपर, इन सबसे महत्त्वपूर्ण एक बात थी। और वह था रामसकल के पारिवारिक समन्वय का सामूहिक धैर्य, स्थिर लक्ष्य। लक्ष्यप्राप्ति का निरंतर प्रयास और सही अंकगणित। दिहाड़ी का अर्थशास्त्र। 

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टिप्पणियाँ

Sarojini Pandey 2022/06/30 09:54 PM

बढ़िया कहानी युगांतर की। काल का नियति चक्र

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