शत्रु है अदृश्य निहत्था
काव्य साहित्य | कविता राजनन्दन सिंह1 Jun 2020 (अंक: 157, प्रथम, 2020 में प्रकाशित)
शत्रु है अदृश्य निहत्था
अशरीर विषाणु है
विवश हमारी तोप है बैठी
निष्प्रभावी परमाणु है
सबसे पहला वार है भारी
मानव-मानव को दूर किया
बदल एकता की परिभाषा
अलग-अलग मजबूर किया
कान भरे न फूट न डाले
घर बैठाये खिन्न करे
मानव की शक्ति मानव की
ही बुद्धि से क्षीण करे
सामाजिक दूरी बढ़वाये
शिष्टाचार भी बंद करे
दूर से जोड़े हाथ अकेले
अपने घर आनंद करे
नहीं कहीं पर जीवन उत्सव
नहीं मृत्यु पर मित्र स्वजन
सामाजिकता सिमट रही
सशंक परस्पर हैं परिजन
वार दूसरा महाबंदी है
चक्र टूटता रोज़ी का
अर्द्ध प्रलय है क्या है?
कुछ पहचान नहीं जनरोधी का
ग्राम नगर से महानगर तक
इसी शत्रु की बातें है
वैद्य चिकित्सक शोध करे
पर दवा शोध नहीं पाते हैं
मुँह छुपाने की हिदायत
हाथ में दस्ताना पहनें
बहुत ज़रूरी पर ही निकलें
दूर यथासंभव रहने
हाथ धोकर बचाव करते
बचाव की मुद्रा में हम
कहने को अदृश्य विषाणु
पर आफ़त भारी-भरकम
एक तरफ़ यह अशरीरी है
लिये विश्व को चंगुल में
विश्वयुद्ध भी कैसे कहें जब
विश्व विवश इस दंगल में
शत्रु है अदृश्य निहत्था
अशरीर विषाणु है
विवश हमारी तोप है बैठी
निष्प्रभावी परमाणु है
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