सचेतक का धर्म
काव्य साहित्य | कविता राजनन्दन सिंह1 Aug 2021 (अंक: 186, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
कथित पापी ने
अनजाने
सचेतक का
धर्म निभाया
पाखंडी का रूप धरा
पीड़ित को दिखाया
पीड़ित को चेताया
पाखंडी ऐसा होता है
पाखंड ऐसा हो सकता है
पाखंडियों ने शोर मचाया
देखो यह दुष्ट पापी
हमारे वेश में पाप कर रहा है
हमारे वेश को बदनाम कर रहा है
पापी मारा गया
पाखंडियों ने अपना पाखंड बचा लिया
पापी को मरवा दिया
रावण ने भी तो धरा था
साधू वेश
ताकि ऋषि बदनाम हो
क्या हुआ…?
नहीं..
नहीं न!
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टिप्पणियाँ
डॉ पदमावती 2021/07/29 08:04 PM
जी बिलकुल सत्य । पाखंड का बोलबाला! पाखंड की जय हो । आज यही अनुकरणीय आदर्श ! बहुत बधाई और शुभकामनाएँ ।
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राजनन्दन सिंह 2021/07/30 08:41 AM
आदरणीया डाॅ पद्मावती जी, रचना को पढ़ने एवं रचना पर आपकी टिप्पणी के लिए सादर आभार। जी हमारे समाज का यह एक कटु सत्य है कि पाखंडियों ने अपना नाम सत्य रख लिया है। और वे समाज को गुमराह करते हैं। मेरी इस रचना का यही भाव है।