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ज़िंदगी (राजनन्दन सिंह)

ज़िंदगी - 1

शानदार महलों की
जानदार कुर्सी पर
कोमल सुन्दर उस डॅागी की
एक ज़िंदगी है
वह रोज़ नहाता है
वातानुकूल कार में घूमता है
फूलों के बाग़ में
झूले पर बैठी हुई
रमणी की गोद में 
आसीन वह श्वान
सुन्दरियों से स्नेह पाता है
स्वामी का गाल चूमता है
 
ज़िंदगी - 2
 
धूल भरी सड़क किनारे
कौए के घोंसले की भाँति
टूटी हुई गोहिया में
भूखे और सूखे गले से
चिल्लाते हुए लाल बच्चे की
एक ज़िंदगी है
उसकी माँ सुबह से शाम तक
सड़क पर अब पत्थड़ तो नहीं तोड़ती
मगर मिट्टी खोदती है
धूप में झुलसा
झिंरकुट चेहरा
भूख से विह्वल 
पेट पकड़े टकटकी लगाए
धनी के द्वार पर
बिलबिलाते हुए
उस बच्चे की 
एक ज़िंदगी है
उसका बाप
घर में दारू पीता है
उसकी विवश अपंग माँ
दिनभर इधर-उधर घर-घर 
आज भी डोलती है

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