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सामाँ-चकवा – बिहार का एक सांस्कृतिक खेल

बिहार राज्य को लघु भारत कहा जाता है। जिस तरह भारतवर्ष विभिन्न भाषा-संस्कृति, रहन-सहन, खान-पान, पर्व-त्योहार एवं अलग-अलग वेशभूषा तथा पहनावों की एक मिली-जुली संस्कृति है। ठीक उसी तरह बिहार राज्य भी कई भाषा-संस्कृति, रहन-सहन, खान-पान, पर्व-त्योहार एवं अलग-अलग परंपराओं की धरती है। अखंड बिहार से झारखंड अलग होने के बाद मूल भूभाग का लगभग आधा भाग ही वर्तमान बिहार है। फिर भी यहाँ मैथिली, भोजपुरी, मगही, अंगिका और वज्जिका जैसी पाँच अलग-अलग भाषाएँ तथा कुछ अन्य बोलियाँ हैं। जिनकी अलग-अलग अपनी-अपनी सांस्कृतिक पहचान एवं परंपराएँ है। 

भारतेन्दु युग में खड़ी बोली हिन्दी के भाषा स्वरूप में विकसित होने तथा अस्तित्व में आने के बाद बिहार की ये सभी मातृभाषाएँ वहाँ की नानी अथवा दादी भाषाएँ हो गई तथा मानक मातृभाषा का स्थान हिन्दी ने ले लिया। तत्पश्चात कुछ लोग बिहार की इन भाषाओं को भाषा के बदले बोली भी कहने लगे और कहते हैं मगर वास्तव में ये सभी, मागधी एवं पूर्वी अर्धमागधी भाषा परिवार की भाषाएँ हैं जिनकी ब्रिटिश काल से पहले मुग़ल काल में कभी अपनी लिपि भी हुआ करती थी तथा आज भी ये भाषा होने की लगभग सभी शर्तों (लिपि छोड़कर) को पूरा करती हैं। हालाँकि इनमें से एक भाषा "मैथिली" संविधान की आठवीं अनुसूची में सूचीबद्ध है और भोजपुरी को भी सूचीबद्ध करने की बात चल रही है। ख़ैर यह शोध का विषय है। 

मेरे इस लेख का मुख्य विषय बिहार की एक सांस्कृतिक खेल "सामाँ-चकवा" नामक एक पारंपरिक खेल पर केन्द्रित है जो बिहार के तिरहुत तथा मिथिला क्षेत्र के साथ-साथ बिहार की सीमा से लगे नेपाल के तराई क्षेत्रों में भी खेला जाता है। बिहार की अलग-अलग भाषा एवं संस्कृतियों की चर्चा की ज़रूरत इसलिए पड़ी क्योंकि इस लेख का जो मुख्य विषय सामाँ-चकवा नामक सांस्कृतिक खेल है जो सामान्यतः समूचे बिहार में नहीं खेला जाता इसलिए बिहार की अलग-अलग भाषा संस्कृति एवं परंपराओं को पहले स्पष्ट करना ज़रूरी लगा। 

सामाँ-चकवा बिहार के तिरहुत एवं मिथिला क्षेत्र का एक पारंपरिक खेल है जो हिन्दी मास कार्तिक शुक्ल सप्तमी से पूर्णिमा रात्रि तक ग्रामीण लड़कियों द्वारा खेला जाता है। कार्तिक शुक्ल सप्तमी की सुबह ही भोर अर्घ्य के साथ प्रसिद्ध पर्व छठ की समाप्ति होती है और उसी संध्या से इस खेल की शुरूआत होती है। 

यह खेल वास्तव में एक“गीति नाटिका” है जो लड़कियों के सामूहिक या कोरस गान के साथ गाकर खेला जाता है जिसके गीतों में मुख्य पात्र होते हैं सामाँ, चकवा, खिड़रिच, सतभैया, भँओरा (भँवरा) इत्यादि। ये सभी पक्षियों के नाम हैं जिसमें सामाँ और खिड़रिच बहन का प्रतीक है तथा चकवा और सतभैया भाई का प्रतीक है। इसके अलावे इस खेल में चुंगला तथा विरदावन का नाम भी आता है। चुंगला का अर्थ है चुग़लख़ोर जो अक़्सर भाई-बहन, ननद-भौजाई, घर-परिवार अथवा गाँव-समाज में चुग़लख़ोरी करके झगड़ा लगाने का काम करता है। विरदावन के बारे में यह स्पष्ट नहीं है कि इस खेल के गीतों में गया जाने वाला विरदावन वास्तव में कौन सा विरदावन है। मथुरा का प्रसिद्ध पौराणिक वृंदावन या कोई और विरदावन? 

इस खेल के गीतों में आनेवाले सभी पात्रों की प्रतीकात्मक मूर्ति या प्रतीक बनाई जाती है। सामाँ एक सुंदर लड़की के सिर की मूर्ति होती है। इतनी सुंदर कि महिलाएँ गाँव की सुंदर बच्चियों को अक़्सर सामाँ जैसी सुंदर कह बैठती हैं। सामाँ की मूर्ति के साथ ही मिट्टी की एक छोटी सी मूर्ति रखी रहती है जो हरदम सामाँ के साथ रहता है, वह चकवा है। दो छोटी-छोटी चिड़ियानुमा मूर्तियाँ अक़्सर एक साथ बनाई जाती हैं वह खिड़रिच है। 

सतभैया हालाँकि एक ही पक्षी का नाम है मगर शाब्दिक अर्थ के आधार पर एक ही साथ सात भाइयों की प्रतीकात्मक मूर्ति बनाई जाती है। सम्भवतः यह परिवार में लड़कों की संख्या तथा बहन के लिए भाइयों की समृद्धि को भी दर्शाता है। चुंगला की मूर्ति एक बड़ी पेटनुमा आकृति होती है जिसके कान क्षेत्र के आर-पार दोनों तरफ़ मुट्ठी भर लंबा सन का रेशा निकला होता है जो उसके बूढ़े होने अथवा सफ़ेद बालों का प्रतीक होता है। विरदावन सींक के फूलों का बंडल होता है जो मिट्टी के आधार से जुड़ा होता है। इन सभी मूर्तियों तथा प्रतीकों के साथ एक मिट्टी के तेल का दिया बाँस के एक छोटे से दउरा (डलिया) में रखा जाता है जिसे डाला कहते है। अब यह डाला सामाँ चकवा खेल के लिए तैयार है। 

संध्या को रात्रि भोजन के पश्चात डाला को माथे पर लिये अपने-अपने घरों से लड़कियाँ गाँव में किसी एक जगह जमा होती है और वहाँ से गाँव में घूम-घूम कर या किसी नियत जगह पर बैठकर सामाँ चकवा का खेल शुरू होता है। 

माई सामाँ खेले गेलियई सभे भइया के आँगना हे
आहे कनिया भउजो लेलेन लुलुआय कहाँ ननदो आएल हे
मति लुलुआवहु मति हहरावहु कनिया भउजो हे
आहे जवले रहतई माय-बाप के राज तवले सामाँ खेलब हे
भउजो छुटि जएतई माँए बाप के राज, छोड़ब राउर आँगन हे
इतना वचनिया जबे सुनलन सभे भइया हे
भइया मारे लागलन चभकी घुमाए बहिनिया मोरा पाहुन हे

गीत का भावार्थ-बहनें सामाँ खेलने भाइयों के आँगन जाती हैं। छोटी भाभी ने ननदों का मज़ाक उड़ाते हुए पूछ लिया कि आप लोग कहाँ आई हो? ननदों ने जबाब दिया हमारा मज़ाक मत उड़ाओ जब तक माँ-बाप है तब तक हमारा भी यहाँ अधिकार है और हम यहाँ सामाँ खेलेंगे, खेलते रहेंगे। जब माँ बाप का समय नहीं रहेगा तब हम तुम्हारा आँगन छोड़ देंगे। बिना बुलाये नहीं आएँगे। इस बात-चीत को भाइयों ने सुन लिया फिर क्या था भाई ने अपनी पत्नी को चाबुक दिखाते हुए धमकाया कि मेरी बहन से तुमने ऐसी बातें क्यों की? बहनें हमारी मेहमान हैं। इस गीत में बहनें यह प्रदर्शित करना चाहती हैं कि उसका भाई उसे बहुत ज़्यादा प्यार करता है और उनकी सभी भावनाओं का ध्यान रखता है। 

खेल के दौरान लड़कियाँ चुंगला को सबक़ सिखाने के लिए उसके बालों में दीये से आग लगाती हैं और बुझा देती हैं। विरदावन के सींक में भी आग लगाती और बुझाती हैं साथ में गाती भी रहती हैं—

“विरदावन में आग लागल केहु न बुझावे हे . . . हम्मर भइया बुझावे हे” 

इस प्रयत्न से सम्भवतः वे यह कहना चाहती हैं कि उसका भाई न सिर्फ़ बहादुर है बल्कि गाँव समाज का एक ज़िम्मेवार व्यक्ति भी है

सामाँ, चकवा, खिड़रिच, सतभैया इत्यादि नामक पक्षी प्रवासी पक्षी होते हैं। जिस तरह कोयल साल भर नहीं कूकती उसी तरह ये पक्षी भी साल भर नहीं दिखते। ठीक उसी तरह लड़कियाँ भी अपने माँ-बाप के घर या गाँव समाज में अस्थायी रूप से ही रहती हैं। शादी के बाद वे भी प्रवासी हो जाती हैं और सामाँ, चकवा, खिड़रिच, सतभैया इत्यादि पक्षियों की तरह किसी मौसाम विशेष यानि किसी विशेष अवसर या पर्व त्योहारों पर ही मैके आती है। 

चूँकि छठ बिहार का महापर्व है इसलिए नवविवाहिता लड़कियाँ अक़्सर आवश्यक रूप से इस पर्व में अपने मायके बुलाई जाती थीं। पर्व समाप्ति के बाद आज की बेटियाँ तुरंत वापस चली जाती हैं मगर पहले ऐसा सम्भव नहीं हो पाता था। वे दो-चार महीने या कम से कम कार्तिक पूर्णिमा तक मायके में रुकती थीं। बचपन की बुछुड़ी हुई सहेलियाँ आपस में मिल-जुल सकें, अपने सुख-दुख आपस में बाँट सकें सम्भवतः इसीलिए इस खेल का सृजन हुआ होगा। और जब खेल का सृजन हुआ तो उसी के अनुसार गीत और कथानक भी बनते चले गए। 

साहित्यिक दृष्टि से यदि इस खेल के गीतों अथवा इस गीति नाटिका को देखा जाए तो इसमें सादृश्यमूलक श्रेणी का रूपक अलंकार है। सामाँ के अलग-अलग गीतों में इनके उपमान तथा उपमेय परस्पर बदलते रहते हैं। कभी बहनें उपमान होती हैं तो चिड़िया उपमेय बनती हैं और कभी-कभी चिड़िया उपमान होती हैं तो बहनें उपमेय बन जाती हैं। 

पक्षियों के बहाने यह खेल वास्तव में भाई बहन के प्रेम का है। भाई पर बहनों का अधिकार, भाई की प्रशंसा, भाई से रुठना, भाई द्वारा बहनों को मनाना, बहन के मान-सम्मान की रक्षा करना इत्यादि ही सामाँ के विभिन्न गीतों का विषय तथा भाव होता है। उदाहरण के लिए नीचे का यह गीत इस खेल का एक बहुत अच्छा चित्र प्रदर्शित करता है। परिस्थिति यह है कि बहन की शादी हो चुकी है और भाई अपने काम में व्यस्त है बहन से मिलने या उसे बुलाने नहीं गया। 

एहि पारे चकवा भइया खेलतऽ रे शिकार
ओहि पारे खिड़रिच बहिनो रोधना रे पसार
तोहरो रोधनमा हे बहिनी मोरो ना रे सोहाए
बाबा के सम्पत्तिया हे बहिनी आधा देबो हे बाँट
बाबा के सम्पत्तिया हो भइया भतीजबा के र हो भाग
हम परदेशी हो भइया मोटरिया के र हो आश
आबे देहि अगहन गे बहिनि कटएबो जिरबा हे धान
चिउड़ा कसरवा हे बहिनी मोटरिया देबो हे बान्ह
भाड़ लेले भड़िया हो भइया डोली लेले कहार
छतवा लेले सभे भइया बहिनिया बोलावे हे जाए

गीत का भावार्थ-इधर चकवा भाई अपने कामों में व्यस्त है उधर खिड़रिच बहन रूठी हुई है। भाई उसे संदेश भेजता है कि बहन तेरा यह रूठना मुझे पसंद नहीं है, तुम इस तरह परेशान मत हो मैं पिता की सम्पत्ति में से आधा बाँटकर तुझे दे दूँगा। बहन संदेश देती है कि पिता की सम्पत्ति मेरे भतीजों यानि तुम्हारे पुत्रों के लिए है। मैं तो ब्याह के बाद परदेशी हो गई हूँ। कुछ सनेस की मोटरी लेकर तुम मुझे देखने आ जाओ यही पर्याप्त है। भाई संदेश भेजता है कि ठीक है अगहन आने दो मैं सबसे महीन धान (सबसे अच्छी क़िस्म का धान) कटवाउँगा। फिर चिउड़ा और कसार (भुने हुए चाल और गुड़ का लड्डू) सनेस के रूप में भेजूँगा। इसके आगे गीत की अंतीम पंक्ति में एक चित्र उभरता है कि भाई अपने हाथ में छाता लिये सनेस भाड़िक (काँधे पर सनेस का भाड़ ढोनेवाला) तथा डोली कहार के साथ बहन को बुलाने जा रहा है। भाई-बहन के प्रेम को दर्शाती यह बड़ा ही भावुक गीति चित्र है जो हृदय को छूता है। 

गीतों की कड़ी में इससे आगे भी गीत है। भाई बहन को बुलाकर ला रहा है और भाभियाँ ननद की आगवानी एवं स्वागत के लिए अपने बाग़ में ठंडा पानी लिये खड़ी हैं। मिथिला क्षेत्र में पहले ऐसी परंपरा थी कि जब किसी बेटी की डोली गाँव से बाहर जाती थी तो गाँव की सीमा तक स्त्रियाँ उसके साथ जाती थीं और पानी पिलाकर उसे विदा किया जाता था। इसी तरह कहीं-कहीं जब बेटी कि डोली वापस आती थी तो गाँव की सीमा पर ही उसे पानी पिलाकर स्वागत किया जाता था। पहली बार आनेवाली बहू की डोली भी गाँव के बाहर किसी बग़ीचे में थोड़ी देर के लिए ठहर कर विश्राम करती थी। 

सभे भइया के एहो घन फुलवरिया हे
कि बइठू हे ननदो एहि जुड़ि छँहिया हे
लोटवा लेले दउरल आवे से सभे भउजो हे 
पीउ हे ननदो इहो शीतल पनिया हे
कनिया भउजो के केशिया चँवर सन हे
कि ओहि रे केशे गूँथबो चमेली फूल हे

गीत का भावार्थ-बहन अपने भाई के साथ मायके आ रही है। भाइयों के घनी फुलवारी में भाभी पानी लिये ननद का इंतज़ार करती है उसे ठंढी छाँह में बैठने तथा शीतल जल पीने को कहती है। ननद भी अपनी छोटी भाभी के सुंदर लंबे बालों में चमेली का फूल गूँथना चाहती है। और इस तरह भाई-बहन, ननद-भौजाई का आपसी प्रेम आगे बढ़ता है जो कि वास्तव में जीवन है, जीवन का उद्देश्य है। 

कार्तिक पूर्णिमा को विभिन्न उपहारों के तथा अगले वर्ष पुनः आने के न्योते के साथ सामाँ की विदाई होती है। भाई अपने सर के ऊपर से पीछे की तरफ़ सामाँ को किसी नदी या तालाब में भँसान (प्रवाहित) कर देता है और इस तरह इस खेल की समाप्ति होती है। 

इस पारंपरिक तथा सांस्कृतिक खेल का कोई प्रमाणित इतिहास ज्ञात नहीं है। कुछ लोग मिथकों के रूप में सामाँ को भगवान कृष्ण की पुत्री बताकर दंतकथा के रूप में इसे मथुरा के वृंदावन से जोड़ने का प्रयास करते हैं मगर यह कहीं से भी तार्किक प्रतीत या सिद्ध नहीं होता। कहाँ इस खेल का सम्बन्ध उत्तरी बिहार तथा सीमांत नेपाल के कुछ सिमित क्षेत्रों से है और कहाँ मथुरा इससे सैकड़ों कोस दूर है जिसका आपस में कोई ताल-मेल नहीं है। 

इस खेल या सामाँ का सम्बन्ध यदि भगवान कृष्ण से होता तो ब्रज इस खेल से अछूता नहीं रहता। सबसे ज़्यादा यह ब्रज क्षेत्र में ही खेला जाता तथा ब्रज का यह एक मुख्य सांस्कृतिक खेल होता। इतना ही नहीं थोडी-बहुत भिन्नता के साथ यह समूचे भारत का खेल होता। मगर ऐसा नहीं है, इससे यह सिद्ध होता है कि सामाँ के खेलों में वर्णित विरदावन, भगवान कृष्ण का वृंदावन नहीं है। या तो वह कोई और विरदावन है या फिर किसी और वन के लिए वृंदावन की उपमा का प्रयोग किया गया है। 

और अंततः भाई-बहन के प्रेम पर आधारित यह खेल विशुद्ध रूप से तिरहुत एवं मिथिला क्षेत्र का सांस्कृतिक खेल है। 

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टिप्पणियाँ

Dr Padmavathi 2021/12/15 08:26 PM

नमस्कार आपके लेख ने तेलंगाना के लोकपर्व ‘बतकम्मा’ का स्मरण करा दिया । इन लोक गीतों का भले ही कोई तार्किक आधार न मिले, कोई लिखित साहित्यिक रूप भी न हो, लेकिन जनमानस में किस प्रकार रच बस गए हैं, सोच कर आश्चर्य होता है । बहुत सुंदर । बहुत साधुवाद आपको ।

Sarojini pandey 2021/12/15 04:12 PM

बहुत प्यारा आलेख है उद्धृत लोकगीत भी अत्यंत मधुर एवं भावभीने है विरदावन तुलसी की क्षुप का प्रतीक भी हो सकता है, कार्तिक मास के बाद शीत का प्रकोप बढ़ने लगता है और तुलसी के पौधों की सूखने की संभावना बढ़ जाती है ।वृंदावन का शाब्दिक अर्थ भी तुलसी का वन ही होता है! यह मेरा केवल अनुमान है।

डॉ वी एन प्रसाद 2021/12/15 09:53 AM

बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति । बिहार के विलुप्त होते इस संसकृति पर प्रकाश डालते हुए आपने जो समाजिक और पारिवारिक मूल्यों को दर्शाने का प्रयास किया है ।अति सराहनिए है।

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