हमारी क्षणभंगुर चाह
काव्य साहित्य | कविता राजनन्दन सिंह15 Jun 2021 (अंक: 183, द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)
वायरस प्रकोप
ऑक्सीजन की कमी
मुँहजाब1 की विवशता
और अब..
सर्वसुविधासंपन्न प्रदूषित महानगरों से
वनों की स्वच्छता में लौट जाने की
हमारी क्षणभंगुर चाह
वस्तुतः प्रमाण है
हमारी उन ग़लतियों की
उन विवशताओं का
जब जंगल उजड़ रहे थे
हम रोक नहीं पाए
सभ्यता के मद ने
तब सुनी ही नहीं
उन आदिवासियों की बातें
जो पेड़ों के साथ कट गये
और आज संरक्षित वनों की तरह
जहाँ-तहाँ कहीं-कहीं
मुट्ठियों में सिमट गए
वरना हम यहाँ आते ही क्यों
जहाँ हम आ पहुँचे हैं
यह नगर भी कभी गाँव था
और गाँव से पहले
यहाँ भी जंगल था
हरे-हरे वृक्ष लताओं से भरे
प्रकृति के वन झरने झीलें
उनकी नील गहराइयों में तैरती
मछलियों की चंचल पीठ और पंख
ढाबूस2 की लम्बी छलांग
और पानी में छपाक
देखना सुनना
भला किसको नहीं भाता
मगर तब वह व्यष्टिगत नहीं
समष्टिगत होता
चारदिवारियाँ शायद
संभव नहीं हो पाती
फिर वे तलवारें क्या करती
जिसे धारण करती भुजाएँ
भूमि को अपनी माँ नहीं
अपनी ब्याहता समझता था
जिसने अपना नाम भूमिपति
भूमिपाल रख लिया
गौरैयों ने तो अपना अलग से
कोई नाम नहीं रखा
हमारे वश की होती तो हम
नहीं पहनते कंगन कुंडल
नहीं लूटने देते खदानें
नहीं खोदने देते नदियों से रेत
पीते रहते इनार3 का पानी
नहीं होने देते पानी को बोतल में बंद
नहीं पढ़ते कोयले की उपयोगिता
नहीं कटने देते लकड़ियाँ और अंधाधुंध जंगल
नहीं लगने देते डायनामाईट
टूटने नहीं देते पहाड़
भले ही हमारा नाम
असुरों की सूची में होता
हम नहीं बसते नदियों के किनारे
नहीं मिलती नगर की गंदी नालियाँ गटर
और फ़ैक्ट्रियों के ज़हर
सीधी निर्मल नदियों में
हम बनाते ही क्यों
रासायनिक प्रयोगशालाएँ
जहाँ किसी वैज्ञानिक के मन में
ज़ुकाम नियंत्रण के बदले
ज़ुकाम बढ़ाने व फैलाने का
मन में पनपता कोई कुविचार
फिर पैदा ही क्यों होता स्पेनिश फ़्लू
या कोविड उन्नीस का वायरस
वायरस के वैरिएंट
और वैरिएंट के म्युटेंट्स
आराम की तलब में
हमने वो काम बदल लिये
जो प्रकृति ने हमें दिये थे
हमारा वहम है हमने अपनी उम्र
और जनसंख्या बढ़ा ली है
दवाइयाँ बनाकर
गौरैयों ने कुछ नहीं बनाया
तो क्या वे लुप्त हो गईं?
बिल्कुल नहीं!
हमने अपने-अपने तरीक़ों से
बना लिये अपने-अपने भगवान
मगर भूल जाते हैं कि सृष्टि का नियंता
बैठा है सबसे उपर
हमारी ख़ुराफ़ातों से उत्पन्न असंतुलन
संतुलित करने के लिए
हमें समझना होगा
समुंदर किनारे हमारे बनाये हुए रेत के घरौंदे
जब लहरें बहा ले जाती है
तो हम ख़ुश क्यों होते हैं?
1.मुँहजाब = मास्क; 2. ढाबूस=बड़ा मेढक; 3. इनार= कुँआ
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