खोटे घर की बेटी
कथा साहित्य | कहानी राजनन्दन सिंह15 Aug 2022 (अंक: 211, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
सीतारमण सिंह फूलझड़िया गाँव के पुराने धनी तथा प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। पच्चीस बीघा खेती की ज़मीन, दरवाज़े पर ट्रैक्टर, मोटरसाईकिल, साइकिल, एक जोड़ी बैल, एक भैंस, एक गाय, एक नौकर, हरवाहा, चरवाहा, घसवाहा, खेती का काम देखने के लिए एक जिरतिया (मैनेजर) सब कुछ था। ख़ुद किसी सरकारी बैंक में ऑफ़िसर थे। काम से लेकर नाम दाम किसी चीज़ की कमी नहींं थी। उनका बड़ा लड़का मदन कुमार वैसे तो हर तरह से ठीक था मगर देखने में थोड़ा सुस्त सा दिखता था। कुछ लोग उसे मंदबुद्धि अथवा असामान्य समझते थे मगर वह असामान्य था नहींं। पढ़ने लिखने तथा अपने काम में हर प्रकार से सामान्य ही था। मगर जैसा कि प्रकृति अपनी प्रत्येक रचना में कोई न कोई दोष शेष रखती है। उसी प्रकार मदन में सुस्ती उसका स्वभाव शेष था। छोटा लड़का अमर कुमार हर प्रकार से ठीक था। कमी उसमें भी थी। वह मेहनत तथा काम से जी चुराता था। मगर उसका यह दोष किसी को दिखता नहींं था। धनी किसान का लड़का था। घर में नौकर चाकर थे हीं काम करने की ज़रूरत वैसे ही नहीं थी।
मदन कुमार बीए पास करके कंपीटिशन की तैयारी कर रहा था। उसके लक्ष्यों में बैंकिंग, रेलवे, एसएससी, सेना अथवा बीए के बाद की वह सभी नौकरियाँ थी जिसकी वह पात्रता रखता था।
सीतारमण बाबू ने सोचा नौकरी तो लगती रहेगी घर में किसी चीज़ की कमी है नहींं अतः मदन का ब्याह कर दिया जाए। अगुआ, वर्तुहार आने-जाने लगे। एक उठता तो दूसरा बैठता ऐसा दो सालों तक चला। मगर बात कहीं पक्का नहीं हुई। सब कुछ ठीक था। मदन का सुस्त स्वभाव वर्तुहारों का मन छोटा कर रहा था। अमर भी मदन से दो ही साल छोटा था तब तक वह भी बीए कर चुका था। देखने-सुनने में वह मदन पर बाइस था इसलिए वर्तुहारों का ध्यान अनायास ही उधर चला जाता था। सीधे-सीधे मना करने की परंपरा और शिष्टता नहीं थी। इसलिए अगुआ लोग बहाना बनाता था कि मेरी लड़की की उम्र अभी कम है, इस साल आप बड़े का ब्याह निपटा लीजिए। हम छोटे बाबू के लिए एक-दो साल आपका इंतज़ार कर लेंगे। सीतारमण बाबू को यह बात बहुत बुरी लगती थी कि लोग बड़े बेटे का रिश्ता लेकर आते हैं और छोटे को देखकर अपनी लालच प्रदर्शित करने लगते हैं।
वसुधा एक बहुत ही सामान्य मगर महत्वाकांक्षी परिवार की लड़की थी। फूलपुर हाई स्कूल में अमर के साथ पढ़ी भी थी। कुछ दिनों तक अमर उसकी तरफ़ आकर्षित भी हुआ था। कई बार अमर ने उसे अपनी तरफ़ आकर्षित करने तथा उसका मन लुभाने के लिए उसके गाँव कठछहियाँ का चक्कर भी लगाया था। मगर तब महत्वाकांक्षी वसुधा ने अमर को कोई भाव नहीं दिया था। उन दिनों लड़कियों के लिए अपने मजनुओं को भाव न देना सामान्य बात थी। वे जानती थीं ऐसे चलते फिरते प्रेम में गाँव और परिवार दोनों की बदनामी के सिवा और कुछ नहीं रहता है।
यह कहानी आज से लगभग तीन दशक से भी पहले की है इसलिए नवपीढ़ी के पाठकों को भले ही थोड़ा सा अनभुआर (अजीब/अनजाना) लगे मगर यह बात सही है कि तब हिन्दी फ़ीचर फ़िल्मों के अलावे शहरों में भी लड़के–लड़कियों को आज की तरह साथ-साथ घूमने, हँसी-मज़ाक करने, गलबहियाँ, लिपटन-चिपटन, पाँजा-पाँजी (Hugging) और खुले में चुम्बन इत्यादि की छूट नहीं थी। विशेषकर बिहार के हाईस्कूल तथा कॉलेजों में लड़कियों के लिए अलग से कॉमन रूम हुआ करते था। क्लास समाप्त होने के बाद लड़कियों को उस कॉमन रूम में रहना अनिवार्य होता था।
तब एक लड़की के शहर में बेशक बारह दीवाने हुआ करते थे, मगर लड़की बात किसी से नहीं करती थी। सामाजिक मर्यादाओं का सम्मान तथा चेहरे पर एक नारी सुलभ शर्मिलापन झलकता था। सामने से घास किसी को नहीं डालती थी।
अब जब समय बदल चुका है तो एक लड़की के शहर में बारह एक्स हुआ करते हैं और लड़की बात हर किसी से करती है। सामाजिक मर्यादाओं की परवाह और वह स्त्री सुलभ शर्माना पुराने ज़माने भी नहीं पुराने युग की बात हो गई है और घास (भाव खाना या भाव देना) तो अब है ही नहीं। गाँव सामाज की ग़लतियों पर उन दिनों का समाज आज की तरह उदासीन नहीं था। पंचायती दंड व्यवस्था सख़्त था व्यक्ति की सामाजिक-असामाजिक ग़लतियों की सज़ा उसे स्वयं या उसके परिवार को भुगतनी पड़ती थी।
सम्बन्ध तब भी बराबर वालों में ही होता था और हज़ार में नौ सौ निन्यानवें शादियाँ अभिभावकों द्वारा ही तय की जाती थी। मदन कुमार थोड़े सुस्त दिखते थे कई वर्तुहार बहाने बना चुके थे और अमर कुमार के लिए बातें करना शुरू कर चुके थे। अतः सीतारमण बाबू ने अपने स्तर से नीचे उतरते हुए कठछहियाँ गाँव के गजाधर सिंह की पुत्री वसुधा को मदन के लिए पसंद कर लिया। वसुधा दिखने में हर प्रकार से सुंदर थी। वसुधा के पिता गजाधर सिंह ने भी वसुधा के लिए मदन सिंह को पसंद कर लिया। मगर उसका पसंद सच्ची पसंद नहीं थी। उसके मन में एक छुपा हुआ दाँव था। नज़र उनकी भी सीतारमण बाबू के छोटे लड़के अमर कुमार सिंह पर ही थी मगर उन्हें पता था कि यदि भूल से भी उन्होंने अमर के बारे में बात की तो पिछले अन्य वर्तुहारों की तरह वे भी दरवाज़े से दफ़ा कर दिये जाएँगे। वे अमर को दामाद के रूप में धैर्य और बुद्धि से हासिल करना चाहते थे। उनकी योजना थी कि वसुधा की शादी उनके दोनों बेटों से हो और वसुधा घर की अकेली मालकिन बने। गजाधर सिंह को मालूम था कि छोटे बाबू अमर सिंह वसुधा से प्रेम करते हैं। वसुधा यदि थोड़ी सी त्रिया चरित्र में क़ामयाब हो जाए तो मदन कुमार को बड़ी आसानी से घर का कुत्ता बनाया जा सकता है। उन्होंने वसुधा को सिखाने-पढ़ाने के लिए अपनी पत्नी के कान में कुछ मंत्र दे दिये।
अमर सिंह ने जब से सुना था कि भइया की शादी वसुधा से हो रही है उसी दिन से उसे मदन की क़िस्मत से ईर्ष्या होने लगी थी। वह सोचता था मदन की जगह काश वही मंदबुद्धि दिखता और इसी बहाने वसुधा से उसकी शादी हो जाती। उधर वसुधा अलग योजना बना रही थी कि अमर को तो वह जैसे चाहे नचा सकती है।
लगन देखकर वसुधा और मदन की शादी ख़ूब धुमधाम से हो गई। वसुधा ससुराल आ गई। नया-नया में हरियरी, पुछाड़ी, सनेस के रस्म में दुलहन का ससुराल से मैके, मैके से ससुराल आना-जाना होता रहा। सब कुछ ठीक-ठाक रहा। दोड़गा (द्विरागमन) में वसुधा जब ससुराल आई तो उसने अपनी माँ से सीखा हुआ मंत्र धीरे-धीरे आज़माना शुरू कर दिया। वसुधा का मन चूँकि अमर पर था इसलिए मदन की कोई भी ख़ूबी उसे नज़र नहीं आ रही थी। पति मदन की अनदेखी और देवर अमर से ज़्यादा घुलना मिलना हँसना-बोलना शुरू कर दिया ताकि कोई कुछ टोके और बात बढ़े तो बात का बतंगड़ बनाने का मौक़ा मिले। मगर इस बात को परिवार ने यह सोचकर नज़रअंदाज़ कर दिया कि नया-नया है इसलिए अमर को भी अपनी भाभी से हँसने बोलने का अधिकार है। कुछ दिनों बाद जब उसकी भी अपनी दुनिया हो जाएगी तो सब अपने आप ही सामान्य हो जाएगा। दुलहन का यह दाँव नहीं चला तो उसने बातों-बातों में मदन को नीचा दिखाना शुरू कर दिया। “मेरे करम ही फूटे थे कि माँ-बाप ने इस मंदबुद्धि मूर्ख के पल्ले बाँध दिया”। मदन वसुधा की सुंदरता पर मोहित था इसलिए उसकी बातों का कोई जवाब नहीं देता था। वह सोचता था “मुझमें सचमुच कमी है तभी तो ऐसा कह रही है, कुछ दिनों में धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा। मैं अपने प्यार से इसका दिल जीत लूँगा।”
वसुधा को भय था कि कही वह गर्भवती न हो जाए इसलिए जितना सम्भव था उसे प्यार का वास्ता देकर स्वयं से दूर रखने का प्रयास करती थी। मगर ऐसे भी भला कितने दिनों तक टाला जा सकता था। प्यार ही प्यार में वह पति को कुछ सुँघा देती थी जिससे उसे नींद आ जाए और इधर ये आराम से रह सके। दिन बीतते रहे। शादी को अभी साल भर भी नहीं हुआ था। अमर के लिए भी लड़की ढूँढ़ने की बात चलने लगी थी। तब तक बहुत हद तक वसुधा ने अमर को अपने प्रेम जाल में उलझा लिया था। वह मदन को अक़्सर किसी न किसी काम से शहर भेज देती थी ताकि अमर से नज़दीकियाँ बढ़ाने का ज़्यादा से ज़्यादा समय मिल सके। उस दिन भी मदन की अनुपस्थिति में अमर वसुधा के कमरे में जाकर बैठ गया। बातों ही बातों में वसुधा अपनी बात पर आ गई।
“आपको पता है अमर, मैं हाईस्कूल के दिनों से ही आपसे प्रेम करती हूँ। मगर बदकिस्मती ने मुझे आपकी भाभी बना दिया।”
“मगर तुम मुझे देखती तो कभी भी नहीं थी।”
“आपको कैसे पता कि मैं आपको कभी देखती नहीं थी?”
“तुम मुझे एक नज़र देखो इसके लिए मैंने तुम्हारे गाँव के भी चक्कर लगाये मगर साध ही रह गई कि कभी तुमसे नज़र मिलती।”
“नज़र न मिलने का अर्थ सिर्फ़ यही थोड़े न होता है कि देखा ही नहीं।”
“मैं तो यही समझता हूँ।”
“यदि आप लड़की होते तो ऐसा नहीं समझते। लड़की की हज़ार मजबूरियाँ होती हैं नज़र चुराने और झुकाने की।”
“तो क्या तुम सचमुच मुझे देखती थी?”
“नहीं मैं तो आपके दोस्त उस विजय बैठा को देखती थी जो माथे में अँजुरी भर तेल चुपड़ के आता था।”
वसुधा का यह व्यंग्य अमर को बहुत अच्छा लगा। उसे विश्वास हो गया कि वसुधा सचमुच उसे छुपकर देखती रही होगी। लड़कियाँ नज़र भी सिर्फ़ उसी से चुराती हैं जिसके लिए उसके मन में कुछ रहता है। प्यार कभी एकतरफ़ा नहीं होता। उसने वसुधा को बाँहों में भरते हुए बोला, “तुम कितनी मासूम हो। जी चाहता है तुझे खा जाऊँ। तुझे अपने भीतर समा लूँ या मैं तेरे भीतर समा जाऊँ।”
“रहने दीजिए आपको मुझसे कोई प्यार-व्यार नहीं है वरना अभी भी कुछ बिगड़ा नहीं है आप मुझे अपना बना लेते।”
वसुधा को अच्छा लग रहा था वह अमर की बाँहों से अलग होना नहीं चाहती थी मगर बाहर से सास की आवाज़ आई तो उसने स्वयं को अमर से अलग किया और कमरे से बाहर आँगन में चली गई। सास ने बोला, “क्या बात है बहू मदन कहीं गया है क्या? और अमर तुम्हारे कमरे क्या कर रहा है?”
“तो आप मुझ पर संदेह कर रही हैं?”
“नहीं बहू बिलकुल नहीं मुझे अमर पर भी पूरा भरोसा है मगर इस तरह अमर से ज़्यादा नज़दीकी ठीक नहीं है। उसकी भी शादी की बात चल रही है तुम अपने पति पर ध्यान दो, आजकल वह घर से बाहर ज़्यादा ही रहने लगा है। उसे बाँध कर रखो। उसका ख़्याल रखो।”
“अमर मेरे कमरे में आकर बैठ जाए तो क्या मैं उन्हें भगा दूँ?”
“नहीं मैंने ऐसा नहीं कहा मगर अमर को मैं समझा दूँगी।”
“इसका मतलब आपके मन में कहीं न कहीं कोई बात है।”
“मेरे मन में कोई बात नहीं है मगर तुम तो जानती हो गाँव में एक बात की चार बातें बनती हैं। मैं गाँव की स्त्रियों को ऐसा कोई मौका नहीं देना चाहती। तुम जाओ, अपने कमरे में जाओ।”
वसुधा अपने कमरे में पहुँची तो अमर वहाँ से जा चुका था। उसने तय कर लिया आज से ही वह अमर का ख़ूब कान भरेगी। माँ-बेटे और बाप तीनों को तीन फाड़ नहीं कर दिए तो मेरा भी नाम वसुधा नहीं। उस रात वसुधा ने मदन को भी ख़ूब खरी-खोटी सुनाई। रातभर रो-रो कर कुहराम मचा दिया।
“मुझे इस नपुंसक के पल्ले बाँधकर मेरे माँ बाप ने मेरा जीवन तबाह कर दिया। इस नामर्द के पल्ले बाँधने से अच्छा होता वे लोग मेरा गला घोंट देते, ज़हर देकर मार देते” वह आ हऽ हा, आ हऽ हा . . . करके ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी। वह चाहती थी उसकी आवाज़ आस-पड़ोस की औरतें सुने और रातों-रात सारे गाँव में यह बात फैला दे कि मदन पूर्ण रूप से पुरुष नहीं है। मदन हैरान था। उसे तो ऐसा कभी महसूस नहीं हुआ कि उसमें पुरुषत्व की कमी है मगर जब पत्नी कह रही है तो इसका मतलब हुआ कि वह उससे संतुष्ट नहीं थी। अब किसी की संतुष्टि मापने का कोई मानक पैमाना तो है नहीं जिससे यह साबित किया जा सके कि वह अपने साथी को संतुष्ट रखने में सक्षम है। वह शर्मिंदगी से गड़ा जा रहा था उसके बारे में लोग न जाने क्या धारणा बना लेंगे।
सास ने सुना तो उसके होश उड़ गये। दौड़कर हाथ से बहू का मुँह दबाया उसे चुप करने के लिए कसकर उसके मुँह को बंद किया।
“अरे क्या बोल रही है बहू, कुछ शरम लिहाज़ कर। घर की बात का बीज गाँव में क्यों बोना चाहती है?”
“तो और क्या करूँ? समूची ज़िन्दगी आपके नामर्द बेटे के नाम कर दूँ?”
“चुप चुप चुप, यदि ऐसा है तो हम इसका कोई न कोई समाधान निकालेंगे। तुम्हारे साथ अन्याय नहीं होगा।”
सास ने समझा-बुझा कर बात को वहीं दबा दिया मगर दीवारों के कान होते हैं वाली कहावत वैसे ही नहीं बनी है। सुबह होते-होते समूचे गाँव की स्त्रियों में कानाफूसी और पुरुषों में अपनी-अपनी पत्नियों से यह बात इस हिदायत के साथ पहुँच गई कि किसी से कहना मत आपको मेरी क़सम है।
झँपे-तुपे फुसफुसाते खुसफुसाते जब यह बात झुमरा बहू (झूमरा की पत्नी) के कानों में पहुँची तो वह दंग रह गई। वह एक ग़रीब मज़दूर की सुंदर पत्नी थी। पतली कमर वाली छरहरी सुडौल महिला। शादी के पाँच सालों तक जब उसे कोई बच्चा नहीं हुआ तो एक दिन मौक़ा और एकांत पाकर मदन सिंह के गले में अपनी बाँहें डालकर उसे अपने घर में ले गई। झुमरा बहू को भरोसा था कि मदन सिंह संकोची स्वभाव का लड़का है किसी से कभी कुछ कहेगा नहीं और न ही कभी दुबारा उसके घर की तरफ़ का रुख़ करेगा। उसके दो वर्षीय बालक का जैविक पिता मदन ही था। यह तो अच्छा हुआ कि बालक अपनी माँ पर गया था वरना पिता पर जाता तो बात का तार भी खींच सकता था। झुमरा बहू का एक मन हुआ वह गाँव में सभी से जाकर कह दे कि मदन की बहू झूठ बोल रही है मगर फिर उसे ध्यान आया कहीं लोग ये न पूछ दें कि तुझे कैसे पता? उसने डर से चुप्पी साध ली।
इधर वसुधा का मन दिन-रात किसी न किसी योजना में ही उलझा रहता था अपने लक्ष्य को पाने के लिए पति को कैसे और कितनी जल्दी अपने रास्ते से हटाया जाए। उसे भय था यदि अमर की शादी कहीं और तय हो गयी या ग़लती से कहीं वह गर्भवती हो गयी तो उसकी सारी महत्वाकांक्षा धरी की धरी रह जाएगी। अमर को वह अपनी हर योजना में शामिल रखती थी।
उस रात गाँव में अष्टयाम (चौबीस घंटे का राम नाम कीर्तन) समाप्ति के बाद विवाह कीर्तन का कार्यक्रम था। दरभंगा से विशेष मंडली बुलाई गई थी। गाँव के सारे स्त्री पुरुष बच्चे वृद्ध सभी विवाह कीर्तन देखने गए हुए थे। झुमरा बहू की आँखें मदन को ढूँढ़ रही थीं मगर मदन कही नज़र नहीं आ रहा था। उसने सोचा हो सकता है मदन अपने दरवाज़े पर शायद अकेला बैठा होगा। यदि मिल गया तो आज उसे फिर अपने घर ले जाएगी। उन दिनों गाँवों में गुप्त संबंधों के लिए अक़्सर लोग ऐसे मौक़ों की ही तलाश में रहते थे। झुमरा बहू बदचलन या दुष्चरित्र नहीं थी पर उसे एक बच्चा और चाहिए था। उसके अनुमान के मुताबिक़ मदन सचमुच अपने दरवाज़े पर अकेला ही लेटा हुआ था। गाँव की भाभी लगती थी उसने मदन को मज़ाक में ही आवाज़ दी।
”असगरे काहे सुतल छी बाबू घरे कनिया पँएरा तकइत होएत” (बाबू अकेले क्यों सोए हुए हो घर में पत्नी इंतज़ार कर रही होगी)। उधर से कोई जवाब नहीं आया तो उसे देखने चली गई अभी तो ज़्यादा रात भी नहीं हुआ है इतनी जल्दी सो गया? झुमरा बहू वहाँ पहुँची तो मदन को देखकर उसके होश उड़ गये। मदन बेहोश पड़ा था और उसके मुँह से झाग निकल रहा था। उसे लगा शायद किसी साँप ने मदन को डस लिया है। उसने शोर मचाया। मदन को साँप काट लिया . . . मदन को साँप काट लिया . . . जिसने जहाँ सुना वहीं से दौड़कर सीतारमण बाबू के दरवाज़े पर जमा होना शुरू हो गया। कुछ लोग झाड़-फूँक के चक्कर में ओझा की तलाश करने लगे। कोई दौड़कर ओझा को बुलाने चला गया। मदन की दशा ख़राब हो रही थी वह कुछ बोल नहीं पा रहा था बस विवश आँखों से भीड़ को देख रहा था जैसे उसकी आँखें भीड़ से कह रही हो किसी भी तरह मुझे बचा लो मैं जीना चाहता हूँ।
मदन का एक दोस्त महिन्दर सिंह एक समझदार एवं सूझबूझ वाला युवक था जो गाँव में प्राथमिक उपचार की प्रैक्टिस करता था। उसने मदन के समुचे शरीर की जाँच की कहीं पर भी किसी साँप के दाँत या किसी काटे का कोई निशान नहीं था। उसे समझते देर नहीं लगी कि इसे ज़हर दिया गया है। किसने दिया क्यों दिया जैसे प्रश्नों पर सोचने या पूछताछ के लिए समय बिलकुल नहीं था। उसने सीतारमण बाबू के ट्रैक्टर ड्राइवर को जल्दी से ट्रैक्टर निकालने के लिए बोला ताकि जितना जल्दी हो सके मदन को शहर के अस्पताल पहुँचाया जा सके। ड्राईवर ने आकर बताया कि ट्रैक्टर में तेल नहीं है। मोटरसाईकिल निकालने की बात हुई तो आश्चर्यजनक रूप से उसमें भी पेट्रोल नहीं था। गाँव जमा हो गया था मगर अमर का पता नहीं था। सीतारमण बाबू को भी कोई बुलाने गया तब वे दौड़े-दौड़े आए। वसुधा ऐसे रो रही थी जैसे मदन अब इस दुनिया में ही न हो और उसका सब कुछ लुट गया हो। वह मदन को कहीं भी नहीं ले जाने देना चाहती थी।
गाँव में एक दूसरे धनी व्यक्ति थे पदारथ बाबू उनके पास अपनी जीप थी। सीतारमण बाबू से उनका छत्तीस का रिश्ता था। दोनों मेंं बोल-चाल ताका-ताकी कुछ भी नहीं था। वे एक दूसरे को अपनी बीमारी भी नहीं देना चाहते थे मगर महिन्दर के कहने पर पदारथ बाबू ने अपनी जीप और ड्राईवर दोनों दे दिए। वसुधा मदन को छोड़ नहीं रही थी उसे ज़बरदस्ती वहाँ से अलग कर मदन को तुरंत जीप में रखकर शहर पहुँचाया गया। क़िस्मत अच्छी थी डॉक्टर उसी शाम दिल्ली से वापस आया था। उसके उपचार से सुबह तक स्थिति क़ाबू में आ गई। अस्पताल में तीन दिन भर्ती रहने के बाद मदन ठीक हो गया। मगर अब वह गाँव में वापस वसुधा के पास नहीं जाना चाहता था। उसने लोगों को बताया कि किस तरह वसुधा ने जबरन उसे दूध पिलाया था और दूध पीने के बाद उसकी क्या दशा शुरू हो गई। वह काफ़ी डरा हुआ था मगर वसुधा के लिए उसके मन में अभी भी प्रेम था। वह चाहता था कि इसके लिए वसुधा को कोई दंड, डाँट-फटकार या सज़ा न हो।
वसुधा एक तो पहले से ही ढीठ थी दूसरे मदन के ज़िन्दा बच जाने के बाद उसके लिए झूठ बोलकर बचने का कोई रास्ता न रहा। ऊपर से उसके सर पर अमर का हाथ था और अमर भी पिछले कई महीनों से माँ बाप के साथ उद्दंडता से पेश आ रहा था। वसुधा ने सीधा घोषणा कर दी कि चाहे तो उसे जान से मार दिया जाए या पुलिस थाने में दे दिया जाए। वह झूठ नहीं बोलेगी मदन को ज़हर उसी ने दिया था। और उसे ज़हर उसने अकेले नहीं बल्कि सास ससुर के कहने पर दिया था। अपराधी जब ढीठ हो जाता है तो उसकी बुद्धि आसानी से अपना कवच ढूँढ़ लेती है। वसुधा ने अपने अपराध में उसे घसीट लिया जो वास्तव में उसके साथ शामिल ही नहीं था। उसने खुली घोषणा कर दी कि यदि पंचायत बैठती है या पुलिस आती है तो वह अपने साथ अपने सास-ससुर को भी घसीटेगी। उसका पति नामर्द है इसलिए सास-ससुर स्वयं ही अपने बेटे को जान से मारना चाहते थे। और उन्हीं के कहने पर उसने अपने रास्ते से हटाने के लिए मदन को ज़हर दिया।
सीतारमण बाबू उस मनहूस घड़ी को कोस रहे थे जब उन्होंने वसुधा को अपना बहू बनाने का फ़ैसला किया था। सास अलग शरम से डूबी जा रही थी। गाँव दंग था मगर वसुधा समूचे घर में छत्तर काढ़े (फन फैलाये) घूम रही थी जैसे चुनौती दे रही हो। बिगाड़ ले मेंरा जो बिगाड़ना है यदि किसी में दम है तो। उसने बिना किसी शादी ब्याह के अमर के साथ रहने की घोषणा भी कर दी। साबिक ज़माना होता तो हत्यारिन का गला लाठी से दाबकर मार दिया जाता कोई चूँ भी नहीं होती मगर ज़माना थोड़ा बहुत बदल गया था। नई पीढ़ी ने नये युग में क़दम रख दिया था। पर-पंचायत थाना पुलिस से गाँव की शिकायत अख़बार में छपने का भय था। और एक बार यदि ऐसा हो गया तो कई वर्षों तक गाँव के बच्चे-बच्चियों की शादी ब्याह में अड़चन पड़ने की सम्भावना थी। यह सब सोचकर पंचों ने राय दी कि वास्तव में ग़लत संस्कारों वाली लड़की के घर में लाने से ही यह तबाही हुई है। मदन की जान बच ही गई है इसलिए अब थाना-पुलिस करने का लाभ नहीं है। अमर वसुधा के साथ ही रहना चाहता है तो रहे और यदि सम्भव हो तो मदन की ही दूसरी शादी कर दी जाए।
संयोग ऐसा ही था। अमर की आस में जिन वर्तुहारों ने मदन को छाँटा था उन्हीं में से एक थे महबलिया गाँव के विरासत बाबू। सीतारमण सिंह से रिश्ता जोड़ना उनकी महत्वाकांक्षा थी मदन उन्हें पहले भी पसंद था मगर जिन चार लोगों के साथ वे मदन को देखने गए थे उन लोगों ने उनका मन अमर के लिए बहका दिया था। मदन की नपुंसकता वाली बात डाक्टरी जाँच से ग़लत साबित हो चुकी थी। वे मदन को अपनी लड़की देने के लिए राज़ी हो गए। विरासत बाबू अपने गाँव के धनी एवं प्रतिष्ठित किसान थे। उनका परिवार सुशिक्षित था। लड़की बिहार विश्वविद्यालय से स्नातक थी। वसुधा से ज़्यादा पढ़ी लिखी, ज़्यादा सुंदर और ज़्यादा सुशील, उसका नाम भी सुशीला था। सुशीला वसुधा के कारनामे सुन चुकी थी। मदन की दूसरी शादी उसकी पहली शादी से भी ज़्यादा धूमधाम से हुई। शादी के बाद सुशीला ने मदन पर अपना सारा प्यार लुटा दिया। वह बड़े घर की बेटी थी बड़प्पन, सहनशीलता और सादगी उसका स्वभाव था। साल भर के भीतर ही उसने एक सुंदर से बालक को जन्म दिया मुँह मुठान से बिलकुल मदन मगर वह सुस्त या मंदबुद्धि नहीं दिखता था। सुशीला बहुत भोली थी सारी कहानी जानने के बाद भी वह वसुधा से घृणा अथवा उसपर संदेह नहीं करती थी। वसुधा का स्तर अब छोटी बहू का था मगर सुशीला से ऐसे बर्ताव करती थी जैसे वही बड़ी हो। सुशीला उसके दुर्व्यवहार को भी नज़रअंदाज़ करके चलती थी। इतना सब कुछ के बाद भी वह यह साबित करके दिखाना चाहती थी कि धैर्य और सहनशीलता से रहा जाए तो परिवार एकजुट रह सकता है और सब कुछ सामान्य हो सकता है।
मगर कुंठित वसुधा ऐसा नहीं सोचती थी। भीतर ही भीतर वह अभी भी चाहती थी कि कैसे मदन की वंश रेखा समाप्त हो जाए जिससे वह पूरी सम्पत्ति की अकेली मालकिन बन सके। मगर ऊपर से मदन के बेटे को ऐसे खिलाती रहती थी जैसे उसकी असली माँ वही हो।
एक दिन वसुधा बच्चे की मालिश करते-करते उसे छत पर खिलाने ले गई। सास घर में नहीं थी। सुशीला अपने कमरे में सो रही थी अचानक ही उसने शायद कोई सपना देखा और चौंक कर उठ बैठी। बच्चे को ढूँढ़ते हुए छत पर पहुँच गई। देखती क्या है वसुधा ने बच्चे को छत से नीचे फेंकने की पूरी तैयारी कर ली है और बच्चे को छोड़ने ही वाली थी तब तक सुशीला ने पीछे से आवाज़ दिया। छोटी क्या कर रही है? उसका हृदय डर के मारे ज़ोर से धड़क उठा, उसने दौड़कर झट से वसुधा के हाथों से बच्चे को छीनकर अपनी छाती से चिपका लिया। वह काफ़ी डर गई थी उसकी साँसें ज़ोर-ज़ोर से ऊपर–नीचे होने लगी। सुशीला बच्चे को लेकर बिना विलंब किये सीढ़ियाँ उतरती हुई नीचे आँगन में आकर खड़े-खड़े हाँफने लगी।
वसुधा ने ऊपर से ही गाली बोलना शुरू कर दिया। बड़ा बच्चेवाली बनती है। भगवान मेरी सुनता नहीं वरना ऐसे-ऐसे तीन बच्चे पैदा कर चुकी होती। मुझे बच्चा नहीं है तो क्या मुझे ममता भी नहीं है। मैं बच्चे को क्यों मारूँगी बच्चा छत से गिरने वाला था मैं तो उसे बचाने गई थी। जैसा कि झूठ बोलते हुए अक़्सर होता है। अपनी सफ़ाई देती हुई वसुधा भूल गई कि तीन-चार महीने का बच्चा भला मुँडेर पर कैसे चढ़ेगा?
सुशीला ने अपनी आँखों से जो कुछ भी देखा था सारी कहानी सास को सुनाई। अमर और वसुधा तो बहुत पहले से ही बँटवारा चाहते थे। इस घटना के बाद सुशीला की नज़रों में भी अब एक पल भी साथ रहना किसी अनहोनी को न्योता देना अथवा अपनी मूढ़ता प्रदर्शित करना था। दूसरे ही दिन घर का बँटवारा शुरू हो गया। घर आँगन के बीचों-बीच दीवार खड़ी हो गई। एक कमरा ऐसा था जिसके बीच में ही दिवाल पड़ी आधा कमरा इस हिस्से आधा उस हिस्से। मगर दिवाल वहाँ भी खड़ी हुई।
मदन का हिस्सा जिस रंग से पुताई होती थी अमर का हिस्सा उससे बिलकुल उलट अथवा अलग रंग से। मदन का हरा तो अमर का पीला। मदन का सफ़ेद तो अमर का काले रंग का आभास देता हुआ गहरा ग्रे। एक ही मकान के ये अलग-अलग एवं उलट रंग चीख-चीख कर कुछ कहते थे। दूर से देखने वाला भी बड़ी आसानी से समझ सकता था इस घर का बँटवारा दो हिस्से में हुआ है और दोनों में भारी कलह क्लेश है।
गाँव के लोग कहते थे जिस घर में पहले से ही वसुधा बैठी हो वहाँ कोई लाख सुशीला आ जाए मगर वह घर को नहीं बचा सकती। शैतान से देवता भी डरते हैं और खोटी बुद्धि बड़प्पन को अक़्सर निगल जाती है। बड़े घर की बेटियाँ अपना दिल भले लाख बड़ा कर लें पर उस घर को नहीं बचा सकती जिसमें कोई खोटे घर की बेटी आकर कुंडली मारे बैठी हो। खोटे घर की बेटी चाहे कितने भी बड़े घर मेंं क्यों न ब्याह दी जाए। वहाँ वह बड़प्पन नहीं सीखती अपना खोटापन ही थोपती है।
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- जाते-जाते हे वर्ष बीस
- जीवन का उद्देश्य
- ज्ञान जो अमृत है
- झूठ का प्रमेय
- टॉवर में गाँव
- तरक्क़ी समय ने पायी है
- तवायफ़ें
- तुम कौन हो?
- तुम्हारी ईमानदारी
- तुम्हारी चले तो
- दिशा
- दीये की लौ पर
- देश का दर्द
- नमन प्रार्थना
- नारी (राजनन्दन सिंह)
- पत्थर में विश्वास
- पुत्र माँगती माँ
- पूर्वधारणाएँ
- प्रजातंत्र में
- प्रतीक्षा हिन्दी नववर्ष की
- प्राकृतिक आपदाएँ
- प्रार्थना
- फागुन आया होगा
- फूल का सौदा
- फेरी बाज़ार
- बक्सवाहा की छाती
- बदबू की धौंस
- बिल्ली को देखकर
- बोलने की होड़ है
- बोलो पामरियो
- भारतीयों के नाम
- मक्कारों की सूची
- मन का अपना दर्पण
- महल और झोपड़ी
- महा अफ़सोस
- माँग और पूर्ति का नियम
- मुफ़्त सेवा का अर्थशास्त्र
- मूर्खता और मुग्धता
- मूर्ति विसर्जन
- मेरा गाँव
- मेरा घर
- मेरा मन
- मेरे गाँव की नासी
- मैं और तुम
- मैं और मेरा मैं
- मैली नदी के ऊपर
- यह कोरोना विषाणु
- यह ज़िंदगी
- राजकोष है खुला हुआ
- रावण का पुतला
- लुटेरे
- शत्रु है अदृश्य निहत्था
- शब्दों का व्यापार
- सचेतक का धर्म
- सच्चाई और चतुराई
- सत्ता और विपक्ष
- समभाव का यथार्थ
- सरदी रानी आई है
- सामर्थ्य
- साहित्यहीन हिन्दी
- सीमाएँ (राजनन्दन सिंह)
- सुख आत्मा लेती है
- सुविधामंडल
- स्मृतिकरण
- हमारी क्षणभंगुर चाह
- हमारी नियति
- हर कोई जीता है
- ग़रीब सोचता है
- ज़िंदगी (राजनन्दन सिंह)
- ज़िंदगी के रंग
- ज़िंदगी बिकती है
किशोर साहित्य कविता
हास्य-व्यंग्य कविता
दोहे
बाल साहित्य कविता
नज़्म
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं
पाण्डेय सरिता 2022/08/14 11:42 AM
बेहद कठोर पर सच्ची कहानी