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माया महाठगिनी हम जानी

माया के तीन रूप होते हैं– कामिनी, कंचन, कीर्ति। इसी में एक माया जब दूसरी माया पर आकर्षित हो गयी तब तो ग़ज़ब होना ही था। यानी एक देवी जी को कीर्ति की यशलिप्सा जाग उठी। इस कीर्ति को पाने का साधन बना एक यंत्र। उस यंत्र को प्रणाम करके आँखे बंद करना और आँख खोलकर सबसे पहले उसे प्रणाम करना यही तो उनकी दिनचर्या है। तुलसी को जल चढ़ाना भूल सकती हैं वो मगर यंत्र की देखभाल नहीं। 

वे आजकल रौनक़-ए-बज़्म हैं, उनके चेहरे का नूर ग़ज़ब का है। उनकी बढ़ती उम्र मानो थम सी गई है। लोगबाग उनकी बढ़ती उम्र और चढ़ते जादू का सीक्रेट पूछते हैं तो वो मुस्कराकर रह जाती हैं। उनके वय की महिलाएँ जहाँ बुढ़ापे की दहलीज़ पर खड़ी हाँफ रही हैं वे सब शुगर और बीपी जैसी बीमारियों से पीड़ित हैं वहीं मिसेज शर्मा अपनी बहू की साड़ियाँ पहनकर उल्टे पल्ले का फ़ैशन किये घूमती हैं। बहू की सारी साड़ियों का उद्घाटन मिसेज शर्मा ही करती हैं। मोटापा क़ाबू में नहीं है इसलिये मिसेज शर्मा बहू का सलवार सूट नहीं पहन पाती इसका उनको बहुत मलाल रहता है। बहू के फ़ैशनेबल कपड़े वो पहन सकें इसलिए अव्वल तो वे नींबू पानी और ग्रीन टी पीती हैं। ग़ालिबन अन्न खाना लगभग छोड़ दिया है उन्होंने। अपने घर में उपवास और पार्टियों में वो सिर्फ़ फ्रूट जूस पीती हैं। अब वो सिर्फ़ उबला हुआ खाना ही खाती हैं ताकि वो अपनी बहू के सभी सलवार सूट और बाक़ी नए फ़ैशन के कपड़े पहन सकें। वैसे मोटापे से मुक्ति के ली गई अपनी क़सम को वो अन्न दोष और अन्न विकार से जोड़कर लोगों को बताती हैं। ये और बात है कि टी-पार्टी में उनके फ्रूट जूस देने में लोगों को काफ़ी दिक़्क़त होती है क्योंकि अनानास का उनका प्रिय जूस आसानी से उपलब्ध नहीं हो पाता। अब वो चूल्हा चौका, गृहस्थी की नही बल्कि धर्म, अध्यात्म, साहित्य और कमाई के नुस्ख़ों की बातें करती हैं। राजनीतिक विचारधारा से वो परहेज़ रखती हैं क्योंकि उनको सबको लेकर चलना है सबसे कमाना है तो सबको जोड़े भी रखना है। 

बस कुछ वर्ष पहले, इधर महान नेता जी देश बदलने निकले उधर छविराज की बीवी ने अपनी और उनकी दुनिया बदल कर रख दी। ये चमत्कार यूँ हुआ कि मोहल्ले की पोलिंग एजेंट और चुनाव में वोट की गणित के बीच एक दिन छविराज की बीवी का बटन वाला मोबाइल फोन कहीं खो गया। 

चुनावी गणित में उलट-पलट न हो इसलिए नेताजी ने अपना पुराना मोबाइल फोन उनको दे दिया, और नेताजी चुनाव जीत गए सो उन्होंने अपना स्मार्टफोन वापस भी नहीं माँगा। और इस बात पर तसल्ली मानी कि छविराज की बीवी कहीं कुछ और न माँग ले; क्योंकि माँगने में तो वो सिद्धहस्त थी हीं। 

यही तो छविराज की बीवी के जीवन का टर्निंग पॉइंट हो गया। 

इस एक स्मार्टफोन के आगमन से छविराज की बीवी को पंख लग गए। उसके पहले वो मोहल्ले की औरतों के बीच बैठकर चूल्हा, चौका, बहू की चुगली, भजन-कीर्तन, सिलाई-कढ़ाई औऱ उन के फंदे और अचार बनाने के तरीक़ों पर चर्चा किया करती थीं। 

उन दिनों वे छविराज की बीवी के तौर पर जानी जाती थी। जो हल्का-फुल्का घरेलू व्यापार किया करती थीं। उन्हीं दिनों एक रिटायर अधिकारी से उनका परिचय हुआ जो रिटायरमेंट के बाद जीवन बीमा की पॉलिसी बेचा करते थे। उस धंधे में प्रतिस्पर्धा बढ़ी तो उन्होंने साहित्य बेचना शुरू कर दिया। उन्होंने खाये -अघाये लोगो को फाँसा। उन्हें साझा संकलन निकालने और विदेश में उनकी रचनाओं के लोकार्पण झाँसा दिया। 

गंदा था, मंदा था मगर बहुत दिलफ़रेब धंधा था। सबसे पहले रचना लो फिर उन्हीं से शुल्क लो, उन्हीं के ख़र्चे पर छपवाओ फिर उन्हे के ख़र्चे पर लोकार्पण करके उन्हें साहित्य भूषण, साहित्य -रत्न जैसी कोई छुटभैया टाइप की उपाधि दे दो। उन्हीं के पैसों पर विदेश भी घूम लो। 

उपाधि पाया हुआ लेखक/लेखिका अपने यशोगान हेतु अधिक प्रतियाँ ख़रीदता है और फिर अमरत्व प्राप्ति की चाह में उनको चारों ओर बाँट देता है। अधिकारी महोदय पुरुष थे इसलिए उनकी पहुँच और पैठ घरों में नहीं हो पा रही थी सो उन्हें एक महिला साझीदार की तलाश थी। इत्तेफ़ाक़ से उन्हें छविराज की बीवी मिल गयी। वो भी व्यापार कर रही थीं कट पीस के कपड़ों का जो रेडीमेड की वज़ह से ठंडा पड़ता जा रहा था। सो उन्होंने साहित्य का व्यापार अपनाया और वो चल निकला। 

देखते ही देखते छविराज की बीवी मिसेज शर्मा हो गई और छविराज, सी.राज हो गए। पिलपिलाये से छविराज को उनकी बीवी पहले ऐ जी, ओ जी कहती थी अब वो उनको हनी और हब्बी कहकर बुलाती हैं। 

अधिकारी महोदय को मिसेज शर्मा को साहित्य का धंधा सिखाना बहुत महँगा पड़ा। वो उन्हीं से आशीर्वाद प्राप्त करके उन्हीं के लिए भस्मासुर बन गयीं। उनके सारे क्लाइंट उन्होंने काट लिए। फिर शिव-दक्ष संवाद की भाँति उनका और अधिकारी महोदय का वो झगड़ा हुआ कि फ़ेसबुक बिल्कुल सती के अग्नि कुंड की तरह जल उठा। 

मिसेज शर्मा ने ना सिर्फ़ खूब महिला क्लाइंट बनाये बल्कि अपने साथ पुरुष अनुयायियों की एक पूरी फ़ौज खड़ी कर दी। महिलाओं का बहनापा और पुरुषों की आसक्ति मिसेज शर्मा के धंधे के लिए बहुत काम आयी। मगर जाते-जाते अधिकारी महोदय ये पोल खोल गए फ़ेसबुक पर कि मिसेज शर्मा अपनी जिस जातीय श्रेष्ठता की अपनी ठसक का बखान करती हैं दरअसल उस जाति की वो हैं ही नहीं। 

मिसेज शर्मा उनका नाम नहीं बल्कि धारण की गई उपाधि है। शर्मा बड़ा दिलचस्प सरनेम है, हिन्दुओं की तमाम जातियों के लोग अपनी सुविधानुसार इस टाइटल का प्रयोग करते हैं। ...कभी विद्वता के नाम से जाना जाने वाला ये सरनेम अब सर्वसुलभ है। शायद ज्ञानी लोगों को भी अंदाज़ा लग गया था तभी वो ख़ुद को जाति विहीन लिखते थे। वरना कल को लोग नोबल कमेटी में आरटीआई डाल कर पूछते कि फलां की जाति क्या है क्योंकि भारत में जाति कभी नहीं जाती। 

इस सरनेम की माया इतनी है कि साहित्य के एक और मठाधीश एक बार मिसेज शर्मा से मिल गए। अपनी जाति का समझ कर उन्होंने मिसेज शर्मा को ख़ूब प्रमोट किया मगर उन्हें जब मिसेज शर्मा की असली जाति पता लगी तो वो कन्नी काट कर निकल गए। उनको उनकी जाति की एक असली मिसेज मिल गयी अब वो उनको प्रमोट कर रहे हैं। मिसेज शर्मा साहित्य की इस जातिवादी राजनीति से बहुत आहत हुईं और फिर फ़ेसबुक पर कई दिनों तक करुण विलाप किया और बाद में स्वयं को जाति विहीन घोषित कर दिया क्योंकि उनको हर जाति के लोगों से व्यापार करना था। इससे उनसे जुड़े लोग भी बहुत ख़ुश हुए। उन्हीं दिनों मिसेज शर्मा ने अपनी जाति के लोगों को एक साहित्यिक गैंग खड़ा किया जिसमें साहित्यिक मुख़बिर से लेकर साहित्यिक शार्पशूटर तक हैं। 

मिसेज शर्मा का गैंग स्क्रीन शॉट लेने में माहिर है और फिर फ़ेसबुक पर उसके सदुपयोग में उनको महारत हासिल है। मिसेज शर्मा को लोग स्क्रीनशॉट क्वीन की उपाधि से भी लोग विभूषित करते हैं। मिसेज शर्मा अपने पति को अब कुछ ख़ास भाव नहीं देतीं। वैसे भी छँटनी से बेरोज़गार हुए और बुढ़ापे की दहलीज़ पर खड़े छविराज अपनी बीवी की व्यस्तता से ख़ासे हलकान रहते हैं। 

मिसेज शर्मा देर रात तक विश्वशांति के जटिल मुद्दों पर फ़ेसबुक पर कट-पेस्ट वाली पोस्ट डालती रहती हैं। रात-बिरात जब छविराज दर्द से कराहते-कलपते रहते हैं तब मिसेज शर्मा मेसेंजर पर अपने प्रशंसकों के प्रश्नों का जवाब दे रही होती हैं। रात भर फोन चलता है तो सुबह काफ़ी देर से सोकर उठती हैं मिसेज शर्मा; तब तक छविराज काम की तलाश में जा चुके होते हैं मगर क्या मज़ाल है कि बेटा या बहू उनको जगा दें। उनका निठल्ला बेटा भी अब काफ़ी व्यस्त रहता है। इधर-उधर दिन भर उसे मिसेज शर्मा भेजती रहती हैं। उनका बेटा पहले उनको अम्मा कहता था अब मॉम कहकर बुलाता है। वैसे मिसेज शर्मा आजकल बहुत परेशान भी रहती हैं। क्योंकि दादा नाना की उम्र के लोग सुबह-शाम उनको इतना मैसेज भेजते हैं कि उनका मोबाइल हैंग हो जाता है और उनका मोबाईल रुक जाता है तो उनकी दुनिया सूनी-सूनी हो जाती है। दिक़्क़त ये है कि इन बुड्ढे शौक़ीनों से वो पिंड भी नहीं छुड़ा सकती क्योंकि इन्हीं के साथ साझा संकलन निकालने हैं और इन्हीं से अपने कार्यक्रम स्पॉन्सर कराने हैं विदशों के। 

"माया महा ठगिनी हम जानी "

अब ये माया अगर मिसेज शर्मा को धन के रूप में चाहिए थी तो उन शौक़ीन बुड्ढों को कीर्ति के रूप में पानी थी। माया के दोनों रूप दोनों तरफ़ से एक दूसरे को ठग रहे थे। मिसेज शर्मा यात्राएँ ख़ूब करती हैं। वो कहती हैं कि यात्रा करने से उनके आसपास नकारात्मक ऊर्जा नहीं रहती। ये और बात है कि जिस शहर में वो जाती हैं उस शहर में किसी साझा संकलन वाली महिला के घर वो जा धमकती हैं फिर तो खाना-पीना, चाय-नाश्ता सब कुछ मुफ़्त। उन्हीं के किराये पर शहर घूमना। मौक़ा पाकर किसी टूरिस्ट स्पॉट पर वो अपनी ख़ूब फोटो खिंचवा लेती हैं फिर उसे मेज़बान का पता दे आती हैं। झख मार कर वो मेज़बान उनकी फ़ोटो उनके पते पर भेज ही देता है। मिसेज शर्मा पहुँची हुई कलाकार हैं। वो अक्सर नए शहर में अपने एटीएम का कोड भूल जाती हैं तो उनकी छोटी-मोटी ख़रीदारी मेज़बान महिला ही करती है। मिसेज शर्मा अपने पास दो हज़ार का एक नक़ली नोट भी रखती हैं जिसे वो अपने मेज़बान के साथ होने पर होटल या टैक्सी का बिल चुकाने के लिये तत्काल निकाल लेती हैं। वो जानती हैं कि उनका नोट पकड़ा जाएगा सो वो नोट के पकड़े जाने पर दुखी और ठगे जाने का अभिनय भी करती हैं। फिर अपने वरिष्ठ होने का हवाला देकर वो मेज़बान महिला के सामने अपना एटीएम कार्ड हाज़िर करके बिल भुगतान करने की ज़िद करती हैं। मगर हमेशा की तरह वो एटीएम का कोड भी भूल जाती हैं, मजबूरन उस मेज़बान महिला को उनके समस्त भुगतान करने पड़ते हैं। वैसे उनका दो हज़ार का नक़ली नोट और उनका एटीएम का कोड भूलना अब काफ़ी चर्चित हो चला है। इसलिये वो नए नए पैंतरे आज़माती हैं। 

हाल ही में एक दूसरी महत्वाकांक्षी महिला से उन्होंने मेलजोल बढ़ाया है। दूसरी वाली देवीजी पहले एक टूरिस्ट एजेंसी चलती थीं उनका रोज़गार फ़ेल हो गया और उधारी बढ़ गई तो उन्होंने मिसेज शर्मा के साथ नया रोज़गार शुरू किया। अब वो विदेशों में हिंदी का व्यापार बढ़ा रही हैं। अगर आप धनवान हैं और देश के हिंदी परिदृश्य में आपको महत्व नहीं मिल रहा है तो चिंता मत कीजए। मिसेज शर्मा और उनकी व्यापारिक साझीदार विदेश में हिंदी का कोई ना कोई बड़ा पुरस्कार/सम्मान आपको गारंटी से दिलवा देंगे। सम्मान पाने वाला फूल कर कुप्पा हो जाता है और हमारे देश में तो विदेशी कूड़ा भी सर माथे पर, फिर सम्मान तो इंटरनेशनल हो जाता है। इस काम मे मिसेज शर्मा का कमीशन तीस प्रतिशत का है। मिसेज शर्मा योजना बना रही हैं कि वो जल्द ही शिव-भस्मासुर का प्रसंग दोहराएँगी और दूसरी महिला को साहित्यिक टूरिज़्म के इस धंधे से बाहर कर देंगी। 

लेकिन उनके सामने एक बखेड़ा खड़ा हो गया उनकी बहू नाराज़ होकर मायके चली गयी है। वो कहती है कि मिसेज शर्मा ने उनकी जितनी भी साड़ियों का पहनकर उद्घाटन किया है उतनी ही साड़ियाँ जब तक वो नई ख़रीद कर नहीं दे देती तब तक वो वापस लौट कर ससुराल नहीं आएगी। मिसेज शर्मा अभी इस समस्या से निपट पाती तब तक छविराज बीमार पड़ गए। छँटनी से उनकी नौकरी तो चली गयी थी, मगर कारखाने में जीवन भर काम करते-करते उनका दमा रोग असहनीय हो चला है। डॉक्टर ने उन्हें हवा पानी बदलने के लिए किसी पहाड़ी शहर में कुछ महीने रहने की ताकीद की है। छविराज एक ऐसा सस्ता शहर खोज रहे हैं जहाँ पाँच किलोमीटर के दायरे में कोई लेखक/लेखिका ना रहती हो। अब मिसेज शर्मा वाक़ई बहुत परेशान हैं कि दो महीने बाद उनको विदेश जाना है, कई साझा संकलन निकालने हैं; अगर वो दूर दराज रहने चली गईं और उनके स्मार्टफोन में नेटवर्क नहीं मिला तो.....? वो यही सब सोच रही हैं और नेपथ्य में कोई निर्गुण गा रहा है –

"माया ठगिनी हम जानी "

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