पापा, तुम बिन जीवन रीता है
काव्य साहित्य | कविता दिलीप कुमार1 Jun 2023 (अंक: 230, प्रथम, 2023 में प्रकाशित)
जिस दिन से तुम छोड़ गए हमको
पल-छिन दुख ने दहन किया हमको
मन में बैठ गया तब से इक संताप
जीवन में अँधेरा यूँ गया था व्याप्त
कोई राह न अब तक सूझी हमको
पापा, तुम बिन . . .
जैसे चिता पर दहक रहा हो जीवन
विलगित होता रहता है तन और मन
यूँ किया था मुझे पल्लवित-पोषित
तुम्हारे लाड़ से मैं रहती थी मुदित
उस लोक तक पहुँचती है क्या मेरी चीख
पापा तुम बिन . . .
जीवन पथ पर गिरती-पड़ती, लथपथ रहती
जैसे ज़ेहन में हरदम छाई रहती हो पस्ती
ताड़ में हैं बैठे शिकारी ताक लगाए
कब गिद्धों के पंजे में चिरैया आये
और बारी-बारी से सब करें घात
पापा तुम बिन . . .
तुम्हें छीन के नियति ने फेंका पासा
बाक़ी न रही मन में कोई आशा
घर, खेत, घेर, खलिहान-आँगन, बग़ीचा
जिसे ख़ून-पसीने से था तुमने सींचा
वहाँ मरघट सा व्याप्त है सन्नाटा
पापा तुम बिन . . .
जीवन पथ पर नया क्या संधान करूँ
किस लिए जियूँ, क्या निर्माण करूँ
जब तुम ही नहीं तो सब कुछ निष्प्राण
ज्यों चीर कलेजा लगा हो कोई बाण
अब दहन करूँ ख़ुद को या नव जीवन निर्माण
पापा तुम बिन . . .
तुम आसमान से ज़रा देखो तो पापा
मैंने दुख अपना न अब तक बाँटा
हुई सुख की सब अनुभूति नदारद
ये नियति का है कैसा क्रूर प्रारब्ध
मर सके नहीं तो फिर तो जीना है
पापा, तुम बिन . . .
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