देहाती कहीं के
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी दिलीप कुमार15 Dec 2024 (अंक: 267, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
दिल्ली, मेरे ख़्वाबों और मेरी आरज़ुओं का शहर। दिल्ली, जो कभी ‘दिलवालों की दिल्ली’ के नाम से मशहूर हुआ करती थी। वही दिल्ली अब ओपेन गैस चैम्बर के नाम से भी जानी जाती है। दिल्ली, जो सुल्तानों की लूट से लेकर शायरों का महबूब शहर हुआ करता था। जिस दिल्ली के बारे में उस्ताद शायर साहब ठंडी आह भरकर कहा करते थे “कौन जाए ज़ौक़, दिल्ली की गलियाँ छोड़कर।” उसी दिल्ली में तन-मन की बदहाली के बाद मुझ जैसे क़लमकार को डॉक्टर का हुक्म हुआ कि “हवा पानी बदलो। दिल्ली से कम से कम सौ किलोमीटर दूर चले जाओ। तो शायद बच जाओ और सौ साल तक जियोगे। नहीं प्रदूषण के पंजे में आ गए तो खाँस–खाँस कर ज़िन्दगी की ख़ुशहाली पर झाड़ू लग जायेगी। दिल्ली की हवा अब जानलेवा गैस बन चुकी है और पानी में इतनी गंदगी व्याप्त हो गई है कि नयनाभिराम कमल खिलने के बजाय बजबजाती हुई जलकुंभी ही अटी पड़ी रहती है। सो बेहतरी इसी में है कि कुछ वक़्त के लिए पहाड़ या गाँव चले जाओ।”
डॉक्टर की तज्वीज़ “पहाड़ या गाँव” वाली बात मेरे दिमाग़ में कुलबुलाने लगी।
दिल्ली के आसपास की जो पहाड़ वाली जगहें थीं वहाँ के ठहरने का किराया पहाड़गंज के होटलों से भी महँगा था। और रहा सवाल गाँव का तो? दिल्ली के जिस इलाक़े में अपना जीवन गुज़ार रहा था वह गाँव ही कहलाता था। ऐसा इलाक़ा जहाँ बिल्डिंग्स और महँगाई आसमानी थी फिर भी नाम था गाँव।
यानी उत्तराखंड के महँगे पहाड़ और यश चोपड़ा की फ़िल्मों वाला पंजाब का गाँव, दोनों ही मेरी पहुँच से बाहर थे। सो मैंने अपने ही पुश्तैनी गाँव की राह ली जो कि यूपी के अवध की तराई में था। यूपी का वही गाँव जिसमें मैं पैदा तो हुआ था पर कभी रहा नहीं था। और जिससे मुझे एक अनजानी चिढ़ थी दिल्ली में रहते हुए भी। उन्हीं गाँव वालों के घर जा रहा था जो दिल्ली में अपनत्व के कारण यूँ ही अकारण हमसे मिलने चले आते थे। पर उन्हें देखकर मैं जल-भुन जाया करता था और उनके रहन-सहन तथा पहनावे को देखकर कहता था “देहाती कहीं के।”
अचानक दिल्ली से गाँव जाने के लिए रेल आरक्षण मिलना मुश्किल था।
दिल्ली के नक़ली गाँव से अपने असली गाँव जाने के लिए मैंने अपना सामान पैक किया दिल्ली को हसरत भरी निगाह से देखकर एक मारुफ़ शायरा का शेर पढ़ा:
“कुछ तो तेरे मौसम ही मुझे रास कम आये,
और कुछ मेरी मिट्टी में बग़ावत भी बहुत थी।”
दिल्ली के रेलवे स्टेशन से ट्रेन में सीट न मिलने की वजह आनंद विहार से यूपी रोडवेज़ की बस पकड़ी और फिर बस अड्डे से बस के बाहर आते ही “वेलकम टू यूपी।”
रात भर के सफ़र के बाद सुबह-सुबह ही मैं अपने गाँव पहुँच गया। वही गाँव जिसका रेशा-रेशा खुरच कर अपने वुजूद से मैं काफ़ी पहले ही उतार चुका था। उतारना क्या? वास्तव में दिल्ली में पले-बढ़े होने के कारण गँवई रंग और देहातीपन मैंने ख़ुद में कभी आने ही नहीं दिया था। मुझे तो दिल्ली के अपने उस इलाक़े से भी चिढ़ हो जाती थी जब साइनबोर्ड पर इलाक़े के नाम के आगे गाँव लगता था। मैं मन ही मन बुदबुदाता, “हे भगवान, ये दिल्ली जो कॉलोनी और पुरी के उपनामों से भरी हुई थी। वहाँ पर मेरे हिस्से में गाँव का ही निवास आना था।” जिस गाँव शब्द से ही मुझे इतनी चिढ़ थी आज मैं उसी गाँव की पनाह में था। गाँव, गँवईपन, ग्रामीण और देहातीपन से मुझे एक ख़ास क़िस्म की खीझ रहा करती थी।
वैसे अब दिल्ली से भी ख़ासी बेजारी थी। सो गाँव में मन लगने के आसार थे मगर गाँव के अपने रंग-ढंग भी थे।
गाँव पहुँचा तो कुल-ख़ानदान के लोगों ने आत्मसात कर लिया। वही गाँव जो मेरे लिए शर्म था मगर गाँव के अपने कुनबे के लोगों के लिये अब मैं गर्व था। गाँव में मुझे मिले रामजस काका जो मेरे ही समवय थे मगर रिश्ते में काका लगते थे। वह पैदा तो मुंबई में हुए थे और शुरू के कुछ वर्षों तक मुंबई के कान्वेंट स्कूल में पढ़े थे मगर बाद में समय का चक्र ऐसा घूमा कि उनके जीवन के अगले तीन दशक गाँव में ही बीते और अब गाँव में ही रम गए थे। पहले ग्राम प्रधान हुआ करते थे मगर फ़िल-वक़्त सात वोटों से प्रधानी हार गए थे। वह जान गए कि मैं अचानक गाँव आया हूँ तो ज़रूर सब कुछ सामान्य नहीं है। वह रहते तो गाँव में थे मगर उनके अंदर का शहर उनके ज़ेहन और जीवन से निकल नहीं पाया था। मेरे स्वास्थ्य की समस्या के बारे में जानकर उन्होंने मुझे तसल्ली दी कि शुद्ध हवा, पानी, भोजन का प्रबंध तो वह कर देंगे मगर गाँव की पॉलिटिक्स और परसेप्शन में अगर मैं उलझा तो मैं शहरों के रास्तों से ज़्यादा कन्फ़्यूज़ हो जाऊँगा। गाँव का अपना रंग-ढंग और चलन होता है। आज के गाँव न तो यश चोपड़ा की फ़िल्मों की तरह सुंदर और हरे-भरे हैं और न ही मैथली शरण गुप्त के “अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है” की तर्ज़ पर सहज-सरल रह गए हैं। गाँव में खूँटा और नाली के विवाद के मुक़द्दमें ढोते-ढोते दो पीढ़ियाँ गश्त हो जाती हैं। गाँव में सब कुछ सहज-सरल नहीं होता यहाँ की बौद्धिक जुगाली “लुटियंस जोन” के स्तर की होती है। जिस तरह वहाँ एक ड्रिंक पर सरकार बनाने या गिराने के दावे किए जाते हैं वैसे ही गाँव में जो बंदा कभी जनपद मुख़्यालय से बाहर नहीं गया हो वह देश के किसी भी सेलेब्रिटी और वीआईपी से अपनी अंतरंगता के क़िस्से सुना सकता है। मैंने उनकी बातों को सजगता से सुना और गाँठ बाँध ली कि किसी भी घटना या वक़्तव्य पर कोई प्रतिक्रिया नहीं देनी है। न ही अच्छी और न ही बुरी बस तटस्थ रहना है।
अलसुबह मुझे रामजस काका अपने साथ घुमाने निकले। उन्होंने कहा “गाँव में कोई मेरा नाम नहीं लेता। बहुत सारे लोग मुझे रामजस के शार्ट फार्म में आरजे बुलाते हैं। कुछ लोग प्रधान जी भी कहते हैं। आओ तुम्हेंं गाँव के कुछ रंग-ढंग और परसेप्शन बताता हूँ।”
मैंने हैरानी से उनकी तरफ़ देखा तो उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा, “गाँव में अगर तुम्हारे जैसे महानगर से आया हुआ आदमी महीने भर से ऊपर ठहर जाए तो गाँव वाले यही समझेंगे कि इस आदमी की नौकरी चली गई है। भले ही तुम्हारे ख़र्चों में उन्हें कोई कटौती नज़र न आये मगर वह तुम्हेंं बेरोज़गार ही समझेंगे।”
अपने को लेकर मैं कुछ जवाब दे पाता इससे पहले उन्होंने आगे कहा, “और अगर रोज़ सुबह दौड़ने निकल जाओ तो गाँव के लोग मान जाएँगे कि इस बंदे को शुगर हो गया है। यहाँ सुबह की दौड़ को फ़िटनेस से नहीं बल्कि शुगर से जोड़ा जाता है।”
अब तो मुझे भी उनकी गँवई बातों में दिलचस्पी आने लगी। मुझे मुस्कुराते हुए देखकर उन्होंने उत्साह से आगे कहा, “अगर कम उम्र में ही ठीक-ठाक कमा कर औऱ लौट कर गाँव में पर्याप्त ख़र्चा करने वाले इंसान के बारे में आधा गाँव मान लेता है कि शहर में ज़रूर यह आदमी दो नंबरी काम करता होगा। और अगर उस इंसान ने जल्दी शादी कर ली तो गाँव में यह आम धारणा बन जाती है कि उस शख़्स का बाहर कुछ इंटरकास्ट चक्कर चल रहा होगा इसीलिए घर वाले फटाफट शादी कर दिए।”
यह बात भी मुझे काफ़ी मज़ेदार लगी।
रामजस काका ने मुस्कुरा कर कहा, “अगर लड़के की नौकरी लगी है और लड़का किसी वजह से शादी में देर कर रहा है तो लोगों का मेन आक्षेप यह रहेगा कि या तो लड़के के घर में बरम है या तो लड़का मांगलिक है। लोग बाग़ किसी ग्रहदोष या हैसियत से ज़्यादा दहेज़ माँगने की बातें बनाने लगते हैं।”
मुझे उनकी बातों में काफ़ी लुत्फ़ आया।
रामजस काका ने उनकी बातों से मुझे मिले लुत्फ़ को भाँपकर आगे कहा, “और अगर कोई शादी बिना दहेज़़ का कर लिये तो ज़्यादातर गाँव में कहेंगे कि लड़की प्रेगनेंट थी पहले से ही इज़्ज़त बचाने के चक्कर में लव मैरिज को अरेंज मैरिज में कन्वर्ट कर दिये लोग।”
रामजस काका की इस बात से मुझे काफ़ी मज़ा आया। गाँव की पहली सुबह में ही सतत मुस्कान मेरे अधरों पर खेलने लगी थी।
रामजस काका ने कहा, “गाँव के युवकों के बारे में दो चार मज़ेदार बातें और सुनो जिनसे वो दो-चार होते हैं।
पहला अगर कोई युवक खेत के तरफ़ झाँकने नहीं जाता तो गाँव में लोग कहते हैं कि अभी बाप का पैसा है तभी उधर खेत-वेत झाँकने नहीं जाता। दूसरे कुछ बरस बाद जब गाँव वालों के तानों से आजिज़ होकर वही लड़का खेती-किसानी में रुचि लेने लगता है तब लोग कहते हैं कि देखा धीरे-धीरे चर्बी उतरने लगा है।”
यह विरोधाभास सुनकर मेरी हँसी छूट गई।
रामजस काका ने भी हँसते हुए कहा, “ज़्यादा हँसो मत। तुम जैसे शहर से गाँव लौटे लोगों के बारे में भी आमतौर गाँव के लोग क्या समझते हैं? यह भी सुनो ध्यान से। अगर महानगर से मोटे होकर गाँव आये तो गाँव में यह आम राय होती है कि ज़रूर यह बंदा शहर में बीयर पीता होगा। और कहीं बंदा दुबला होकर गाँव आये तो मान लेते हैं ज़रूर बंदा शहर में गाँजा-चिलम पीता रहा होगा तभी उसे टीबी हो गया है और अब अपनी सेहत सुधारने गाँव आया है।”
मुझे अपनी दुबली-पतली सेहत का ख़्याल आया तो थोड़ा अजीब भी लगा कि गाँव में लोग मुझे चिलमची या टीबी का मरीज़ समझेंगे।
रामजस काका ने बात आगे बढ़ाते हुए कहा, “और सुनो, अगर बाल बढ़ा के गाँव लौटो तो गाँव में काफ़ी सारे लोगों को लगता है यह बंदा किसी ड्रामा कंपनी में नचनिया का काम करता है। हालाँकि अपनी दरवाज़े पर होने वाली नौटँकी नाच को भी गाँव वाले आर्केस्ट्रा कहते हैं और वहीं दूसरा कोई किसी बड़े आर्केस्ट्रा में भी काम करे तो उसे नचनिया पुकारेंगे। कुल मिलाकर गाँव में बहुत मनोरंजन है। यहाँ कोई डिप्रेशन में नहीं आता और ये बतकहियाँ ही मनोचिकित्सक का काम करके मन की पीड़ा सोख लेती हैं।”
तब तक किसी ने उधर से कहा, “गुड़ मॉर्निंग आरजे। हू इस दिस कूल ड्यूड विथ यू” यह कहते हुए उन्होंने मेरी तरफ़ हैंडशेक के लिए हाथ बढ़ाया।
“पाँय लागी मास्टर जी, यह घर का ही लड़का है ‘कूल ड्यूड’ नहीं। आपके प्रिय शिष्य रामकिशोर का बेटा राम प्रकाश है। दिल्ली से हवा-पानी बदलने गाँव आया है,” कहते हुए रामजस काका ने मुझे उनके पैर छूने का इशारा किया।
मैं उनके पैरों पर झुकने लगा तो उन्होंने मुझे बीच में रोकते हुए मेरा हाथ पकड़ लिया और हँसते हुए कहा।
“हाथ मिलाओ यंग मैन। आई एम वेरी मॉडर्न। पर तुम ठहरे देहाती कहीं के।”
उनकी बात सुनकर हम तीनों खिलखिलाकर हँसने लगे।
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