दिन का गाँव
काव्य साहित्य | कविता दिलीप कुमार15 Sep 2024 (अंक: 261, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
वैसे तो गाँव का हर वक़्त नीरस ही होता है,
पर दिन का गाँव कुछ ज़्यादा ही बेरंग होता,
कोई उम्मीद न बचती और न ही कोई
निश्छल हँसी रहती है दिन के गाँव में,
गाँव के लड़के, गाँव का दूध
गाँव की फ़सल, गाँव की सुंदरता,
सब तो दिन में शहर चले जाते हैं,
शहरों की शान और मेयार बढ़ाने,
दिन के गाँव में राह तकने के अलावा बचता ही क्या है?
दिन का गाँव सब कुछ उम्मीद के साथ शहर भेजकर,
अपनी उम्मीदों की वापसी की राह तकता रहता है,
कि साँझ ढले शहर से जो आएँगे,
वो उनके हिस्से की ख़ुशियाँ और सपने भी लेकर आएँगे,
गाँव अपनी सँजोई हुई सबसे क़ीमती चीज़ें,
एक-एक कर शहरों में भेज देता है,
ताकि शहर से मिली हुई हर एक चीज़,
फिर से वह सहेज कर रख सके,
गाँव अगर शहर बनने की फ़िराक़ में है तो,
गाँव को अपने हिस्से का गँवईपन छोड़ना ही होगा,
गाँव को तब अपनानी होगी,
शहरों सी क्रूरता, मतलबीपन और बदहवासी भी,
और उसे छोड़ना होगी मानवता,
रिश्तों की मिठास और सामंजस्य,
गाँव जानता है कि उसे भी देर-सबेर शहर बन जाना है,
तो फिर गाँव ही गाँव बन कर क्यों रहे?
सदियों से गाँव से जो कोई भी,
उम्मीदें और सपने लेकर शहर गया,
वह तभी तक गाँव लौट–लौटकर आता रहा,
जब तक उसके सपने सच नहीं हुए,
जब सपने सच हो गए तो
गाँव से शहर गया हुआ गाँव, फिर लौटकर गाँव नहीं आया,
क्योंकि गाँव में देखे गए सपने,
गाँव में न जाने क्यों सच नहीं होते?
गाँव से सब कुछ जाता ही तो है,
गाँव में रह जाती है सिर्फ़ बेबसी,
और अंतहीन दुखों की पोटली,
वैसे तो आजकल गाँव भी शहरों की तरह ही
योजनाओं, इश्तिहार और सरकारी कर्मचारियों से लबरेज़ हैं,
पर फिर भी न जाने क्यों गाँव उदास रहा करता है?
क्योंकि गाँव रोशनी की चमक से शहर जैसा तो हो गया,
पर गाँव के भीतर ही अब भी गाँव और पुराना गाँव दोनों बसता है।
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