गुमशुदा हँसी
काव्य साहित्य | कविता दिलीप कुमार15 Mar 2024 (अंक: 249, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
चेतना पारीक के कलकत्ते में किसी तलाश में आया हूँ मैं,
काफ़ी सुना था कि ये आनन्द और प्रेम की नगरिया है,
उसी मृग-मरीचिका की तलाश का पर्याय है चेतना पारीक,
चेतना पारीक जब होती भी
तब भी वह गुमशुदा ही थी तो वह अब क्या मिलेगी?
नहीं मैं भी तो चेतना पारीक के मिलने की उम्मीद नहीं करता,
मैं एक नाउम्मीदी से किसी और
चेतना पारीक की तलाश में भटक रहा हूँ,
मैं तो स्वाति सक्सेना को भी खोज रहा हूँ,
जिसे चेतना पारीक एक दिन अचानक छोड़ कर अंतर्ध्यान गई थी,
वही स्वाति सक्सेना जो चेतना पारीक की बेटी मानी जाती थी,
मिल जाये शायद कहीं ठहाके लगाकर हँसती,
या मंद-मंद मुस्कुराती बूढ़ी ही सही चेतना पारीक
हो सकता है दिख जाए कहीं स्वाति सक्सेना नाम की
वह साँवल गोरी,
जिसकी धवल दंत पँक्तियाँ दिखाती मुक्त हँसी,
लोगों को अपनी पीड़ा भुला दिया करती थी,
तुम्हारे शहर में अब खुलकर कोई हँसता क्यों नहीं,
कहीं पढ़-सुन रही हो तो बताओ ‘ओ’ चेतना पारीक,
लोग कहते हैं कि स्वाति सक्सेना ही सिर्फ़ ठठाकर हँसा करती थी,
नक़ली और सजावटी मुस्कराहटों के इस दौर में,
अख़बारों में स्वाति सक्सेना की पीड़ा की कविता
और धवल हँसी वाली तस्वीरें,
कारख़ाने बंद होने के दौर में
कलकत्ता के अख़बारों में निरन्तर शाया होती रहती थीं,
तुम्हारे शहर में लटके कंधे और दाढ़ियों वाले युवा प्रेमी
कहाँ गुम हो गए चेतना पारीक,
क्या उन सभी प्रेमियों की प्रेमिकाओं ने
नौकरीपेशा आदमियों से
शादियाँ कर ली हैं तुम्हारी तरह चेतना पारीक,
क्यों चेतना पारीक क्या ये अफ़वाह सच है ना?
कि तुम्हारी मानस पुत्री स्वाति सक्सेना ने भी तो शादी कर ली थी,
किसी इंक़िलाबी कवि से
और फिर वह एक कविता बन कर अमर हो गई,
फिर स्वाति सक्सेना का
कोई घर-परिवार क्यों नहीं है?
तुम्हारी ही तरह चेतना पारीक,
इंक़िलाबी कवियों के घर में ही
इंक़िलाब क्यों हो जाता है चेतना पारीक,
हर इंक़िलाबी कवि अपनी कविता को क्यों नहीं?
बल्कि अपनी कविता की प्रेरणा को ही अमर कर देता है,
आख़िर तुम लड़कियाँ प्रेम करती ही क्यों हो?
देर-सबेर तुम्हारे घर तो आबाद हो जाते हैं,
मगर उन घरों से प्रेम की उष्णता कहीं क्यों बेघर हो जाती है?
चेतना पारीक जब तुम जानती थी कि क्रांति नारों से नहीं आती,
तो तुमने स्वाति सक्सेना को
जुलूस की अगुवाई क्यों करने दी?
जब तुम जानती थी चेतना पारीक कि
क्रांति सिर्फ़ दीवारों पर लिखे नारे हैं,
तो तुमने स्वाति सक्सेना को क्यों नहीं बताया?
कि क्रांति की नारों भरी दीवार पर,
पेशाब भी कर जाते हैं उसी क्रांति से जुड़े हुए कुछ लोग,
तुम तो जानती थी चेतना पारीक ये बात अच्छे से,
कि हक़ माँगने और मिसाल दी जाने वाली लड़कियाँ,
हमेशा ही ख़ाली हाथ रह जाया करती हैं,
हाँ बिल्कुल तुम्हारी तरह ही,
जब ये सब-कुछ जानती थी चेतना पारीक,
तो तुमने हक़ की आवाज़ क्यों उठाने दी उसे,
और मिसाल क्यों बनने दिया स्वाति सक्सेना को,
आख़िर वह भी ज़िबह हो गई न,
तुम्हारी तरह ही चेतना पारीक,
तुम तो जानती ही थी चेतना पारीक,
कि सड़कों पर बहुत दिखाई देने वाली साहसी लड़कियाँ,
अक़्सर ग़ायब हो जाया करती थीं,
फिर तुमने स्वाति सक्सेना को
कलकत्ता की सड़कें टापने की नसीहत क्यों दी?
तुमने उसे विद्रोह के गीत गाने से क्यों नहीं रोका चेतना पारीक?
आख़िर वो भी कलकत्त्ते से ग़ायब हो गई न तुम्हारी तरह?
और सुनो लड़कियों कान खोलकर,
अब तुम चेतना पारीक या स्वाति सक्सेना
बनने की हिमाक़त करो या न करो,
दुबारा कोई कवि इस शहर में
गुम हुई हँसी को खोजने नहीं आने वाला,
न ही तुम्हारे लिए और न ही अपने लिये।
लेखकीय टिप्पणी: चेतना पारीक ज्ञानेंद्रपति की मशहूर कविता “ट्राम की एक याद” की काल्पनिक करैक्टर है जो हैरानी की बात है कि ज्ञानेंद्र पति की की कविता से ज़्यादा लोकप्रियता चेतना पारीक नामक काल्पनिक किरदार लोकप्रिय हुआ। कविता कलकते पर थी, तीन दशक बाद उसी कलकते और चेतना पारीक पर एक काल्पनिक किरदार स्वाती सक्सेना मैंने गढ़ा, उन सभी को मिलाकर मैंने ये गुमशुदा हँसी नामक कविता गढ़ दी।
वास्तव में मेरी जानकारी में चेतना पारीक और स्वाती सक्सेना नाम का कोई किरदार नहीं है, सब मेरी कल्पना की उपज और काल्पनिक किरदार हैं।
सादर,
दिलीप कुमार
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